पिछले कुछ समय से पत्रकारिता पर लगातार सवाल उठते रहे हैं, चूँकि आजकल चुनाव का मौसम है, इसलिए पक्ष विशेष के समर्थन को लेकर पत्रकारिता को अक्सर कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है, लेकिन यह कहना उचित ही होगा कि इस संदर्भ में पत्रकारिता की बजाय 'मीडिया' शब्द अधिक प्रासांगिक लगता है। मीडिया हमेशा ही स्वनियमन के नाम पर खुद को बचाता रहा है।
यूँ तो पत्रकारिता का न कभी कोई बाजार रहा है, और न ही उसका बाजारवाद से कोई रिश्ता बन सका। पत्रकारिता कभी भी खरीदने या बेचने की वस्तु नहीं रही, बल्कि वह समाज को एक दिशा देने का प्रयास करती रही है और अपने अस्तित्व तक यह करती रहेगी, यह विश्वास किया जाता है।
पत्रकारिता का फलक इतना विस्तृत है, कि उसे एक सीमा में बाँधना सम्भव नही है। समाज से निकली विसंगति के केंद्र में पत्रकारिता है,जोर-ज्यादती और सामाजिक ताने बाने को छिन्न-भिन्न करने के खिलाफ जो आवाज गूँजती है,वह पत्रकारिता है। जब एक सरकारी दफ्तर का बाबू एक आदमी की बात नहीं सुनता है, तो पत्रकारिता के माध्यम से उस आम आदमी की बात सुनी जाती है। पत्रकारिता की यही प्रकृति उसे 'मीडिया' से अलग करती है।
लगभग तीन दशक पहले की बात है,जब टी.वी. अपनी शैशवावस्था में था, तो यह इलेक्ट्रानिक मीडिया कहकर पुकारा गया लेकिन कालांतर में मीडिया शब्द सरलता के कारण स्थापित होता चला गया।"स्वयं में पत्रकारिता को समाहित रखने वाला टी.वी. प्रसारण जब मीडिया बन जाता है, तो बाजार रुपी काल का ग्रास बन जाता है। मर्यादा और सीमा बंधन का बाजार के लिए कोई महत्व नहीं है, शायद यही कारण है कि मीडिया इस समय बाजारवाद के शिकंजे में है। यही कारण है कि बाजार ने मीडिया के भी एक वस्तु मान लिया और खरीद फरोख्त के स्तर पर पहुँच गया है। पिछले कुछ समय में मीडिया से जुड़े कई लोगों के नाम खरीद फरोख्त में उछले और मामला अदालत तक पहुंचा और प्रश्न उठा कि दोषी कौन? इससे अहम प्रश्न यह है कि खरीदने -बेचने की बात आई कहाँ से? यदि ऐसा है तो यह बात 'सोचनीय' भी है और 'शोचनीय' भी। बाजार के लिए यह कोई खबर नहीं थी क्योंकि बाजार अपने नियमों के हिसाब से ही चल रहा था, लेकिन खुद के पत्रकार होने का दावा करने वालों के लिए वाकई यह 'खबर' थी। लेकिन बदनामी होकर भी नामी बन जाने की हसरत ने बाजार को जिता दिया।
मीडिया का बेहद चर्चित सूत्र वाक्य है कि "जो दिखता है वही बिकता है", इसी के सहारे वह बेचने के क्रम में वह संवेदनाओं को भी बेचने से चूक नही रहा। अंग्रेजी दासता के काल में मिशन के तौर पर जानी जाने वाली पत्रकारिता विशुद्ध ‘प्रोफेशन' बनकर रह गयी है। समय -समय पर सरकारी तंत्र और अपने ही आंतरिक तंत्र के बीच से उठने वाली आवाजों मसलन एक न्यूनतम योग्यता निधारित करने, एक नियामक तंत्र बनाने और जबाबदेही तय करने को लेकर हमेशा से ही मीडिया बचता रहा है। इसलिए विभिन्न समाचार चैनलों के संपादक जो स्टूडियों में बैठकर व्यवस्था को कोसते नही अघाते, और स्वयं करोड़ों रुपयों के बंगलों और महंगी गाड़ियों में घूमते हैं, इन्हीं के चैनलों में जब अचानक बिना बताये कर्मचारियों की छंटनी हो जाती है, तब यही लोग चूँ तक नही करते। स्पष्ट है कि खुद को पत्रकार कहने वाले और वास्तव में विशुद्ध निवेशक और व्यवसायी का रवैया रखने वाले इन ‘मीडियाकर्मियों’ और पत्रकारिता के बाच का द्वंद तभी खत्म हो सकेगा,जब हम पूँजीवाद के मोह से मुक्त होकर हम विशुद्ध पत्रकारिता के बारे में सोचेंगे।
विशाल शुक्ला
विशाल शुक्ला, लेखक युवा पत्रकार हैं। उन्होंने भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से 2013-14 में पत्रकारिता (हिन्दी पत्राकरिता) की पढ़ाई की है। फिलहाल दैनिक जागरण -वेब में कार्यरत हैं।