मोदी के खिलाफ अब 53 इतिहासकारों ने खोला मोर्चा, वैज्ञानिक भी हुए शामिल!

कारवां लगातार लंबा हो रहा है हमारा , आप तय करें कि किस तरफ हैं आखिर आप!
अब भारतीय जनता को तय करना है कि यह केसरिया आपातकाल कब तक जारी रहना है।
राष्ट्र के विवेक ने इंदिरा को भी माफ नहीं किया, राष्ट्र के उस विवेक से थोड़ा डरा भी कीजिये!
पलाश विश्वास
पद्मभूषण लौटाया वैज्ञानिक और इतिहास भी मुखर है!
‘असहिष्णुता के माहौल’ के खिलाफ बढ़ते विरोध में आज इतिहासकार भी लेखकों, फिल्मकारों और वैज्ञानिकों के साथ शामिल हो गए। इस कड़ी में शीर्ष वैज्ञानिक पीएम भार्गव ने कहा कि वह अपना पद्म भूषण पुरस्कार लौटाएंगे। उन्होंने आरोप लगाया कि मोदी सरकार भारत को एक ‘हिंदू धार्मिक निरंकुश तंत्र’ में बदलने की कोशिश कर रही है।
बुद्धिजीवियों के विरोध प्रदर्शनों की लहर में वैज्ञानिकों के दूसरे समूह के शामिल होने के बीच रोमिला थापर, इरफान हबीब, केएन पन्निकर और मृदुला मुखर्जी सहित 53 इतिहासकारों ने देश में ‘अत्यंत खराब माहौल’ से उत्पन्न चिंताओं पर कोई ‘आश्वासनकारी बयान’ न देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोला।
कारवां लगातार लंबा हो रहा है हमारा , आप तय करें कि किस तरफ हैं आखिर आप!
अब भारतीय जनता को तय करना है कि यह केसरिया आपातकाल कब तक जारी रहना है।
पुरस्कार लौटाने का सिलसिला जारी है।
हालांकि बंगाल के फिल्म निर्देशकों दिवाकर बंदोपाध्याय और इंद्रनील लाहिड़ी के कवि मंदाक्रांता सेन के बाद परस्कार लौटाने पर अब भी बंगाल के सुशील समज के तमाम आइकन सरकारी कर्मचारियों की तरह अपने वेतन और भत्तों की फिक्र में बाकी देश दुनिया के साथ खड़ा होने से इंकार कर रहे हैं।
नई लहर के सिनेमा के मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल जिन्हें हम उनकी फिल्मों की तरह वैज्ञानिक दृष्टि और सामाजिक यथार्थ के सौंद्रयबोध के धनी मानते रहे हैं, वे भी फिलहाल अलग सुर अलाप रहे हैं। मौन हैं मृणाल सेन और डा. अमर्त्य सेन से लेकर बिग बी अमिताभ बच्चन, पुणे फिल्म संस्थान का सबसे चमकदार चेहरा सांसद जया बच्चन, रजनीकांत, अदूर गोपालकृष्णन और गिरीश कर्नाड भी। पिर बी कारवां लंबा होता जा रहा है।
हम निराश हैं कि जाने माने फिल्म निर्माता, निर्देशक श्याम बेनेगल ने कहा है कि कलाकारों का अपने पुरस्कार लौटाना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। टीवी चैनल सीएनएन आईबीएन को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि पुरस्कार देश देता है, सरकार नहीं। उनका ये बयान ऐसे वक्त आया है जब लेखक और कलाकार देश में बढ़ रही असहिष्णुता के खिलाफ़ लगातार अपने सम्मानों को लौटा रहे हैं। बुधवार को ही दस फिल्मकारों ने पूणे फिल्म संस्थान के हड़ताल कर रहे छात्रों के विरोध में अपने पुरस्कार लौटाए। इनमें मशहूर फिल्म निर्देशक दिबाकर बैनर्जी और डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता आनंद पटवर्द्धन शामिल हैं।
ऐसा ही कोलकाता के सुशील समाज के धुरंधरों के बयान का लब्बोलुआब है।
इसी तरह हमारी प्रिय बॉलीवुड अभिनेत्री विद्या बालन ने गुरुवार को कहा कि वह अपना राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं लौटाएंगी क्योंकि यह सम्मान उन्हें राष्ट्र ने दिया है, सरकार ने नहीं। यह टिप्पणी ऐसे समय सामने आई है जब कुछ प्रसिद्ध फिल्मी हस्तियों ने एफटीआईआई छात्रों के साथ एकजुटता दिखाते हुए और देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ अपने राष्ट्रीय पुरस्कारलौटाए हैं। विद्या ने एक कनक्लेव में कहा, "यह सम्मान (पुरस्कार) राष्ट्र द्वारा दिया गया, सरकार द्वारा नहीं। इसलिए मैं इसे लौटाना नहीं चाहतीं। "
हमारी लड़ाई फिर भी जारी रहेगी लबों को आजाद करने के लिए।
साझे चूल्हों की सेहत के लिए और हम जानते हैं कि इतिहास के निर्मायक मोड़ पर जरुरी फैसले करने में, आम जनता के साथ एक पांत में खड़े होने में अनेकमहान विभूतियों से भी चूक हो जाती है।
इस नरसंहारी फासीवाद के शरणागत जो हैं, उनसे कम गुनाहगार वे नहीं हैं जिनकी मेधा, जिनकी आत्मा सो रही है और विवेक का दंश भी उन्हें जगा नहीं पाता। इतिहास उनका किस्सा खोलेगा।
फिरभी कारवां लंबा होता जा रहा है।
गौरतलब है कि कल ही लेखक, कलाकारों और वैज्ञानिकों के बाद अब फिल्मकारों ने सरकार से नाराजगी जताते हुए राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाने का ऐलान कर दिया है।
गौरतलब है कि कल दस ही फिल्मकारों के पुरस्कार लौटाने की खबर थी, जो दरअसल बारह हैं। बंगाल के दूसरे निर्देशक लहिड़ी के बारे में आज ही पता चला है।
वैज्ञानिक पीएम भार्गव लौटाएंगे पद्म पुरस्कार, बोले- लोकतंत्र के रास्ते से दूर जा रही है मोदी सरकार
हैदराबाद से खबर है : पद्म भूषण से सम्मानित वैज्ञानिक पीएम भार्गव ने अपना पुरस्कार लौटाने की घोषणा की।
जाने-माने वैज्ञानिक पुष्प मित्र भार्गव ने गुरुवार को कहा कि वह अपना पद्म भूषण पुरस्कार लौटा रहे और उन्होंने आरोप लगाया कि राजग सरकार भारत को ‘हिंदू धार्मिक निरंकुशतंत्र’ में बदलने का प्रयास कर रही है। । इस तरह वह भी अन्य वैज्ञानिकों की तरह ‘बढ़ती असहिष्णुता’ के विरोध में शामिल हो गए हैं।
हम बार बार चेता रहे हैं कि कोई जनादेश निर्णायक और अंतिम नहीं होता। कोई चुनावी या जाति धर्म ध्रुवीकरण का समीकरण भी अंततः अंतिम नहीं होता।
हिटलर ने भी जनादेश जीता था, बाकी इतिहास है।
इतिहास और भूगोल और विज्ञान, साहित्य और कला, माध्यमों और विधाओं में इंद्रधनुषी मनुष्यता की अभिव्यक्ति होती है और आप उसका सम्मान करें, ऐसी तहजीब साझे चूल्हें की होती है। भारत तीर्थ की होती है।
नस्ली रंगभेद, फासिज्म और मनुस्मृति शासन के त्रिशुल में फंसी है आपकी आत्मा तो आप धर्म की बात भी न किया करें तो मनुष्यता और प्रकृति के हित में बेहतर।
साठ के दशक के मोहभंग के बाद जागा सत्तर का दशक फिर इतिहास के सिंहद्वार पर वापसी के लिए दस्तक दे रहा है।
छात्र युवाशक्ति मुक्तबाजारी चकाचौंध से मोहमुक्त होकर आरक्षण विवाद और अस्मिता चक्रव्यूह के आर पार तेजी से गोलबंद हो रही है और देश ही नहीं, दुनियाभर की मेधा भारत को गधों का चारागाह बनने देने की रियायत देने से इंकार कर रहे हैं।
कारवां लगातार लंबा हो रहा है हमारा , आप तय करें कि किस तरफ हैं आखिर आप।
भाजपा के नेता, इंडियन एक्सप्रेस के मशहूर पूर्व संपादक और दुनिया भर में पहले विनिवेश मंत्री अरुण शौरी ने मौजूदा पीएमओ को निकम्मा निठल्ला और सुस्त बताते हुए डा.मनमोहन सिंह के पीएमओ को ज्यादा एक्टिव बता दिया।
गौरतलब है कि जन वैश्विक वित्तीय संस्थानों और बहुराष्ट्रीय कारपोरेट हितों के मद्देनजर माननीय शौरी महाशय का यह फतवा है, उनने अपने सृजित सुधारों के ईश्वर डा.मनमोहन सिंह की सरकार को नीतिगत विकलांगकता के महाभियोग से खारिज करते हुए अपना वरदहस्त हटा लिया तो इंडिया इंक ने अपने नय़े ईश्वर के बतौर वैदिकी इंद्रदेव का आवाहन कर दिया और मौजूदा वैदिकी हिंसा उसीकी तार्किक परिणति है।
अब डाउ कैमिकल्स के कारपोरेट वकील जिनने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय से वंचित करने की आर्थक समझ के तहत देश की अर्थ व्यवस्था की बागडोर संभाल ली है, उनका फतवा है कि जो साहित्यकार, कलाकार, लेखक, फिल्मकार, वैज्ञानिक वगैरह-वगैरह हैं, वे भाजपा के चरम विरोधी हैं।
फासीवाद का अंत तो हो ही जायेगा।

माफ करें वकील साहेब, आप सर्वोच्च अदालत तक की अवमानना से परहेज नहीं करते और इसमें आपकी दक्षता हैरतअंगेज हैं, लेकिन राष्ट्र के विवेक का ऐसा अपमान भी न करे कि संघ परिवार इतिहास के कचरे में शामिल हो जाये। फासीवाद का अंत तो हो ही जायेगा।
इसी तरह, कुछ फिल्मकारों के राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाने पर अभिनेता अनुपम खेर बिफर गए हैं। उन्होंने पुरस्कार लौटाने वालों की मंशा पर, साथी फिल्मकारों की मंशा पर सवाल उठाया है। अनुपम खेर ने ट्वीट किया, कुछ और लोग जो नहीं चाहते थे कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनें, अब वो भी #AwardWapsi गैंग का हिस्सा बन गए हैं। जय हो। अनुपम खेर ने दूसरे ट्वीट में लिखा, ये लोग किसी एजेंडे के तहत ऐसा कर रहे हैं। जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई थी तो इन्हीं में से कुछ लोग मुझे भी फिल्म सेंसर बोर्ड से बाहर करने वालों में शामिल थे।
अनुपम जी के कहने का आशय और उनकी पृष्ठभूमि जाहिर है कि बहुत पारदर्शी है और कोई जवाब जरुरी भी नहीं है।
भारतीय इतिहास में श्रीमती इंदिरा गांधी से ज्यादा सक्षम, साहसी, लोकप्रिय प्रधानमंत्री कोई हुआ नही है, उनके पिता प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु भी उनसे पीछे हैं।
जिन इंदिरा गांधी को संघ परिवार के तत्कालीन सर्वेसर्वा देवरस जी दुर्गा बताये करते थे। उनका अवसान आपातकाल और सिख संहार की वजह से हुआ।
तब आपातकाल दो साल तक चला और अब भारतीय जनता को तय करना है कि यह केसरिया आपातकाल कब तक जारी रहना है।
हम बार-बार चेता रहे हैं कि कोई जनादेश निर्णायक और अंतिम नहीं होता। कोई चुनावी या जाति धर्म ध्रुवीकरण का समीकरण भी अंततः अंतिम नहीं होता। हिटलर ने भी जनादेश जीता था, बाकी इतिहास है।
इंदिरा गांधी ने न सिर्फ सिंडिकेट नेताओं केतमाम समकरण और पालतू वोटबैंक को धता बताकर मासूम गुड़िया की छवि तोड़ी थी, उनने नीलम संजीव रेड्डी को आत्मा की आवाज से हराया था जैसे अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक कुशलता के जरिए उनने महाबलि अमेरिका के सातवें नौसैनिक बेड़ा को बीच समुंदर रोककर बांग्लादेश आजाद कराया था।
अर्थशास्त्री डा. अशोक मित्र को मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाकर राष्ट्रीय संसाधनों का राष्ट्रीयकरण किया थे और महान फिल्मकार ऋत्विक घटक को पुणे फिल्म इंस्टीच्युट का सर्वेसर्वा बना दिया था। वे नेहरु की बेटी इंदिरा प्रियदर्शिनी ही थीं।
फिर वे 1971 में भारी बहुमत से जीतीं।
1977 में हार का सामना करने के बावजूद वे फिर 1980 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटीं।
राष्ट्र के विवेक ने इंदिरा को भी माफ नहीं किया, राष्ट्र के उस विवेक से थोड़ा डरा भी कीजिये।
इतिहास और भूगोल और विज्ञान, साहित्य और कला, माध्यमों और विधाओं में इंद्रधनुषी मनुष्यता की अभिव्यक्ति होती है और आप उसका सम्मान करें, ऐसी तहजीब साझे चूल्हे की होती है। भारत तीर्थ की होती है।
नस्ली रंगभेद, फासिज्म और मनुस्मृति शासन के त्रिशुल में फंसी है आपकी आत्मा तो आप धर्म की बात भी न किया करें तो मनुष्यता और प्रकृति के हित में बेहतर।
हालात के मुताबिक समीकरण बदलते हैं। वरना बंगाल में वामपंथ के 35 साल के राजकाज का अवसान नहीं होता और न ही चार चार बार मुख्यमंत्री बनीं बहन मायावती अब हाशिये पर जुगाली कर रही होतीं। जेल के सींखचों में जानेवाली जयललिता फिर सुनामी बहुमत से न जीतती और न खलनायक से फिर महानायक बन जाने की दहलीज पर होते लोक के वैज्ञानिक लालू यादव मसखरा आपकी नजर में जो हैं लोक में बतियाने वाले।