पप्पू फेल हो गया और युवराज पास !
पप्पू फेल हो गया और युवराज पास !
गुजरात में चुनाव आयोग ने भारतीय जनता पार्टी के टेलीविजन चुनाव प्रचार अभियान में पप्पू शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है, जबकि उसकी जगह युवराज शब्द को पास कर दिया है।
दरअसल, चुनाव आयोग को प्रचार अभियान में पप्पू शब्द पर आपत्ति है। उसे लगता है कि इसके जरिये किसी व्यक्ति विशेष को अप्रत्यक्ष तरीके से निशाना बनाया गया है और यह अपमानजनक है।
आयोग ने इस संबंध में भाजपा को भेजे पत्र में कहा है कि इस राजनीतिक प्रचार में इसका यानी पप्पू का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।
चुनाव आयोग के इस निर्णय के बाद राजनीतिक विवाद पैदा हो गया है। भाजपा इस निर्णय से खिन्न नजर आ रही है।
भाजपा को आयोग की ओर से पहला पत्र 31 अक्टूबर को भेजा गया था, जिसके बाद पार्टी ने सात नवंबर को प्रचार सामग्री पर बैन के विरोध में अपील की थी, लेकिन भाजपा की तमाम कोशिशों के बाद भी आयोग अपने रुख पर अड़ा रहा। और अंततः भाजपा को पप्पू की जगह युवराज शब्द का इस्तेमाल करना पड़ा, जबकि इससे पहले चुनाव आयोग की आपत्ति का कड़ा विरोध करते हुए भाजपा ने कहा था कि हमारे विज्ञापन में किसी का भी सीधे तौर पर नाम नहीं लिया गया है।
पार्टी प्रवक्ता संबित पात्रा ने राज्य चुनाव आयोग की आलोचना करते हुए कहा कि, चुनाव आयोग ने पप्पू शब्द को आधिकारिक बना दिया और इसे राहुल गांधी का पर्याय बना दिया। जबकि नलिन कोहली चुनाव आयोग से ही इसका स्पष्टीकरण चाहते हैं कि आखिर क्यों उसने प्रचार सामग्री को प्रतिबंधित किया है? उन्होंने कहा कि मुझे समझ नहीं आता कि चुनाव आयोग आखिर पप्पू शब्द को राहुल गांधी से क्यों जोड़ रहा है?
भाजपा और उसके समर्थकों की खीझ स्वाभाविक है। आखिर इतने बरसों में उन्होंने बड़ी मेहनत से अपने प्रचार तंत्र के जरिए राहुल गांधी के लिए पप्पू का किरदार गढ़ा था और अब गुजरात चुनाव के वक्त जब उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी तो भाजपा इस किरदार का इस्तेमाल नहीं कर पाएगी।
वैसे यह पहली बार नहीं है कि अपने राजनीतिक विरोधी के लिए मजाक उड़ाने वाले नाम न गढ़े जाएं। राहुल गांधी को लंबे समय तक शहजादा या युवराज ही कहा जाता था। कांग्रेस विरोधी इसके जरिए वंशवाद पर निशाना साधना चाहते थे, लेकिन अब तो वामदलों को छोड़ कोई राजनीतिक पार्टी नजर नहीं आती, जहां उनका वंशवाद फलता-फूलता न हो। युवराज की उपयोगिता उतनी साबित न हुई तो राहुल गांधी को नाकारा या अयोग्य बताने के लिए पप्पू शब्द प्रचलन में ले आया गया।
आपको याद होगा कि 10 साल पहले पप्पू कांट डांस साला नाम का एक गाना खूब हिट हुआ था। शायद यह पप्पू शब्द उसी से प्रेरित था।
दिलचस्प बात यह है कि 2009 में चुनाव आयोग ने मतदान के लिए लोगों को प्रेरित करने के वास्ते ‘पप्पू कांट वोट’ का विज्ञापन चलाया था। यानी आप में जागरूकता नहीं है तो आप पप्पू हो।
कैडबेरी चाकलेट का एक विज्ञापन आता था, जिसमें अमिताभ बच्चन पप्पू पास हो गया का गीत गाते हैं। बाद में इसी पंक्ति पर कई गाने भी बने और एक हिंदी कामेडी फिल्म भी।
कहने का आशय यह कि पप्पू कहकर किसी का मजाक उड़ाने का सिलसिला पिछले एक दशक से भारतीय समाज में चल ही रहा है। लेकिन राजनीति में इसके इस्तेमाल पर अब चुनाव आयोग ने रोक लगाई है, जो सही कदम लगता है।
यूं तो लोकतंत्र की राजनीति में विरोधियों पर तंज या कटाक्ष होना आम बात है, लेकिन इस पर कोई अंकुश न होने के कारण यह प्रवृत्ति निजी हमलों और चरित्रहनन तक जा पहुंची है, जो बिल्कुल गलत है। आप अपनी नीतियों, योजनाओं और फैसलों से विपक्ष को मुंहतोड़ जवाब दें, तो राजनीति की मर्यादा बनी रहेगी। लेकिन आप किसी के व्यक्तित्व पर हमला करेंगे तो राजनीतिक मर्यादा को तार-तार होने में देर नहीं लगेगी। दुख की बात ये है कि भारतीय राजनीति में इस वक्त मर्यादा का पतन सबसे तेजी से हुआ है।
दरअसल भारतीय राजनीति के मैदान में जब से सोशल मीडिया का इस्तेमाल शुरू हुआ है, राजनीतिक दंगल के सारे नियमों को ताक पर रख दिया गया है। पप्पू के अलावा, फेंकू, मफलरमैन, खुजलीवाल, चाराखोर जैसे शब्द राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी एक-दूसरे के लिए इस्तेमाल करते रहते हैं और ट्विटर, फेसबुक पर इन पर चुटकुलों की बाढ़ आ जाती है। स्कूल, कालेज में विद्यार्थी अपने सहपाठियों या शिक्षकों के लिए अक्सर ऐसे नाम गढ़कर कोडवर्ड की तरह उनका इस्तेमाल करते आये हैं लेकिन उसमें बचपना होता है।
सोचिये ज़रा, जब हमारे राजनेता ऐसी बचकानी हरकतों के साथ देश सँभालने की तैयारी करेंगे तो इस देश का भविष्य क्या होगा?
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HamariRai | चुनाव आयोग से 'पप्पू' फेल 'युवराज' पास | Election Commission bans use of word ' Pappu'


