पिंक- यानी मेरी ना का मतलब ना है !!

संध्या नवोदिता
'No' is a complete sentence. It needs no clarification, no explanation.

यानी मेरी ना का मतलब ना है !!
इस एक लाइन का महिला संगठन और नारीवादी आन्दोलन लम्बे समय से जाप कर रहा है. और भारत के सामन्ती समाज को लगातार नयी अवधारणा देने की कोशिश कर रहा है कि समय बदल रहा है, स्त्री बदल रही है, हे पुरुषों, अब आप भी अपनी सोच बदलिए !!
पिंक लड़कियों से जुड़े समाज के स्टीरियोटाइप सवालों और मनगढ़न्त सोच को बहुत ही प्रभावी तरीके से सामने लाती है और इनका बहुत वाजिब जवाब देती है.
निर्भया काण्ड में जिस तरह तमाम एनजीओ, लेफ्ट के राजनीतिक कार्यकर्ताओं, नारीवादियों और जागरूक नागरिकों ने जान लगा कर संघर्ष किया उससे एक बहुत बड़ा बदलाव यह हुआ कि रेप शब्द का उच्चारण ड्राइंगरूम की बातचीत में होना संभव हो पाया.

सामान्य लोग इस पर खुल कर बात करने में होने वाली झिझक तोड़ पाए.
उस आन्दोलन में यह भी तय हुआ कि लड़की का रात में जाना, फिल्म देखने जाना, और पुरुष मित्र के साथ जाना - ये तीनों ही काम अपराध नहीं हैं. इससे किसी को उसके साथ गलत हरकत करने का लाइसेंस नहीं मिल जाता.
पिंक इन्हीं सवालों को और विस्तार देती है. फिल्म कहती है कि एक ही शहर में माँ-पिता से अलग घर लेके रहना, शो बिजनेस करना, लड़कों के साथ पार्टी करना,रिसोर्ट पर जाना , शराब पीना वह भी लगभग अपरिचित लड़कों के साथ— इसके बावजूद भी लड़की अगर फिजिकल होने के लिए न कहे, तो उसकी न का मतलब न है.

सेक्स वर्कर हो, या पत्नी उसके न कहने पर ज़बरदस्ती करना अपराध है, इसे समझिये.
पिंक इसी बात को बेहतरीन तरीके से समझाती है.
फिल्म में कथ्य इतने शानदार तरीके से बयान किया है कि एडिटिंग की गुंजाइश न के बराबर है. कहानी पर पूरा फोकस. आधे समाज पर इतनी अच्छी फिल्म का बेहद स्वागत किया जाना चाहिए कि जो बात महिला संगठन बहुत मेहनत से समझाते और प्रचारित करते रहे हैं, यह फिल्म इन्हीं बातों को बहुत ही आसान और कन्विंसिंग लहजे में बिलकुल आम जनता के बीच ले जाने में सक्षम है.

एक कामर्शियल फिल्म पिंक से इतनी उम्मीद नहीं की जा सकती थी,
पर पिंक ने इस सीमा को पूरी तरह तोड़ दिया है. किसी जमाने में अमिताभ बच्चन की युवावस्था की फिल्मे न न करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे, और न न करते प्यार मैं तो कर गयी, कर गयी , कर गयी .... जैसे गीत गूंजते थे, उन्हीं अमिताभ के बुढापे तक आते आते सिनेमा की तस्वीर पिंक हो गयी है.
इस बात के लिए निर्माता शूजीत सरकार और निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी की जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी कि इतने संवेदन शील इशू, जिसका मसाला बनने की पूरी गुंजाइश थी, उन्होंने इसे चटपटी डिश नहीं बनाया.
अमिताभ अपनी हर आने वाली फिल्म में अब खुद को ही टक्कर दे रहे हैं. उन्हें अभिनय का महानायक कहा जाता है तो यह हमारे शब्दों की सीमा है. इंटरवल तो उनका ढंग से कोई डायलाग तक नहीं है, केवल आँखों और बॉडी लैंग्वेज से वे ही फिल्म के नायक हो गए हैं.
फिल्म के लिए शुभकामना है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचे. लड़कों के स्कूलों को तो खासकर अपने छात्रों को यह फिल्म दिखानी चाहिए. हमारे यहाँ कोई जेंडर एजुकेशन है नहीं, नैतिक शिक्षा अब कोर्स से खत्म कर दी गयी है, तो बच्चे अब इंटरनेट से ही 'नैतिकताएं' सीखते हैं, और यहाँ कोई वर्जना है नहीं.

नेट तो खरीदार को माल बेचता है बस.
तापसी, कीर्ति और एंड्रीया ताज़ी हवा की तरह हैं, पीयूष मिश्रा तो गजब हैं. वकील के रूप में उनका उच्चारण उनकी भूमिका को बहुत सहज बनाता है. ऐसे तो पूरी फिल्म ही बेहद सहज है, किसी भी ड्रामा से दूर.
तो एक बेहतरीन फिल्म सपरिवार देखने और दिखाने का मौका न छोड़ें.
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