परिवर्तन-सम्भावनाएं और चुनौतियां
परिवर्तन-सम्भावनाएं और चुनौतियां
संघ परिवार की कार्यशैली मोदी सरकार के लिए गठबन्धन की अपेक्षा अधिक चुनौतियां पेश कर सकती है।
सुन्दर लोहिया
सोलहवीं लोकसभा को जो जनादेश प्राप्त हुआ है वह कई मायनों में परिवर्तन कारी है। 1989 में राजीव गान्धी को जो बहुमत मिला था उससे मोदी को प्राप्त बहुमत यद्यपि संख्या की दृष्टि से कम नज़र आ रहा है लेकिन वह जनादेश सहानुभूति के आधार पर मिला था। वर्तमान लोकमत लोगों की अतृप्त एवं आहत इच्छाओं की पूर्ति के लिए दिया गया है। जनता तो परिवर्तन चाहती है लेकिन वह जिस प्रकार का बदलाव मांग रही है उसकी पूर्ति नरेन्द्र मोदी द्वारा कभी हो पायेगी इसकी सम्भावना कम है। मोदी के पूरे चुनाव अभियान के बीच जो भाव और भंगिमा अपनाई गई थी चुनाव जीतने के बाद उसमें विस्मयकारी बदलाव दिख रहे हैं। यह वास्तव में भगवा ब्रिगेड की कार्य शैली का हिस्सा है सदियों से अपनाया गया है यानि जनकल्याण की इच्छाओं को यज्ञ के पवित्र मन्त्रों में समेट कर उन्हें कर्मकाण्ड का हिस्सा बनाया दिया जाये ताकि लोग हर रोज़ प्रातः उठकर सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया का उच्चारण धार्मिक कर्तव्य बना दिया गया। ऐसा करके वंचित तबकों को आश्वस्त किया जाता रहा कि उनका कल्याण होगा और यज्ञ करने वाले समझते रहें कि उन्होंने देवाज्ञा का पालन कर दिया है। 2002 के गुजरात नर संहार के अवसर पर मुख्यमन्त्री ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री को यह कह कर आश्वस्त कर दिया था कि जो कुछ हुआ और जो कुछ सरकार की तरफ से किया गया वह सब राजधर्म ही था। शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर सार्क देशों के शासनाध्यक्षों के अमले में घोषित दुश्मन पाकिस्तान के प्रधान मन्न्त्री नवाज़ शरीफ को शामिल करके यह संकेत दिया गया कि नरेन्द्र मोदी वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। अगर यह बात सच्च हो तो इसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन अब तक जितनी उदारता दिखाई गई है उसे अवसर के दबाव के रूप में समझा जाना ही उचित होगा। चुनाव अभियान और उसके बाद संघ परिवार के प्रमुख घटक शिवसेना के भड़काऊ बयानों के बाद भी नवाज़ शरीफ अगर भारत आये हैं तो यह भारत के बजाये पाकिस्तान की कूटनीतिक पहल मानी जानी चाहिए क्योंकि उदारता का जहां तक सवाल है उसका भ्रम घरेलू राजनीति के सन्दर्भ में उस वक्त टूट जाता है जब हमें मालूम होता है कि काश्मीर के मुख्यमन्त्री को शपथ समारोह में आमंत्रित नहीं किया गया। जबकि उमर अब्दुल्ला ने नवाज़ शरीफ को बुलाने और नवाज़ शरीफ द्वारा निमन्त्रण कुबूल करने का स्वागत किया है। इससे पता चलता है कि उमर अब्दुल्ला कितनी शिद्दत से काश्मीर की समस्या का समाधान चाहते हैं। उन्हें नवाज़ शरीफ और मोदी की बातचीत काश्मीर समस्या के हल का एकमात्र रास्ता नज़र आ रहा है। वह व्यक्तिगत कारणों या व्यक्तिगत पूर्वाग्रह से भटकने के बजाये इस मौके का फायदा उठाने पर बल दे रहे हैं यह उनकी नेकनीयत होने का प्रमाण है।
वैसे नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली का पूर्वानुमान लगाना टेढ़ी खीर है। यदि गुजरात में उनकी कार्यशैली को आधार माने तो लगता है कि काश्मीर की समस्या का हल इस समय यही व्यक्ति निकाल सकता है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि मोदी शिवसेना के उकसावे में आकर पाकिस्तान की ईंट का जवाब पत्थर से देने की कारवाई पर अमल करे। गुजरात में सड़क या अन्य आधारभूत ढांचे के निर्माण में यदि धार्मिक स्थल आड़े आये तो मोदी की गुजरात सरकार ने हिन्दू मुस्लिम में भेद किये बिना उन्हें उखाड़ दिया। मोदी की इस तथाकथित धर्मविरोधी कारवाई का विश्वहिन्दू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों ने कोई विरोध नहीं किया। इसी तरह नवाज़ शरीफ और मोदी की मुलाकात में पाकिस्तान की सहमति से कोई हल निकल सके तो नरेन्द्र मोदी के बाकि सभी गुनाह भूला दिये जा सकते हैं। जिस विकास की उम्मीद दोनों देश के लोग पाले हुए हैं उसके लिए इस क्षेत्र में शान्ति कायम करना ज़रूरी है। इसके बिना विकास सम्भव नहीं है। शान्ति एक ऐसा मसला है जिस पर बहस तो आसानी से की जा सकती है लेकिन उसे सच्चाई में बदलने के लिए अपनों को नाराज़ करने का जोखिम भी उठाना पड सक़ता है। पण्डित नेहरू शान्ति के मसीहा तो माने जाते हैं लेकिन शान्ति कायम करने में वे भी असफल हो गये थे। उनकी यह असफलता आगे आने वाली कांग्रेस सरकारों को विरासत में मिलती रही हैं। इसे मनमोहन सिंह के प्रधानमन्त्री पद के दूसरे कार्यकाल में नीतिगत अपगंता के नाम से प्रचारित करके उन्हें कमज़ोर प्रधानमन्त्री बताया गया। नरेन्द्र मोदी इस मामले में भाग्यशाली हैं क्योंकि उनके पास विरासत के नाम पर अटलबिहारी वाजपेयी के शासन के छह साल मात्र हैं इस अल्पावधि में कोई उल्लेखनीय सफलता या असफलता इतिहास का हिस्सा नहीं बन पाई है। इसलिए मोदी का रास्ता मनमोहन सिंह से आसान लगता ज़रूर है कि उनके रास्तें में गठबन्धन सरकार की दिक्कतें नहीं हैं लेकिन संघ परिवार के घटकदल परिणाम की परवाह किये बिना कारवाई करने के आदी हैं क्योंकि उनका अपना कोई राजनीतिक भविष्य दांव पर नहीं लगा होता है। ये घटक संघ के नियन्त्रण में काम अवश्य करते हैं लेकिन इन पर नियन्त्रण में ढील देकर संघ अपने विरोधियों की आलोचना से सफलतापूर्वक बच निकलता है। शिवसेना बजरंगदल विश्वहिन्दू परिषद जैसे संगठन उग्र कारवाई के लिए विख्यात हैं और संघ अपने आप को अनुशासित सांस्कृतिक संगठन सिद्ध करता रहता है। संघ परिवार की यह कार्यशैली मोदी सरकार के लिए गठबन्धन की अपेक्षा अधिक चुनौतियां पेश कर सकती है।
मोदी सरकार की प्राथमिकताओं का अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि जिन सात मुद्दों को रेखांकित किया या है उनमें विकास की रफ्तार, मंहगाई डायन, भ्रष्टाचार से मुक्ति, बेराजगारी से जंग, काले धन की वापसी दीर्घसूत्री कार्यक्रम हैं। इनमें कोई एक कार्यक्रम ऐसा नहीं जिसे तत्काल लागू किया जा सके। इस सूची में सरल टैक्स संरचना ही एकमात्र ऐसा कार्यक्रम है जिसका लाभ तत्काल प्राप्त होने वाला है। यह लाभ कारपोरेट क्षेत्र को तत्काल राहत पहुंचाएगा लेकिन इसे आम कर दाता के लाभ के तौर पर प्रचारित किया जायेगा। इसके अतिरिक्त जो महत्त्वपूर्ण बात प्रकट हो रही है वह है कि इस सूची में मज़दूर एकदम गा़यब हैं। इसलिए किसके अच्छे दिन आने वाले हैं और किन लोगों के लिए संघर्ष का बिगुल बजने वाला है इसे आसानी से पहचाना जा सकता है।


