कबीरदास <राजेंद्र शर्मा>

लीजिए, अब आजादी उर्फ स्वतंत्रता पर भी झगड़ा खड़ा हो गया। झूठ नहीं कहेंगे, हमें भी इसका अंदेशा तो था कि एक न एक दिन ऐसा ही होगा। जब से एक नोबेल पुरस्कार विजेता ने हम हिंदुस्तानियों को बहसप्रिय बताकर बहसबाजी को बढ़ावा दिया है, उसके बाद से तो ऐसा होना पक्का ही हो गया था। फिर भी इतनी जल्दी और इस तरह झगड़ा खड़ा हो जाएगा, यह तो किसी ने भी नहीं सोचा था। पर अब तो बाकायदा झगड़ा खड़ा हो गया है। सुनते हैं कि आजादी की लड़ाई शुरू भी हो गयी है। वैसे कुछ लोगों का यह भी कहना है कि शुरू हुई नहीं है होनी है, 16 अगस्त से। खैर शुरू हो गयी हो तब भी और होने ही वाली हो तब भी, असली नुक्ता यह है कि आजादी की यह लड़ाई एकदम हाल का मामला है। तब इस 15 अगस्त को जिसका चौंसठवां बर्थ डे मनाया जा रहा है, वह क्या है? जिस आजादी का चौसठवां बर्थ डे मनाया ही जाने वाला है, एकदम हाल का मामला तो हो नहीं सकता है।
खैर, हम बहसप्रिय जरूर हैं, पर झगड़ाप्रिय नहीं हैं। इसीलिए, झगड़े की कोई गुंजाइश न छोड़ते हुए, आजादी की ताजा लड़ाई छेडऩे वालों ने पहले ही साफ कर दिया है कि उनकी वाली, आजादी की दूसरी लड़ाई है। पहलेवाली के मामले में उनका रुख, ठीक-ठीक कहें तो तटस्थता का है। ना पहली से दोस्ती, ना पहली से बैर। पहली आजादी जो भी थी, जैसी भी थी, थी भी या नहीं ही थी, उनकी बला से। उन्होंने अपनी तरफ से उसका हिसाब साफ कर दिया है, उसके लिए पहला नंबर छोडक़र। वैसे एकदम ताजावाली के आजादी की दूसरी लड़ाई होने पर भी विवाद है। बहुतों को लगता है कि पहली ही नहीं, आजादी की दूसरी लड़ाई भी कब की लडक़र जीती जा चुकी है। ऐसा मानने वालों के हिसाब से आजादी की दूसरी लड़ाई इमर्जेंसी वाली थी। लेकिन, सच्ची बात यह है कि इमर्जेंसीवाली को , आजादी की दूसरी लड़ाई का दर्जा आफीशियली तो कभी मिला ही नहीं था। न पेंशन, न ताम्रपत्र; फिर आजादी की लड़ाई के रूप में दूसरी की प्रामाणिकता ही क्या हुई? उल्टे, जब एक बार आजादी की दूसरी लड़ाई हो सकती है, तो आजादी की दूसरी लड़ाई बार-बार भी हो सकती है!
पर बहसप्रिय जन, सिर्फ बहस ही थोड़े ही करते हैं। बहसप्रियता में भी हुज्जत की और यहां तक कि कठहुज्जत की भी गुंजाइश रहती ही है। हुज्जती लोग कह रहे हैं कि आजादी की दूसरी लड़ाई तो ठीक है, पर पहलीवाली आजादी का क्या हुआ? आखिरकार, दूसरी तभी तो आयेगी जब पहले वाली की जगह खाली हो जाएगी। अब जगह खाली अपने आप तो होने से रही? पर जगह खाली होने के कारण की बात छोड़ भी दें तब भी जगह खाली तो होनी चाहिए। तो क्या आजादी, चौंसठ साल पूरे करते-करते गायब ही हो गयी? क्या धीरे-धीरे घिसने से गायब हुई है या एकदम से गायब हो गयी? गायब भी हो गयी, तो भी क्या पूरी तरह से गायब हो गयी है या फिर थोड़ी-बहुत, किसी कोने-कुचारे में अब भी बची हुई है। अगर पूरी ही गायब हो गयी है, तो क्या इस बार 15 अगस्त वाला आखिरी स्वतंत्रता दिवस होगा? अगले साल से स्वतंत्रता दिवस क्या किसी और तारीख को हुआ करेगा , मिसाल के तौर पर 16 अगस्त को ? क्या दूसरी आजादी का स्वतंत्रता दिवस भी दूसरा ही कहलाएगा? पर जब पहला रहेगा ही नहीं, तो दूसरा भी दूसरा क्यों रहेगा! पहले के न रहने पर दूसरा क्या खुद ब खुद पहला नहीं हो जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि स्वतंत्रता दिवस तो बदल जाए, पर उसका नाम जस का तस बना रहे-स्वतंत्रता दिवस-प्रथम!
वैसे बहस इसमें भी है। हम कोई कच्चे बहसप्रिय थोड़े ही हैं। आजादी की दूसरी लड़ाई के दीवाने कह रहे हैं कि यह तो तीसरी श्रेणी के रेल डिब्बेवाली मनोवृत्ति है-मैं जरूर डिब्बे में चढ़ूं और चढ़ते ही दरवाजा बंद कर दूं कि और कोई डिब्बे में न चढ़ सके ! आजादी की एक लड़ाई हो गयी तो हो गयी; अब आजादी की कोई लड़ाई हो ही नहीं सकती! क्यों भाई? आजादी, आजादी नहीं हुई ताजमहल हो गयी कि एक बार बन गया तो बन गया, दुबारा बन ही नहीं सकता है। आपकी आजादी आने के बाद जो इस दुनिया में आए हैं, उन्हें भी तो आजादी की लड़ाई लडऩे का मौका मिलना चाहिए। सुना नहीं यह नौजवानों का देश है। और नौजवानों से यह उम्मीद किसी को नहीं करनी चाहिए कि वे दूसरों के आजादी की लड़ाई लडऩे की कहानियां सुनकर ही संतुष्टï हो जाएंगे। नौजवानों को भी तो आजादी की लड़ाई लडऩे का मौका मिलना चाहिए। उनकी भी तो कहानियां बनें जो बाद में आने वालों को सुनायी जा सके ।
हम तो कहते हैं कि आजादी की लड़ाई लडऩे का एक और मौका , नागपुरी परिवार समेत उन सब लोगों को भी मिलना चाहिए, जो पहली वाली लड़ाई मिसकर गए थे। बेचारे अपनी तैयारियां ही करते रह गए और आजादी की लड़ाई होकर भी निकल गयी। सुना है कि दूसरा एक चांस तो लाइफ में हरे को ही मिलता है। पहली न सही, दूसरी ही सही, आजादी की लड़ाई लडऩा हरेक हिंदुस्तानी का जन्म-सिद्घ अधिकार है। कुछ ऐसे लोग भी हैं उदारता के वेश में अनुदारता दिखा रहे हैं और आजादी की दूसरी लड़ाई को , आजादी की जगह भ्रष्टाचार वगैरह किसी और चीज की लड़ाई का नाम देने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन, दूसरी लड़ाई के दीवाने भी ऐसे झांसों में आने वाले नहीं हैं। उनका सीधा सा सवाल है-आजादी की लड़ाई ही क्यों नहीं? वे कोई ऐरी-गैरी नहीं आजादी की लड़ाई लडऩे निकले हैं और आजादी की लड़ाई लडक़र मानेंगे। वे किसी की दया नहीं, आजादी के लिए लडऩे का अपना हक मांगते हैं।
खैर! कल क्या हो कोन कह सकता है। पहले स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं हमसे एडवांस में ही ले लीजिए, न जाने कब विलुप्त हो जाए!