पूँजीवादी राष्ट्रवाद की मण्डी में अवतरित नया 'मसीहा'- नरेन्द्र मोदी
पूँजीवादी राष्ट्रवाद की मण्डी में अवतरित नया 'मसीहा'- नरेन्द्र मोदी

Sikar: Prime Minister and BJP leader Narendra Modi addresses during a public meeting in Rajasthan’s Sikar, on Dec 4, 2018. (Photo: IANS)
पूँजीवादी व्यवस्था की ख़ासियत (Specialty of capitalist system) है कि वह हर चीज़ को माल में और लोगों को निष्क्रिय उपभोक्ता में तब्दील करने की कोशिश करती है। इसका जीता जागता उदाहरण हम भारत में देख ही रहे हैं कि पूँजीवाद जैसे-जैसे अपने पैर पसार रहा है, यहाँ की हर चीज़ - रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, जंगल, जमीन, पहाड़, नदियाँ, रिश्ते, नाते, आँसू, ग़म, खुशियाँ, त्योहार, धर्म, नैतिकता आदि मण्डी में बिकने वाले माल में तब्दील हो गये हैं। लेकिन पूँजीवाद मुनाफ़ाखोरी की जो अंधी हवस पैदा करता है उसका परिणाम अपरिहार्य रूप से आर्थिक, सामाजिक और नैतिक संकट के रूप में सामने आता है।
समाज को भीषण संकट की गर्त में धकेलने के बावजूद पूँजीपतियों की मुनाफ़े की हवस (Lust for profit of capitalists) शान्त नहीं होती, उल्टे वे इस संकटकालीन परिस्थिति का भी लाभ अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिये करते हैं। ऐसी संकटकालीन परिस्थिति में उनके सामने सबसे कारगर हथियार होता है लोगों की देशभक्ति की भावना (Patriotic spirit)।
इक्कीसवीं सदी में मीडिया ने पूँजीवाद के प्रायोजित देशभक्ति की भावना फैलाने के काम को और आसान कर दिया है। यह अनायास नहीं है कि जैसे- जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था संकट के दलदल में धँसती जा रही है और सामाजिक और नैतिक पतन अपनी पराकाष्ठा पार करता जा रहा है, वैसे वैसे प्रायोजित देशभक्ति की लहर भी हिलोरे मार रही है।
देशभक्ति की भावना को मण्डी में बिकाऊ माल बनाने के बाद लोगों को ऐसे राजनीतिक विकल्प भी परोसे जाते हैं जो वास्तव में कोई विकल्प हैं ही नहीं बल्कि वे इसी लुटेरी व्यवस्था को और मज़बूती से क़ायम करने के लिये प्रतिबद्ध हैं। भारत में धर्मपरायण लोग अपने दुखों और तकलीफ़ों का कारण ढूँढकर उनका समाधान खुद करने की बजाय अपना दुख हरने के लिये किसी मसीहा का इन्तज़ार करते हैं। मसीहा के इन्तज़ार की यह प्रवृत्ति पूँजीवाद के लिये एक संजीवनी का काम कर रही है।
पिछले कुछ वर्षों से देशवासियों को मसीहाओं के भाँति- भाँति के ब्राण्ड पेश किये जा रहे हैं। कुछ समय तक अण्णा टोपी का ब्राण्ड परोसा गया जिससे लोगों में थोड़ी उम्मीद जगी कि शायद अण्णा ही वह मसीहा है जिसका उन्हें बेसब्री से इन्तज़ार था। लेकिन यह ब्राण्ड ज़्यादा दिनों तक नहीं चला, सो राष्ट्रवाद की मण्डी में आम आदमी की टोपी के रूप में एक नया ब्राण्ड परोसकर आम आदमी को एक दूसरी टोपी पहनाने की कोशिश की गयी। कुछ लोगों को फिर लगा कि शायद अब तो उनके मसीहा का इन्तज़ार ख़त्म हो गया। लेकिन वह ब्राण्ड भी टाँय- टाँय फिस्स साबित हो गया और एक बार फिर लोग अपने आप को ठगा महसूस करने लगे।
इन दिनों नरेन्द्र मोदी के रूप में मसीहा का एक नया ब्राण्ड मार्केट में अवतरित हुआ है। इस ब्राण्ड को लाँच करने के लिये इसके प्रायोजकों को न सिर्फ मोदी की दाढ़ी, चश्मे, कपड़ों और पूरे गेटअप पर काफी ख़र्च करना पड़ा बल्कि उसके दामन पर लगे हज़ारों मासूमों के खून के धब्बों को भी डिटर्जेंट से रगड़-रगड़ कर साफ करने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन पूँजीवाद में अगर आपके पास अपने ब्राण्ड की मार्केटिंग के लिये ज़रूरी पूँजी है तो आप किसी भी ब्राण्ड को लोकप्रिय कर सकते हैं।
इस नये मसीहा के ब्राण्ड को भी लाँच करने के लिये इसके प्रायोजकों के पास पैसे की तो कोई कमी थी नहीं, इसलिये उन्होंने स्वदेशी की अपनी रट को दरकिनार कर अमेरिका की पीआर एजेंसी को भी हायर करने में भी कोई परहेज़ नहीं किया। इन सब का परिणाम यह है कि मसीहा का इन्तज़ार (Waiting for the messiah) कर रहे निष्क्रिय मध्यवर्ग में एक नई उम्मीद का संचार हो गया है। अब उनको यकीन हो चला है कि बस यही वह मसीहा है जिसके प्रधानमंत्री बनते ही इस देश में भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं रहेगा, रूपये का मूल्य बढ़ जायेगा, महँगाई स्वाहा हो जायेगी, आतंकवाद का ख़ात्मा हो जायेगा, पाकिस्तान, चीन और बंगलादेश भारत के आगे नतमस्तक हो जायेंगे और उनकी तमाम निजी समस्यायें छूमंतर हो जायेंगी। इसके लिये उन्हें एक आसान नुस्खा भी सुझाया जा रहा है कि उन्हें बस रोजाना सुबह शाम नमो-नमो का जाप करना है। इसलिये इसमें यह आश्चर्य नहीं है कि मध्यवर्ग के घर और दफ्तर से लेकर फेसबुक और टि्वटर तक नमो-नमो के कानफाड़ू मंत्रोच्चारण के शोरगुल से गूँज रहे हैं।
हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा, शिव चालीसा, सत्यनारायण कथा और कुंजबिहारी की आरती से तो बात बनी नहीं, देखना यह है कि इस नये मन्त्र से इस वर्ग का कितना उद्धार होता है।
आनंद सिंह


