राजदीप, रिपोर्टिंग और मोबाइल में दर्ज “झूठा सच’’
पंकज श्रीवास्तव
हिंदी के वरिष्ठ कवि नीलाभ ने कभी एक कविता लिखी थी- चुप्पी सबसे बड़ा ख़तरा है ज़िंदा आदमी के लिए/तुम्हें पता भी नहीं चलता/ कब वो तुम्हारे खिलाफ खड़ी हो जाती है/ और सर्वाधिक सुनाई देती है!
न्यूयार्क में मशहूर टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई पर हमले की घटना पर मीडिया जगत के बड़े धड़े में निर्विकार चुप्पी आने वाले दिनों में उसी के ख़िलाफ खड़ी नज़र आये तो आश्चर्य नहीं होगा। मीडिया का जो छोटा हिस्सा इस मुद्दे पर मुखर है, वो इस संकट को समझना-समझाना तो दूर, मौके का इस्तेमाल राजदीप की ‘छवि’ को धूमिल करने में जुटा है। तमाम ‘किस्से’ गढ़े जा रहे हैं जिसमें राजदीप ही नहीं उनकी पत्नी सागरिका घोष से लेकर उनके ससुर और एनडीटीवी तक निशाने पर है। एनडीटीवी से राजदीप ने टीवी पत्रकारिता की शुरुआत की थी। इस सबका आधार एक वीडियो क्लिप है जिसमें राजदीप मैडिसन स्क्वायर पर एक एनआरआई युवक को गाली देते हुए उस पर झपट रहे हैं। शोर यह है कि राजदीप ने ‘पहला’ , जी हाँ ‘पहला’ हाथ छोड़कर गुनाह किया। पत्रकारिता की मर्यादा भंग की। प्रधानमंत्री मोदी के दौरे के समय विदेशी धरती पर देश की प्रतिष्ठा को तार-तार किया।
माफ़ कीजिए, सच्चाई एक वीडियो क्लिप की मोहताज नहीं होती। सच्चाई वह भी होती है जो कैमरे में दर्ज नहीं हो पाती। देश के कुछ बड़े पत्रकारों में शुमार किये जाने वाले राजदीप गली के गुंडे नहीं हैं जो मैडिसन स्क्वायर पर किसी दुकानदार से ‘हफ्ता’ वसूलने के लिए धमका रहा है। ऐसे में राजदीप का यूँ आपा खो देना कोई सामान्य घटना नहीं है। हां, इसके कारण की तलाश ना करना ज़रूर ‘असामान्य’ है।
मैंने ‘हेडलाइन्स टुडे’ पर राजदीप का ‘लाइव’ देखा है जिसमें वे मैडिसन स्क्वायर पर मोदी के इंतज़ार में खड़े लोगों का इंटरव्यू कर रहे थे। करीब 18 मिनट के इस कार्यक्रम में राजदीप ने जैसा धैर्य दिखाया, वह पेशेवाराना प्रतिबद्धता की मिसाल है। यह बात मैं दस साल की फील्ड रिपोर्टिंग के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। मैंने तमाम दिग्गज टीवी पत्रकारों को भीड़ के बीच काँपते देखा है। फ़ील्ड में लाइव के दौरान बगल से किसी गाड़ी के गुज़र जाने पर असिस्टेंट पर भड़कते और किसी एकांत मे जाकर एक पीटीसी के लिए दस-बारह टेक देते देखा है।
राजदीप के इस ‘लाइव’ में पहले मिनट से उनके ख़िलाफ नारे लग रहे थे। ‘राजदीप मुर्दाबाद’ से लेकर भद्दी-भद्दी गालियों तक। इस सबके बीच राजदीप मुस्कराते हुए लोगों से सवाल पूछ रहे थे, आग्रह कर रहे थे कि लोग शांत होकर अपनी बात कहें। कई बार उन्होंने लोकतंत्र की दुहाई भी दी जिसमें असहमति के अधिकार का सम्मान करना ज़रूरी है। भारतीय संस्कृति की भी दुहाई दी, लेकिन कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं था। इसके बावजूद राजदीप कुछ ज़रूरी ख़बर निकालने में कामयाब रहे। जिसमें सबसे बड़ी थी वहां खड़े लोगों की स्वीकारोक्ति कि उन्होंने टिकट ख़रीदे नहीं, बल्कि मोदी के कार्यक्रम में आने के लिए उन्हें मुफ़्त पास दिये गये हैं। बहरहाल, नारेबाजी तब तक जारी रही जब तक राजदीप ने ‘ओवर टू स्टूडियो’ नहीं कहा।
इस दौरान मुझे 2007 का गुजरात विधानसभा चुनाव याद आ रहा था, जिसे एक टीवी पत्रकार बतौर मैंने कवर किया था। वहाँ दिल्ली से गये पत्रकारों के ख़िलाफ ज़बरदस्त ग़ुस्सा था। जब भी मैंने ‘चौपाल’ जैसा कोई सार्वजनिक कार्यक्रम किया या सड़क पर खड़े लोगों से बातचीत की, शोर-शराबे और नारेबाज़ी करने वाले संगठित गिरोह की तरह नमूदार हुए और शोर मचाकर काम करना मुश्किल कर दिया। मेरी नज़र में राजदीप का धैर्य वाकई कमाल का था जो मुंह से दो-तीन फिट की दूरी से लगातार दी जा रही गालियोँ के बावजूद मुस्करा रहे थे। ऐसे माहौल में अक्सर कार्यक्रम बीच में रोक दिया जाता है, लेकिन राजदीप ने काम पूरा करने के बाद ही ‘ओवर टू स्टूडियो’ कहा।
मैं एक मामूली पत्रकार हूँ जिसकी लोकतंत्र मे असीम आस्था है, लेकिन माँ-बहन की गाली सुनने के बाद मैं किसी का सिर भी फोड़ सकता हूँ। जो लोग ‘लाइव’ के दौरान राजदीप को गाली दे रहे थे, वो कैमरा बंद होने के बाद चुप हो गये होंगे, यह मानने की कोई वजह नहीं। ऐसे किसी क्षण में राजदीप ने अगर आपा खोया तो यह इसी बात का सबूत है कि राजदीप भगवान नहीं, इंसान हैं।
मौके पर मौजूद फ़ायनेंसियल टाइम्स के पत्रकार जेम्स एफ.खान ने ट्विटर पर जानकारी दी है कि वहां मौजूद लोगों ने राजदीप को ‘देशद्रोही’ भी कहा। दैनिक भास्कर अख़बार के पत्रकार अचिंत शर्मा भी घटना के वक्त वहां मौजूद थे। उन्होंने विस्तार से बताया है कि कैसे करीब 50 लोग राजदीप को घेरकर उनके मुँह पर ‘हर-हर मोदी’ या ‘मोदी-मोदी’ का नारा लगा रहे थे। मुझे नहीं लगता कि गुस्से से भरे लोग अगर मुंह पर लगातार ‘राम-राम’ भी कहें तो कोई बर्दाश्त कर पाएगा। ज़ाहिर है, इस ‘मोदी-मोदी’ का मक़सद राजदीप को चिढ़ाना था। अचिंत के मुताबिक राजदीप ने आपा तब खोया जब एक चश्मेवाले भगवा वस्त्रधारी ने अपना फोन राजदीप के साथी कैमरामैन के लेंस पर दे मारा। गाली और झपट पड़ने की मोबाइल वीडियोक्लिप यहीं बनी और राजदीप ‘गुनाहगार’ हो गये।
अचिंत ने जो जानकारी दी है वह सोशल मीडिया पर तैर रही किसी वीडियो क्लिप में नहीं है। बहरहाल, मौजूदगी के बावजूद अचिंत बहुत कुछ नहीं देख पाये। जैसे उनकी नज़र ‘योगेश टिबरवाल’ पर नहीं पड़ी, जिसने बाद में फेसबुक पर मित्रों के बीच डींग हाँकी-“ हाँ बे, मैंने राजदीप को भीड़ में इस तरह मारा कि वह जान भी नहीं पाया।”
सवाल यह उठता है कि मोदी को भगवान मानने वाले राजदीप से इतनी घृणा क्यों करते हैं। दरअस्ल, वे गुजरात दंगों के दौरान राजदीप की निर्भीक रिपोर्टिंग के ताप को भुला नहीं पाये हैं। यही नहीं, राजदीप उन चुनिंदा पत्रकारों में हैं जो ‘आयडिया ऑफ इंडिया’ के मुखर पक्षधर हैं जिसका आधार ‘लोकतंत्र’, ‘पंथनिरपेक्षता’ सहिष्णुता, ‘बहुलतावाद’ और ‘न्याय’ है। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और सम्मान का प्रश्न इस ‘आयडिया’ की कसौटी है। इस पर विश्वास करने वाले जानते हैं कि गाँधी जी की देन केवल 'आज़ादी" और "सफाई" नहीं है, उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सीने पर गोली भी खाई है। आधुनिक भारत की बुनियाद में गाँधी जी के ख़ून से सनी मिट्टी का गारा भी है जो कट्टरपंथ से लड़ते हुए बहा।.. प्रधानमंत्री बनने के बाद जब मोदी कहते हैं कि “अलकायदा भारत में सफल नहीं होगा। यहां के मुसलमान भारत के लिए जीते हैं और भारत के लिए मरते हैं”, तो वे भी उसी ‘आयडिया’ पर मुहर लगा रहे होते हैं। मोदी जो बात प्रधानमंत्री बनने के बाद कह रहे हैं, राजदीप उसे हमेशा से कहते आये हैं।
अफ़सोस, उन्मत्त मोदी समर्थकों ने जो पाठ्यक्रम पढ़ा है, उसमे इस ‘आयडिया ऑफ इंडिया’ को खारिज किया जाता है। केंद्र में बहुमत की सरकार बनने के बाद जब मोदी 1200 साल की ग़ुलामी से आज़ादी की बात करते हैं, तो उन्हें जोश आता है, लेकिन जब मोदी दस साल तक दंगे-फ़साद भुलाकर शांति की अपील करते हैं, तो यह उन्हें महज़ रणनीतिक बयान लगता है। पिछले दिनों राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के कार्यक्रम में मशहूर न्यायविद् फली एस. नरीमन ने यही चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि पिछले कुछ समय से उदार हिंदुत्व कमजोर पड़ा है और आक्रामक हिंदुत्व मजबूत हुआ है। एक बड़े तबके को लगता है कि केंद्र में सत्ता आक्रामक हिंदुत्व की वजह से मिली है।
शायद, राजदीप प्रकरण पर चुप्पी साधे मीडिया को अंदाज़ा नहीं कि वह कुल्हाड़ी पर पैर मारने में जुटा है। मीडिया की आज़ादी असहमति के अधिकार पर टिकी है। आम धारणा है कि इमरजेंसी के दौरान झुकने को कहा गया था और मीडिया लेट गया था, लेकिन इस बार तो बिना कहे ही वह ‘लोटने’ लगा है। यह आरोप पूर्णसत्य ना हो तो भी सत्य से बहुत दूर नहीं है।
लोकसभा चुनाव के पहले एक इंटरव्यू में एबीपी न्यूज़ के संपादक शाज़ी ज़मां के सवाल के जवाब में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘जो डरते हैं, उन्हें पत्रकारिता छोड़कर कोई और धंधा कर लेना चाहिए। ’ अफ़सोस, पत्रकारिता के बारे में जो बात मोदी भी जानते हैं, उसे पत्रकारिता के दिग्गजों ने भुला दिया है।

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