पत्रकार का बनना और पैदा होना एक डिग्री लेने भर का सवाल नहीं, पत्रकार बनना एक प्रक्रिया है
पत्रकार का बनना और पैदा होना एक डिग्री लेने भर का सवाल नहीं, पत्रकार बनना एक प्रक्रिया है
कर्मठ पत्रकार या मोम के पुतले
मुझे वह दिन कभी नहीं भूलता जब इलाहाबाद के हिन्दू हॉस्टल में एक दिन हिन्दी के एक बड़े अखबार के स्थानीय संपादक अचानक मुझसे मिलने चले आए।
पहले तो मुझे समझ ही नहीं आया लेकिन जब उन्होंने बताया कि वह करीब दो साल से मेरे “संपादक के नाम पत्र” को पढ़ रहे हैं और मेरा लेखन उन्हें पसंद आ रहा है, तो जैसे लगा कि मैं कोई चमत्कार ही देख रहा हूँ और मुझे एकबारगी खुद पर विश्वास नहीं हुआ।
सबसे बड़ी बात यह थी कि वह मेरे लिए अपने अखबार के साप्ताहिक “कैम्पस” कॉलम में लिखने का ऑफर लेकर आए थे।
इसके बाद मेरी ज़िंदगी की पहली रिपोर्ट किसी अखबार में छपी, जो खुद छात्रावास की अव्यवस्थाओं से जुड़ी थी।
मैं विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए भी, वहाँ कि अव्यवस्थाओं, समस्याओं और विद्यार्थी हितों से जुड़े मुद्दों पर लिखता रहा। विश्वविद्यालय ने कभी भी मेरे खिलाफ न तो कोई नोटिस जारी किया और न ही कभी कोई कार्रवाई करके परेशान किया।
इसके बाद जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान में पढ़ने आया तो कभी अकेले या कभी सामूहिक रूप से हम संस्थान के खिलाफ हो गए और सार्वजनिक रूप से हमने अपनी राय रखी, लेकिन संस्थान ने कभी भी इसे अनुशासनहीनता नहीं माना बल्कि इसे सीखने की प्रक्रिया का एक अंग माना।
मुझे यह भी याद है कि भारतीय जनसंचार संस्थान के एक शिक्षक के बारे में मैंने उस समय अपने ब्लॉग में खुलकर लिखा लेकिन वह कभी नाराज नहीं रहे और इसका कोई असर मेरे परीक्षा परिणाम नहीं पड़ा।
ऐसे में जब मैंने यह सुना कि भारतीय जनसंचार संस्थान के पत्रकारिता के एक विद्यार्थी को सोशल मीडिया समेत कुछ मुख्यधारा की मीडिया में लिखने के चलते न केवल निलंबित कर दिया गया बल्कि संस्थान के परिसर में उसका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया है, मैं स्तब्ध रह गया। मुझे लगा कि असहमति को सह-अस्तित्व की विदाई इस संस्थान से भी आखिरकार हो गई।
छात्र पर आरोप है कि उसने संस्थान के एक बर्खास्त किए गए शिक्षक के समर्थन में बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया दी है और संस्थान के खिलाफ लोगों को उकसाया है।
कभी खुद पत्रकार रहे संस्थान के शीर्ष अधिकारी ने तो यहाँ तक कह दिया कि बर्खास्त शिक्षक का मामला अदालत में विचाराधीन है, कोई छात्र उस पर फैसला कैसे सुना सकता है?
क्या वास्तव में यह एशिया के सबसे बड़े पत्रकारिता संस्थान की पत्रकारीय समझ है?
किस संविधान या फिर कौन सी आईपीसी या कौन से कोर्ट की नियमावली लिखी-पढ़ी जा रही है संस्थान में?
क्या संस्थान के पास ऐसा कोई कोर्ट आर्डर है, जिसमें लिखा हो कि बर्खास्त किए गए शिक्षक के मसले की मीडिया रिपोर्टिंग नहीं की जा सकती है या उस पर सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।
जिस संस्थान के ऊपर देश के लिएकर्मठ पत्रकार पैदा करने की ज़िम्मेदारी हो, और अगर वही इस तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोटेगा तो यह संस्थान आगे देश को किस तरह के पत्रकार देने जा रहा है। क्या संस्थान ऐसे पत्रकार पैदा करने की योजना पर कार्य कर रहा है, जो व्यवस्था के साँठ-गाँठ की पत्रकारिता करें।
एक पत्रकार का बनना और पैदा होना एक डिग्री लेने भर का सवाल नहीं है, पत्रकार बनना एक प्रक्रिया होती है, इस प्रक्रिया का विकास सही मार्गदर्शन से ही हो सकता है,लेकिन जब पत्रकारिता सीखाने वाले संस्थान में ही पत्रकारिता की मौलिक सीख को हतोत्साहित किया जाय तो समझ लेना चाहिए पत्रकारिता को स्कूली पाठ्यक्रम में कैद करके बर्बाद करने की कोशिशें तेज़ हो गयी हैं, ऐसे में इलाहाबाद में मेरे अंदर पत्रकार ढूढने वाले संपादक जी जैसे वरिष्ठ पत्रकारों की भूमिका बढ़ जाती है।
शायद पत्रकारिता का पाठ पढ़ाने वाले खुद पढ़ना भूल गए कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में अभिव्यक्ति की आज़ादी की गारंटी दी गयी है और यही नहीं अनुच्छेद 51ए में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद, ज्ञानार्जन और सुधार की भावना का विकास करने को एक प्रमुख मौलिक कर्तव्य निर्धारित किया गया है। इसलिए पढ़ना और लिखना केवल रुचि का विषय नहीं है, यह मौलिक अधिकार होने के साथ ही मौलिक दायित्व भी है। उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन का क्या फायदा, जिसकी अभिव्यक्ति न हो सकती हो। अगर अपने खुद के कैम्पस में किसी भी तरह की कोई भी खामी दिखती है तो बिना अभिव्यक्ति के सुधार करने के मौलिक दायित्व का पालन कैसे हो सकता है?
विनय जायसवाल (स्वतंत्र पत्रकार)


