पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव
क्या दोहराया जाएगा1977 ?
0 राजेंद्र शर्मा
चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षणों ने पश्चिम बंगाल के चुनाव में ममता बनर्जी की सत्ता में वापसी की ही नहीं, पिछली बार से भी बड़े बहुमत से सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी कर दी है। इन भविष्यवाणियों ने बरबस देश के 1977 के चुनाव की याद दिला दी है। बेशक, वह खबरिया टेलीविजन चैनलों से पहले का जमाना था, जब चुनाव सर्वेक्षणों का धंधा मुश्किल से शुरू ही हुआ होगा। सरकार में बैठे लोग मुख्यत: खुफिया विभाग की रिपोर्टों से अनुमान लगाते थे या अपनी पार्टी के तंत्र से। यह आम जानकारी में है कि उन्नीस महीने की इमर्जेंसी के बाद श्रीमती गांधी ने आम चुनाव का निर्णय इसका भरोसा दिलाए जाने पर लिया था कि चुनाव में उनकी जबर्दस्त जीत तय है। वास्तव में खुद श्रीमती गांधी को चुनौती देने उतरे बेमेल विरोधी जमावड़े को भी कामयाबी की खास उम्मीद नहीं थी। बहरहाल, चुनाव की घोषणा के बाद चंद हफ्तों में हवा एकदम पलट गयी और मत पेटियों से निकली आंधी ने इंदिरा राज के तंबू उखाड़ दिए। इसे 2016 में पश्चिम बंगाल के चुनाव में दोहराया जा पाता है या नहीं, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। लेकिन, ऐसा होने के काफी आसार बनते नजर आते हैं।

बेशक, श्रीमती गांधी के इमर्जेसी राज की तरह, ऐसी स्थिति बनने में सबसे बड़ा योगदान तो ममता बनर्जी के तानाशाहीपूर्ण राज का ही होगा, जो कई मानों में देश को भुगतने पड़े इमर्जेंसी राज से भी बदतर है। हां! हिंसा के पैमाने से बंगाल का मामला उस इमर्जेसंी में भी बाकी देश से थोड़ा अलग था। ममता बनर्जी के शासन ने अपने पांच साल में तमाम संवैधानिक संस्थाओं और जनतांत्रिक व्यवस्थाओं के खिलाफ बाकायदा जंग ही छेड़े रखी है। देश के पैमाने पर इमर्जेंसी निजाम में जो हो रहा था, उसके विपरीत, बंगाल में अपने गुंडा-बल के सहारे, अपने मन-माफिक न पडऩे वाली तमाम आवाजों को शासन की हिंसा से ज्यादा, निजी हिंसा के जरिए कुचलने की कोशिश की गयी है। जाहिर है कि शासनतंत्र और सबसे बढ़तर पुलिसतंत्र, इसमें सक्रिय मददगार बना रहा है। अचरज नहीं कि इन पांच सालों में तमाम जनतांत्रिक निकायों पर जबरन कब्जा किए जाने और राजनीतिक पार्टियों से लेकर ट्रेड यूनियनों व छात्रों आदि सभी तबकों की सार्वजनिक कार्रवाइयों पर पुलिस से बढ़क़र निजी हिंसक हमले किए जाने के अलावा, वाम मोर्चा के ही एक सौ सत्तर से ज्यादा नेताओं व कार्यकर्ताओं की नृशंसतापूर्वक हत्याएं की गयी हैं तथा हजारों को घायल किया गया है। लाखों विपक्षी कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों को जान-बचाकर अपने घर-गांव छोडक़र दूसरी जगहों पर शरण लेनी पड़ी है और सवा लाख से ज्यादा विपक्षी कार्यकर्ताओं पर झूठे मुकदमे लाद दिए गए हैं।
कुछ लोग इसे वाम मोर्चा के 34 साल के शासन में चल रहे ‘इलाका दखल’ के समान ठहराने की कोशिश करते हैं। लेकिन, सचाई यह है कि उस ‘इलाका दखल’ में जनतांत्रिकता की जो भी कमी रही हो, वह बाहर से किसी गुंडाबल तथा हिंसा के जरिए कायम नहीं किया गया था, बल्कि सबसे बढ़कर गरीब किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के अपने हितों के लिए संघर्षों से निकला था। यह दूसरी बात है कि समय के साथ उसके पीछे जन-अनुमोदन का बल घटता चला गया। इससे गुणात्मक रूप से भिन्न रूप से, ममता राज का यह इलाका दखल, सबसे बढक़र मेहनतकशों के अधिकारों तथा संघर्ष के उनके लाभों को छीनने के लिए ही है। सिर्फ वाम मोर्चा के 34 साल के शासन को खत्म करने के नकारात्मक नारे पर, तमाम वामपंथविरोधी ताकतों को एकजुटकर और वास्तव में जनता के लिए किसी न्यूनतम कार्यक्रम के बिना ही सत्ता में पहुंच गयीं ममता बनर्जी के राज ने अगर जनता के अधिकारों के मामले में ही नहीं, कृषि, उद्योग, रोजगार, आदि हरेक क्षेत्र में प0 बंगाल को पीछे ही धकेला है, तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। और इस पर बढ़ते जनता के विभिन्न तबकों के असंतोष को दबाने के लिए, ममता सरकार अगर सिर्फ वामपंथ या राजनीतिक विरोधियों पर ही नहीं, बुद्धिजीवियों तथा मीडिया समेत सभी तबकों पर तानाशाहीपूर्ण हमले कर रही है तो इसमें भी अचरज की बात नहीं है।
यह संयोग ही नहीं है कि 2011 के विधानसभाई चुनाव में ममता बनर्जी ने वाम मोर्चा के खिलाफ जो व्यापक गठजोड़ खड़ा किया था, तृणमूल राज के पांच वर्षों ने उसमें शामिल ज्यादातर ताकतों को, जिनमें कांग्रेस और एसयूसीआइ भी शामिल हैं, उसके विरोधी खेमे में पहुंचा दिया है।
ममता बनर्जी के तानाशाही निजाम का हश्र 1977 के इंदिरा गांधी के इमर्जेंसी निजाम जैसा होने की संभावनाएं, एक अर्थ में पिछले उदाहरण से कहीं बेहतर हैं। जैसा हमने शुरू में ही कहा, 1977 में जब इंदिरा गांधी ने चुनाव का एलान किया था, उनके सामने कोई ठोस राजनीतिक-चुनावी चुनौती दूर-दूर तक दिखाई ही नहीं देती थी। जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से जो पार्टियां इकट्ठी हुई भीं, उनकी तब तक की वास्तविक ताकत इस चुनौती के सामने बहुत थोड़ी थी। मगर, जब तानाशाही निजाम को वास्तविक चुनौती दी जाती नजर आयी, जनता ने अकल्पनीय रूप से सारी कसर पूरी कर दी। बंगाल की स्थिति इस लिहाज से कहीं अनुकूल है कि ममता की तानाशाही को इस चुनाव में मिल रही चुनौती के केंद्र में वाम मोर्चा है, जिसे 2011 के चुनाव में करीब 40 फीसद वोट मिला था, जो तृणमूल को मिले वोट से कुछ ज्यादा ही था, कम नहीं। कांग्रेस के 9 फीसद से ज्यादा वोट और एनसीपी, जनता दल यूनाइटेड आदि अन्य पार्टियों के पिछले वोट को भी जोड़ लिया जाए तो, बंगाल के आधे मतदाता तो वैसे ही ममता राज के खिलाफ खड़े नजर आएंगे।
याद रहे कि 2011 की आंधी में भी तृणमूल कांग्रेस को, गठबंधन के लाभ के सारे बावजूद, वह जितनी सीटों पर लड़ी थी उन पर मुश्किल से 50 फीसद वोट ही मिला था। यानी 2011 का नतीजा भले न दोहराया जा सके, इस चुनाव में ममता बनर्जी के मिनी इमर्जेंसी राज का अंत जरूर हो सकता है।
बेशक, इस संभावना का यथार्थ तक पहुंचना अनेक कारकों पर निर्भर करेगा। क्या ‘ममता हटाओ’ के लिए विपक्ष का सारा या लगभग सारा वोट, एक जगह पड़ सकेगा? सौभाग्य से भाजपा को छोडक़र विपक्ष की लगभग सभी पार्टियों ने जिस तरह का यथर्थवादी रुख अपनाया है, उससे इसकी उम्मीद बढ़ी है। यह मुहिम इन पार्टियों के योगफल से बड़ी है। तालमेल में जो कमी-बेशी रहेगी, उसे जनता अपने विवेक से आसानी से पूरा कर लेगी। बहरहाल, तृणमूल राज की तानाशाही के संदर्भ में दूसरा इतना ही महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष का वोट पड़ भी पाएगा? क्या वाकई स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव होंगे। पांच साल में बंगाल में हुए विभिन्न चुनावों का अनुभव, जिसमें 2014 के लोकसभा चुनावों का अनुभव भी शामिल है, बड़े पैमाने पर हिंसा तथा डराने-धमकाने के जरिए, विपक्षी वोट न पडऩे दिए जाने का ही है। अब जबकि लोकसभा चुनाव में 16 फीसद वोट पाने के बाद, बंगाल में मुख्य विपक्षी पार्टी बनने के भाजपा के सपने खत्म हो चुके हैं और व्यापक विपक्षी कतारबंदी से अलग-थलग पडऩे के बाद, उसके लिए बहुत कम गुंजाइश बची है, केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सचमुच ममता निजाम के खिलाफ मैदान में उतरेगी या गुपचुप हाथ मिलाएगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है।
राज्यसभा के गणित के लिए भाजपा, अपनी बची-खुची बंगाल महत्वाकांक्षा कुर्बान भी कर सकती है। बदले में सारदा प्रकरण में, जिसमें ‘गो स्लो’ पहले ही लागू है, बाकायदा अभयदान हासिल कर सकती है। बहरहाल, अगर दोनों ने गुपचुप हाथ नहीं मिलाया और भाजपा दम-खम से मैदान में उतरी, तो उससे तृणमूल की चुनाव धांधली पर अंकुश लगाने में और उसके खिलाफ वोट पड़ऩे में जरूर मदद मिलेगी।