पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कैसे समाचार माध्यमों ने रातों रात अपनी निष्ठा बदली है
पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कैसे समाचार माध्यमों ने रातों रात अपनी निष्ठा बदली है
पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कैसे समाचार माध्यमों ने रातों रात अपनी निष्ठा बदली है
After the election results of five states, how the media has changed their loyalty overnight
यह भावना लुप्त हो गई है कि नरेन्द्र मोदी अपराजेय हैं, अब कोई स्वीकार करने तैयार नहीं कि अमित शाह चाणक्य हैं
तीन-चार दिन पहले एक फोटो जारी हुआ जिसमें गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर किसी पुल का निरीक्षण कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अपने प्रदेश में किसी कार्य का जायजा लेने जाएं तो यह सामान्य घटना होना चाहिए, लेकिन यह फोटो एक असामान्य स्थिति की ओर संकेत करता है।
मनोहर पर्रिकर विगत एक वर्ष से गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। वे पहले इलाज करवाने के लिए विदेश गए, वहां से लौटकर लंबे समय तक एम्स दिल्ली में भर्ती रहे और आज भी वे गोवा के एक अस्पताल में दाखिल हैं। वे इस बीच विधानसभा की कार्रवाईयों में भाग लेने में असमर्थ रहे हैं; मंत्रिमंडल की एकाध बैठक हुई भी है तो अस्पताल में ही।
सच पूछिए तो कोई नहीं जानता कि इस वक्त गोवा का शासन कौन चला रहा है। भाजपा के विधायक हैरान-परेशान हैं, सहयोगी दल आंखें दिखा रहे हैं और कांग्रेस के विधायकों को खरीदकर भाजपा किसी तरह अपना बहुमत बचाने का भीष्म प्रयत्न कर रही है। इस पृष्ठभूमि में बीमार मुख्यमंत्री को कार्यस्थल पर जाकर फोटो क्यों खिंचाना पड़ा?
इस प्रश्न का जवाब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में मिलता है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की अप्रत्याशित दुर्गति हुई; तेलंगाना के मतदाताओं ने उसे भाव नहीं दिया; मिजोरम में उसके मंसूबे सफल नहीं हो पाए; राजस्थान में पराजय का सामना करना पड़ा और मध्यप्रदेश में हारने के बावजूद वह प्रतिष्ठा बचाने में सफल हुई।
इन नतीजों से विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस का उत्साहवर्द्धन होना ही था। कांग्रेस जानती है कि भाजपा शासित प्रदेशों में गोवा में ही भाजपा की स्थिति सबसे कमजोर है। इस तथ्य के मद्देनज़र कांग्रेस की कोशिशें हैं कि भाजपा सरकार को अपदस्थ कर दिया जाए। मनोहर पर्रिकर अपने प्रदेश के एक लोकप्रिय नेता रहे हैं। वहां के विधायकों को अन्य किसी का नेतृत्व कुबूल नहीं है। पर्रिकर हटते हैं तो भाजपा का साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह बिखरते देर न लगेगी। एक छोटे राज्य में सत्ता का यह लोभ दयनीय है। और इसलिए अमानवीय भी है कि आप एक बीमार आदमी को जिसकी नाक में नली लगी हो अस्पताल के बिस्तर से उठाकर उसके स्वस्थ होने का स्वांग पेश कर रहे हैं।
11 दिसम्बर को आए चुनाव परिणामों का दूरगामी असर होते दिखने लगा है। मेरा कयास है कि उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी इसका प्रतिकूल प्रभाव भाजपा की राजनीति पर पड़ेगा। गैरभाजपाई दलों को इन परिणामों ने एक नई ऊर्जा से भर दिया है। यह भावना लुप्त हो गई है कि नरेन्द्र मोदी अपराजेय हैं। अब यह तुलना भी कोई स्वीकार करने तैयार नहीं है कि अमित शाह चाणक्य हैं। बसपा और सपा ने अपने-अपने कारणों से कांग्रेस से फिलहाल दूरी बना रखी है, लेकिन अब लोकसभा चुनाव में तीन माह का समय भी शेष नहीं है। मार्च-अप्रैल के बीच में आम चुनाव हो जाएंगे और उस प्रत्याशा में बहुत सारे विपक्षी दल कांग्रेस की धुरी पर एकत्र हो गए हैं। तेलंगाना में कांग्रेस और टीडीपी का गठबंधन, आंध्र में कमाल दिखाएगा यह उम्मीद की जा रही है। डीएमके नेता स्टालिन ने राहुल गांधी को खुला समर्थन दे दिया है। शरद पवार, फारूख अब्दुल्ला, लालू प्रसाद आदि भी अपना समर्थन घोषित कर चुके हैं और मैं जहां तक समझ पाता हूं संसदीय राजनीति के वरिष्ठतम नेताओं में से एक शरद यादव यूपीए-3 को सफल बनाने में महती भूमिका अदा कर रहे हैं। मेरा मानना है कि वामदलों को भी लोकसभा चुनाव में महागठबंधन में शामिल होना चाहिए।
नौकरशाही पर भी इन चुनाव परिणामों का असर पड़ना शुरू हो गया है
मैं अनुमान लगाता हूं कि इन चुनाव परिणामों का असर देश की नौकरशाही पर भी पड़ना शुरू हो गया है। वे पिछले पौने पांच साल से लगातार एक आतंक के साए में काम करते आए हैं।
पाठकों को शायद याद हो कि मोदी सरकार के प्रारंभिक दिनों में मंत्रियों तक को इस बात का डर था कि उनकी हर कदम पर निगरानी हो रही है। जब भाजपा के मंत्री ही डर रहे हों तो फिर अफसर किस खेत की मूली हैं? जैसा कि सुनने मिलता है, अनेक अधिकारी जो डेपुटेशन पर दिल्ली गए थे, वे लौटने के लिए उत्सुक हैं और जो जाना चाहते थे उनका मन बदल गया है।
अब अनेकानेक अधिकारी मोदी सरकार के प्रति निष्ठा दिखाकर आने वाली सरकार की नाराजगी मोल लेने से बचना चाहते हैं। यह एक शुभ लक्षण है।
अधिकारियों को दलगत राजनीति से दूर रहकर प्रशासनिक मानदंडों पर ही निर्णय लेना चाहिए। यह परिपाटी हमारे यहां लंबे समय से बनी हुई थी। इंदिरा गांधी के दिनों में कमिटेड ब्यूरोक्रेसी की बात होती थी, लेकिन उस समय भी अफसरशाही पर वैसा दबाव नहीं था जो पिछले चार सालों में देखा गया है। कितने ही सेवानिवृत्त आईएएस/आईपीएस अधिकारियों ने अपनी आत्मकथाएं प्रकाशित की हैं जिनसे पता चलता है कि कांग्रेस शासन में वे अपनी स्वतंत्र राय देने में सक्षम थे, फिर भले ही प्रधानमंत्री या मंत्री उनकी राय को खारिज कर दें। जिन्होंने बीबीसी पर 'यस मिनिस्टर' को देखा या पुस्तक रूप में पढ़ा है वे शायद मेरी बात की ताईद करेंगे।
कौन हैं लिबरल
इन चुनाव परिणामों में एक संकेत तथाकथित राजनैतिक विश्लेषकों के लिए भी छुपा हुआ है।
मैंने पिछले हफ्ते के कॉलम में सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार के लेख का उल्लेख किया था, लेकिन वे अकेले नहीं हैं। हमारे यहां एक तथाकथित "लैफ्ट लिबरल" वर्ग है। मैं इस संज्ञा से असहमत हूं। जो लैफ्ट में हैं याने वामपंथी हैं उनकी अपनी एक सोच है जो लिबरल याने उदारवादी सोच से मेल नहीं खाती। उदारवादी सही अर्थों में वे हैं जो नेहरूजी के हिमायती हैं और जिनकी सोच जाति, धर्म, भाषा, प्रांत की संकीर्णता न होकर वैश्विक मानवतावादी है। लेकिन किसी दुर्योग से हमारे यहां उदारवादी उन्हें मान लिया गया है जो एक तरफ वामविरोधी और दूसरी तरफ नेहरूविरोधी हैं। ये भारत की राजनीति को संकीर्ण खांचों में बांटकर देखते हैं। आजकल चुनावों में अक्सर जो जातिगत आधार की बात होती है वह इसी संकीर्ण सोच से उपजी है। राजनैतिक दल कई बार इसके झांसे में आ जाते हैं और टिकट वितरण आदि में बुनियादी मुद्दों को छोड़कर जातिगत समीकरण इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है। मेरे आकलन में इससे कोई वास्तविक लाभ हासिल नहीं होता बल्कि अनावश्यक रूप से सामाजिक संबंधों में कटुता उत्पन्न हो जाती है। पिछली हर बार की तरह इसीलिए इस बार भी एक भी एक्जाट पोल सही सिद्ध नहीं हुआ। ये तो अपनी करनी से बाज नहीं आएंगे, लेकिन जनता को समझदारी दिखाते हुए इन पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
क्या मीडिया के लिए भी विधानसभा चुनावों के ये परिणाम कोई संकेत देते हैं? उत्तर हां में है और संकेत यह है कि मीडिया को अपनी लुट गई साख को दुबारा हासिल करने के लिए नए सिरे से जुट जाना चाहिए। मुझे ध्यान आता है कि किसी चैनल ने कांग्रस की चौतरफा पराजय की घोषणा कर दी और फिर अपनी गलती सुधारने के लिए कथित तौर पर पत्रकारों का एक एक्जाट पोल करवा कर कांग्रेस की विजय की भविष्यवाणी कर दी। लार्ड मेघनाद देसाई हर रविवार को इंडियन एक्सप्रेस में कॉलम लिखते हैं। वे लंबे समय से कांग्रेस की आलोचना करते आए हैं जबकि एक समय उन्हें उदारवादी माना जाता था। इस रविवार को लार्ड देसाई ने अपने कॉलम में स्वीकार किया कि भारत के राजनीतिक हालात का आकलन करने में उनसे गलती हुई और वे आज अपनी गलती सुधार रहे हैं।
मुझे इस बात पर बिल्कुल भी आपत्ति नहीं है कि चैनल, अखबार और पत्रकार अपनी राजनैतिक सोच के अनुसार विचार प्रकट करें। यह तो उनका धर्म है। लेकिन जब दबाव या प्रलोभन में आकर वे इस या उस पक्ष की तरफदारी करते हैं तो पत्रकार धर्म के साथ बेइमानी करते हैं। मैंने पहले भी लिखा है कि अमेरिका, इंग्लैंड में अखबार खुलकर पार्टी अथवा प्रत्याशी का समर्थन व विरोध करते हैं। यह उनका अधिकार है। इसके लिए वे अपनी ओर से तर्क भी देते हैं जो कि बिल्कुल ठीक है। ऐसा करने से उन पर वे आरोप नहीं लगते जिनका हमारे पत्रजगत को सामना करना पड़ता है। पत्रकार "हिज मास्टर्स वायस" बनकर रहेंगे तो अपने आपको पत्रकार कहने का हक वे खो बैठते हैं। मैं हैरत में हूं कि ताजा नतीजों के बाद कैसे समाचार माध्यमों ने रातोंरात अपनी निष्ठा बदली है।
ये विधानसभा चुनाव देश की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन लेकर आए हैं। हर बड़ा परिवर्तन अपने साथ कुछ महत्वपूर्ण संकेत लेकर भी आता है। हमें इनको पढ़ने की कोशिश करना चाहिए।
क्या यह ख़बर/ लेख आपको पसंद आया ? कृपया कमेंट बॉक्स में कमेंट भी करें और शेयर भी करें ताकि ज्यादा लोगों तक बात पहुंचे
कृपया हमारा यूट्यूब चैनल सब्सक्राइब करें
election results of five states, Modi News, Madhya Pradesh News, Election Analysis, Amit Shah, Narendra Modi,


