पानी बिच मीन प्यासी खेतों में भूख उदासी
पानी बिच मीन प्यासी खेतों में भूख उदासी
पलाश विश्वास
बकौल गिर्दा
पानी बिच मीन प्यासी
खेतों में भूख उदासी
युवा मित्र भास्कर उप्रेती, जो मेरे भाई पद्दो के ज्यादा गहरे मित्र हैं और युवा लेखिका सुनीता के हमसफर भी, से बेहतर गिर्दा को याद दिलाने वाला हो नहीं सकता। आज के रोजनामचा के लिए उनका आभार।
गिर्दा व्यक्ति-पूजा में नहीं विचार में विश्वास करने वाले इंसान थे। उन्होंने खुद को हमेशा समूह और समाज का उत्पाद बताया। लेकिन जिसका डर था उनके जाने के बाद उनकी जगह भर सकने वाला कोई नहीं दिखाई दिया है। भावों, विचारों, उद्वेगों, कल्पनाओं, विविधताओं को बल देने वाला दूसरा कवि अभी हमारे आस-पास नहीं है। लेकिन बीज-रूप में गिर्दा की कविताओं की ऊष्मा अब भी मौजूद है। आईये जनकवि गिर्दा को फिर से पढ़ें। (चित्रांकन: शिक्षक खीम सिंह बोहरा)
देश हमारा। नदी, पहाड़, समुंदर, जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण यानि कि सारे संसाधन हमारे। ऐसा बाबासाहेब ने संविधान के धारा 32 के तहत सुनिश्चित भी किया है। संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों में जल जंगल जमीन से बेदखली के खिलाफ प्रावधान हैं।
देश के कानून, लोकतंत्र, न्यायप्रणाली भी हमारे ही हुए कमसकम लिखत पढ़त में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार चार्टर हैं। मूलनिवासियों और पर्यावरण के देशज और आंतरजातिक कायदे कानून हैं।
लेकिन सीने पर वही हिमालय है जो हमारे दिलोदिमाग से उतरकर हमारे लिए कयामत की शक्ल का बना दिया गया है। सब कुछ हमारा और बाजार और उसकी बेडपार्टनर सरकारें हमसे सब कुछ छीन रही हैं।
प्यारे भास्कर, भुला, त्यर पोस्ट मस्त रिलिवेंट छन। अबे मेरे पहाड़ के बगते खपते मरते जागर बिन, पानी बिच मीन मानुष, जाग जाओ और कम से कम गिरदा को तो दोबारा पढ़ लो। फिर इकोनामिक्स समझन में देर नहीं लगेगी।
हम तो साहित्य के मामूली विद्यार्थी छन। उत्ते काबिले होते तो लाखटकिया मुलाजिम भये रहते, चकाचक स्टेटस होता। डफर हैं, इसीलिए जो कुछ नहीं बनने की औकात रखता है, वह पत्रकार होता है, वही हमारी औकात है।
हम जैसे अधपढ़ आदमी इकोनामिक्स पढ़ने समझने का साहस कर सकते हैं इन्ही गिर्दा की चमत्कारी पंक्तियों के सान्निध्य की वजह से। सारे पेंच खुल जाते हैं अगर अपने लोगों के लिए दल में तड़प हो प्यारे।
वही तड़प जो मैंने अंबेडकर में देखी नहीं, लेकिन हर पल आग की आंच के मानिंद महसूसता हूं। झुलसता रहता हूं पल छिन। संध्या सकाले।
वही तड़प जो गिर्दा के जिगर को जलाती रही पल छिन संध्या सकाले।
वही तड़प जो रीढ़ में कैंसर के बावजूद मेरे पिता के कदम को अक्लांत योद्धा बनाती रही।
वही तड़प जो अग्नाशय में लेकर पुत्रवधू व नातिकंठे वी शैल ओवरकम सुनते सुनते बैरीकेड बनाने का काम हमारे हवाले कर गयी। जिस तड़प में गिर्दा और नवारुणदा हमशक्ल हो गये।
सारा देश हमारा।
दुनिया हमारी।
हमीं लौ के दक्षिण में।
अब उत्तरी ध्रुव में भी कुछ बवाल करने की सोचो दद्दा, दीदी, बैणी और भुला, फिर दोबारा पढ़ लो गिर्दा।


