पत्रकार के रूप में व्यक्ति का नजरिया महत्वपूर्ण हो जाता है

पत्रकारिता की स्वतन्त्रता और पेशेवराना रवैये के आदर्शों को पाना है तो स्वामित्व के ढाँचे पर हमें पुनर्विचार करना होगा

बुनियादी नीतिगत समस्या मीडिया की Basic policy problem of media

किसी भी पेशे की जन उपयोगिता बनाये रखने के लिये उसकी आचार संहिता बनायी जाती है, लेकिन औपचारिक प्रशिक्षण ऐसी किसी आचार संहिता की पालना सुनिश्चित नहीं करा सकता है। यदि ऐसा सम्भव होता तो संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास करने वाले अभ्यर्थी औपचारिक प्रशिक्षण पाने के बाद भ्रष्टाचार में लिप्त न पाये जाते। वकालत के ही पेशे को लें तो उसके कामकाज की कुछ तकनीकी जरूरतें होती हैं, जिसके बिना काम नहीं चल सकता है। एक वकील को कानूनी व न्यायिक प्रक्रियाओं की जानकारी होनी चाहिये, उसके बिना वह जिरह नहीं कर सकता और अपने मुवक्किल को कानून के मानदंडो पर न्याय नहीं दिला सकता। इसीलिये वकालत में प्रशिक्षण जरूरी है। लेकिन ध्यान रहे कि यह प्रशिक्षण प्रक्रियाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिये ही जरूरी है, न कि यह प्रशिक्षण न्याय को सुनिश्चित कराता है। न्याय के लिये न्यायाधीश कानून की सारी जानकारियों को सबूतों पर तौलकर फैसला देने के लिये प्रशिक्षण नहीं बल्कि विवेक का इस्तेमाल करना पड़ता है। यही वजह है कि एक ही मामलों में न्यायाधीशों के सम्मत और विसम्मत मत आते हैं।

डॉक्टरी के पेशे को भी इसी तरीके से देखा जा सकता है। मरीज अपनी परेशानी बताता है और डॉक्टर यह समझ जाता है कि उसे किस वजह से परेशानी है। फिर वह उस वजह को खत्म करने की दवाएं देता है। दवाओं के नाम या उनकी मात्रा की जानकारी उसे होनी जरूरी है। अपनी पढ़ाई में वह इसी बात का प्रशिक्षण लेता है। प्रशिक्षण के दौरान उसे बताया जाता है कि किस तरह के लक्षण कौन से रोग के कारण हो सकते हैं और ऐसे लक्षणों को पहचानने के बाद उसे कौन सी दवा देनी चाहिये। ऑपरेशन करने के लिये प्रशिक्षण जरूरी होता है वरना सम्भव है कि वह मरीज के सेहतमंद अंगों को ही नुकसान पहुँचा दे। यह प्रशिक्षण साइकिल चलाने के प्रशिक्षण जैसा है, ताकि सन्तुलन के साथ चलने के लिये पैडल मार सके और रास्ता भी देख सके, न कि नौसिखिए की तरह कभी पैडल चलाना भूल जाये तो कभी रास्ता ही देखता रह जाता है। लेकिन एक बार जब आपका दिमाग अभ्यस्त हो जाता है तो आपको पैडल चलाने और रास्ता देखने के लिये ध्यान लगाने की जरूरत नहीं होती है, एक सन्तुलन कायम हो जाता है।

Journalism is a completely different profession.

लेकिन पत्रकारिता एक बिल्कुल अलग तरह का पेशा है। इसमें औपचारिक प्रशिक्षण की जरूरत कुछ सीमित कामों के लिये जरूरी है। जैसे सीमित स्थान में खबर लिखने का एक ढाँचा विकसित गया है। यह ढाँचा पाठक की सहूलियत के हिसाब से बनाया गया है। यह प्रशिक्षण अखबार के लिये अलग, टीवी के लिये अलग और रेडियो के अलग हो सकता है। लेकिन इसका एक और पहलू है। चूँकि खबरें, घटनाओं का प्रस्तुतीकरण हैं और किसी भी घटना को व्यक्ति अपने अनुभव आधारित नजरिए से देखता है, पत्रकार के रूप में व्यक्ति का नजरिया महत्वपूर्ण हो जाता है। यही बात पत्रकारिता को अन्य पेशों से अलग करती है।

वकालत में आमतौर पर वकील का प्रभाव उसके मुवक्किल तक सीमित रहता है, डॉक्टरी में डॉक्टर का प्रभाव मरीज तक या उसके परिजनों तक सीमित रहता है लेकिन एक पत्रकार का प्रभाव खबरों के माध्यम से उसके वृहद स्तर पर फैले पाठकों पर होता है।

किसी एक घटना पर किसी पत्रकार का दृष्टिकोण उसकी खबर बनने के बाद लाखों, करोड़ों लोगों का दृष्टिकोण बन जाती है। यह वैसे ही है जैसे एक ही पढ़ाई करके निकले कुछ डॉक्टर नैतिकता का दामन नहीं छोड़ते, जबकि दूसरे अपने मरीजों को यथासम्भव लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वकालत के पेशे के बारे में भी यही बात कही जा सकती है।

किसी भी तरह के प्रशिक्षण से दृष्टिकोण तय करना नहीं सिखाया जा सकता। यह हर आदमी अपने सामाजिक परिवेश और अपने अनुभवों से हासिल करता है।

अगर प्रशिक्षण को ही पत्रकारिता के पेशेवर रवैये का मानक माना जाये आजादी के पहले और हाल फिलहात तक बहुत से प्रतिष्ठित पत्रकारों को इस सूची से बाहर कर देना होगा। प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू के तर्कों को मानें तो चूंकि उन पत्रकारों के पास कोई प्रशिक्षण नहीं था, इसलिये उनकी पत्रकारिता को घटिया और मानकों के विपरीत मानकर खारिज किया जा सकता है। लेकिन क्या वाकई ऐसा कह पाना सम्भव है ?

इसी बहस की क़ड़ी में देश के सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री मनीष तिवारी ने फिर पत्रकारिता के लिये लाइसेंस का सवाल उठाया है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

यहां पर पत्रकारिता के पेशेवर रवैये को या पत्रकारिता के आदर्श को स्थापित करने की जरूरत है वैसे ही जैसे वकालत में वकील का अपने मुवक्किल के प्रति और डॉक्टर का अपने मरीज के प्रति होता है।

Journalist responsibility

एक पत्रकार का दायित्व अपने पाठक के प्रति है कि वह उसे सही सूचनाये, सही संदर्भों में दे ताकि पाठक उस पर अपनी खुद की राय कायम कर सके। भ्रामक और गलत सूचनाओं का नुकसान बहुत बड़ा हो सकता है।

Media freedom question : freedom of Journalists

जब आदर्शों का सवाल आता है तो मीडिया की स्वतंत्रता का सवाल प्रमुखता से उभरता है। अक्सर ही मीडिया के स्वतन्त्रता के सवाल को मीडिया संस्थानों या घरानों की स्वतन्त्रता तक सीमित कर दिया जाता है। और यह स्वतंत्रता, मीडिया घरानों पर सरकारी नियंत्रण के खिलाफ होती है। लेकिन इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण पहलू है पत्रकार की स्वतंत्रता का सवाल। पत्रकार की स्वतन्त्रता यानी खबरों को चुनने की स्वतन्त्रता और उन्हें उसी तरूप में पाठकों तक पहुँचाने की स्वतंत्रता। यह महत्वपूर्ण है।

आज जब मीडिया संस्थानों में बड़ी पूंजी लगी हुई है, उनके मालिक लगातार अपने हितों को बचाने और अपने स्वामित्व वाले मीडिया संस्थानों के माध्यम से उसे विस्तार देने में लगे हुए हैं। यानी आज मीडिया बड़े पूंजीपतियों के लिये उनके हितों को साधने का साधन बन गया है। इसका प्रयोग अपने हितों में लाबीइंग करने के लिये भी हो रहा है। यही कारण है कि हर बड़ा उद्योगपति अब मीडिया मालिक बनना चाहता है और जो पहले से ही मीडिया मालिक हैं वे अब अन्य माध्यमों पर एकाधिकार की होड़ में हैं। यह प्रवृत्ति सूचनाओं को मनमाफिक मोड़ने और रोकने की तरफ इशारा करती है।

यानी अगर आप किसी अखबार के मालिक हैं और कोई खबर आपके खिलाफ है तो कम से कम अपने अखबार में तो आप उसे छपने से रोक ही सकते हैं लेकिन अगर अखबार के अलावा टीवी पर भी आपका मालिकाना हक है तो टीवी के दर्शकों को भी आप सूचना मिलने से रोक लेंगे।

यह साफ है कि मीडिया की स्वतन्त्रता का सवाल पत्रकार की सूचना देने की स्वतन्त्रता और पाठक या दर्शक की सूचना पाने की स्वतन्त्रता से बहुत घनिष्ठ रूप से जुड़ा है। इस जुड़ाव में और स्वतन्त्रता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा माध्यम के स्वामित्व का है। आप लाख पढ़े-लिखे हों, नैतिक हों और किसी सूचना के सन्दर्भ में यह धारणा रखते हों कि इसे इसके स्वरूप में पाठकों या दर्शकों तक जाना चाहिये, अगर आपका मालिक नहीं चाहता है तो आप कुछ नहीं कर सकते। बहुत सम्भव है कि अगर आप अपने मालिक की बात न मानें तो आपको अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़े। यहां इस तरह के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।

दिल्ली से निकलने वाले अंग्रेजी के एक बड़े राष्ट्रीय दैनिक में रिपोर्टर थे, उन्होंने एक दिन एक बड़े बिल्डर के खिलाफ खबर छाप दी, जो कि उस अखबार में बड़ा विज्ञापनदाता था। नतीजतन उनको नौकरी से निकाल दिया गया।

बिहार में प्रेस आयोग की रिपोर्ट में इस तरह की कई घटनाओं का जिक्र है, जिसमें मुख्यमंत्री के खिलाफ खबर छापने वालों को चलता कर दिया गया।

The Indian Institute of Mass Communication is the most prominent institution imparting training in journalism.

भारतीय जनसंचार संस्थान पत्रकारिता का प्रशिक्षण देने वाला सबसे प्रमुख संस्थान माना जाता है। लेकिन यहां से पढ़ाई कर निकले विद्यार्थियों के बीच एक सर्वे में यह बात सामने आयी कि वे छात्र अपने पेशे से बहुत ज्यादा असन्तुष्ट हैं। उनमें से अधिकतर पत्रकारिता की नौकरी छोड़ कर सरकारी नौकरी का रूख कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि अगर पत्रकारिता के पेशे में भी क्लर्की ही करनी है तो इससे बेहतर कोई और नौकरी की जा सकती है।

What is london's news of the world scandal | Leveson report: key points | Media | The Hastakshep

यहाँ लंदन के न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड काण्ड का जिक्र करना भी समीचीन होगा। रूपर्ड मर्डोक के स्वामित्व वाले इस अखबार ने सनसनीखेज खबरों के लिये न सिर्फ लोगों के फोन टैप किये, बल्कि ब्लैक मेल भी किया।

जस्टिस लेविसन आयोग के सामने दिए अपने बयानों में इसमें काम कर चुके लोगों ने बताया कि उनके उपर एक्सक्लूसिव खबरों का दबाव हमेशा बना रहता था। “अगर आपकी बाइलाइन कम हैं तो समझिए कि आपकी नौकरी जाने वाली है।”

इसी तरह के दबाव में एक रिपोर्टर ने एक महिला और उसके साथ कुछ लड़कियों को ब्लैकमेल करने की कोशिश की। उस रिपोर्टर ने महिला और लड़कियों की एक ऑर्गी पार्टी की तस्वीरें खींची थी। उस पार्टी की खबर अखबार में तस्वीर सहित छपी, लेकिन लड़कियों के चेहरे को धुंधला कर दिया गया।

इसके बाद रिपोर्टर ने उन लड़कियों से संपर्क किया और उनका एक्सक्लूसिव इंटरव्यू अपने अखबार को देने को कहा। इस बाबत जब उन लड़कियों और महिला ने अनिच्छा जाहिर की तो रिपोर्टर ने कहा कि चूंकि उसे फॉलोअप खबर छापनी ही है तो अगर वे इंटरव्यू नहीं देती हैं तो उसके पास सिवाए इसके कोई चारा नहीं बचेगा कि वह उनकी तस्वीरें बिना धुँधली किये अखबार में छाप दे।

इस घटना के बाद न्यूज आफ द वर्ल्ड अखबार बन्द किया जा चुका है, लेकिन क्या इस घटना का दोष सिर्फ रिपोर्टरों के ऊपर डाला जा सकता है? क्या यह साफ नहीं है कि यह सब काम पूँजी के दबाव में मालिक के इशारे पर किया गया?

कम से कम यहाँ तो नहीं कहा जा सकता कि रिपोर्टरों में प्रशिक्षण की कमी थी।

यह साफ है कि पत्रकारिता की स्वतन्त्रता मूल रूप से पूँजी के ढाँचे के साथ जुड़ी हुयी है। पूँजी माध्यम का इस्तेमाल अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिये करती है। उसके हितों के खिलाफ जाने वाली किसी भी बात को वो बर्दाश्त कर ही नहीं सकती।

जाहिर है ऐसे संस्थान में काम करने वाले लोग लाख चाहकर भी स्वतन्त्रतापूर्व अपना पेशा नहीं कर सकते चाहे वे कितने ही प्रशिक्षित क्यों न हों।

इसलिये अगर पत्रकारिता की स्वतन्त्रता और पेशेवराना रवैये के आदर्शों को पाना है तो स्वामित्व के ढाँचे पर हमें पुनर्विचार करना होगा।

अवनीश राय

आप हस्तक्षेप के पुराने पाठक हैं। हम जानते हैं आप जैसे लोगों की वजह से दूसरी दुनिया संभव है। बहुत सी लड़ाइयाँ जीती जानी हैं, लेकिन हम उन्हें एक साथ लड़ेंगे — हम सब। Hastakshep.com आपका सामान्य समाचार आउटलेट नहीं है। हम क्लिक पर जीवित नहीं रहते हैं। हम विज्ञापन में डॉलर नहीं चाहते हैं। हम चाहते हैं कि दुनिया एक बेहतर जगह बने। लेकिन हम इसे अकेले नहीं कर सकते। हमें आपकी आवश्यकता है। यदि आप आज मदद कर सकते हैंक्योंकि हर आकार का हर उपहार मायने रखता है – कृपया। आपके समर्थन के बिना हम अस्तित्व में नहीं होंगे।

मदद करें Paytm – 9312873760

Donate online –

Notes -

The News International phone-hacking scandal was a controversy involving the now-defunct News of the World and other British newspapers owned by Rupert Murdoch. Employees of the newspaper were accused of engaging in phone hacking, police bribery, and exercising improper influence in the pursuit of stories.

पत्रकार का दायित्व, Journalist responsibility, मीडिया की स्वतंत्रता, Media freedom, पत्रकार की स्वतंत्रता, What is london's news of the world scandal, Justice Leveson Inquiry Commission, Leveson report: key points | Media | The Hastakshep.