0 प्रकाश कारात
एक और आतंकवादी जघन्यता, इस बार पेरिस में। शुक्रवार, 13 नवंबर की रात में आत्मघाती बम पहने बंदूकधारियों ने इस शहर में छ: अलग-अलग जगहों पर अंधाधुंध गोलियां बरसायीं और 129 की हत्या कर दी तथा 99 अन्य को गंभीर रूप से घायल कर दिया। मरने वालों में ज्यादातर युवतियां व युवक थे जो एक संगीत कंसर्ट में या आमोद-प्रमोद के लिए रेस्टोरेंटों में गए हुए थे। यह इन मौतों को और ज्यादा मर्मस्पर्शी बना देता है। यह जघन्यता फ्रांस की राजधानी में हुई है, जो योरपीय सभ्यता व संस्कृति का केंद्र है और इससे यह अपराध और भी बर्बरतापूर्ण हो जाता है।
वैसे इसी सप्ताह में और भी आतंकवादी हमले हुए हैं। बेरूत में आतंकवादी बम विस्फोटों में 43 लोग मारे गए थे और बगदाद में 26। अब इसकी भी पुष्टि हो चुकी है कि रूसी नागरिक विमान, जो मिस्र में शर्म अल शेख से रूस में सेंट पीटर्सबर्ग की उड़ान पर था, आतंकवादी बम हमले से ही गिरा था। इस घटना में विमान में सवार सभी 224 लोग मारे गए थे। इन सभी हमलों की जिम्मेदारी आइएसआइएस ने ली है, जिसे अरबी में दइश के नाम से जाना जाता है।
इसमें तो किसी शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है कि आज सारी दुनिया के सामने आतंकवाद का बड़ा भारी खतरा खड़ा हुआ है और इस लानत का मुकाबला करना होगा तथा इसे मिटाना ही होगा। लेकिन, असली मुद्दा यह है कि इस आतंकवाद के स्रोतों की सही-सही पहचान की जाए और ऐसी नीतियों तथा तरीकों को अपनाया जाए, जिनसे उनकी काट करने में मदद मिल सके। लेकिन, समस्या यहीं आती है। अगर कोई पश्चिमी ताकतों के सामने कुछ तथ्यों और सचाइयों का बयान भर करे, भर्त्सनाओं की बौछार से उसे चुप कराने की कोशिश की जाती है।
इन आतंकी हमलों के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांकोइस ओलांदे ने एलान किया कि फ्रांस युद्ध लड़ रहा है। लेकिन, सवाल यह है कि यह युद्ध किस के खिलाफ लड़ा जा रहा है? इस सवाल के जवाब में कोई भी कहेगा कि यह युद्ध दइश तथा इस्लामी स्टेट के खिलाफ ही होना चाहिए, जिसने इराक तथा सीरिया के एक हिस्से पर कब्जा कर रखा है। लेकिन, उनका युद्ध उसके खिलाफ तो नहीं है। वास्तव में पेरिस में घटी त्रासदी की जड़ें सीरिया और इराक के मौत के मैदानों में हैं। इस्लामी आतंकवाद का उभार और दुनिया भर में हुए आतंकवादी हमले, अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी ताकतों द्वारा इराक तथा सीरिया में किए गए सैन्य हस्तक्षेपों तथा नीतियों से ही निकले हैं। अमरीका ने इराक पर हमला किया था और सद्दाम हुसैन के शासन को पलटने के बाद, उस पर कब्जा कर लिया था। इसके लिए राष्ट्रपति बुश ने सद्दाम हुसैन पर अल कायदा की मदद करने का झूठा आरोप भी लगाया था जबकि सचाई यह है कि इराक में अल कायदा का उभार, वहां पर अमरीकी कब्जे के दौरान और इराक के धर्मनिरपेक्ष शासन के नष्ट किए जाने के चलते ही हुआ है। अब इराक में अल कायदा ने, आइएसआइएस का रूप धारण कर लिया है।
इराक के बाद, अब सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के धर्मनिरपेक्ष निजाम को पलटने के लिए, अमरीका के नाटो सहयोगियों ने जो अभियान छेड़ा हुआ है, उसमें फ्रांस आगे=आगे रहा है। सीरिया में, जो किसी जमाने में फ्रांस का उपनिवेश रहा था, वह 2011-12 से ही असद विरोधी बागी ताकतों को मदद देता आ रहा था। इसके लिए वह उन इस्लामवादी अतिवादियों की ही पैसे तथा हथियारों की मदद करता आया था, जिनकी पीठ पर सऊदी अरब तथा उसके खाड़ी के सहयोगियों का हाथ था। इसके लिए फ्रांस नाटो के अपने एक और सहयोगी, तुर्की के साथ मिलीभगत किए रहा था, जिसने अपनी सीमाओं से होकर, ऐसे हजारों अतिवादियों को सीरिया में घुसाया था, जो असद सरकार के खिलाफ कथित जेहाद छेडऩे के लिए दूर-दूर से पहुंच रहे थे। जब तक उग्रवाद से प्रभावित मुस्लिम फ्रांसीसी नागरिक असद की सरकार के खिलाफ लड़ऩे से लिए सीरिया जा रहे थे, फ्रांसीसी सरकार को कोई खास चिंता करने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई।
अमरीका के नेतृत्व वाले गठजोड़ की ही तरह फ्रांस की भी ज्यादा दिलचस्पी असद को हटाने तथा सीरिया में सत्ता बदल थोपने में ही थी और इस्लामी तत्ववादियों तथा अतिवादियों को ही इस प्रहार के लिए लाठी बनाना पड़ रहा था, तो वही सही।
इस तरह सीरिया पर थोपे गए विनाशकारी गृहयुद्ध और इसके चलते सीरिया की सरकार के कमजोर होने से ही ऐसे हालात पैदा हुए हैं, जिनमें दइश का उभार हुआ है और इस्लामिक स्टेट बन गया है, जिसका उत्तरी इराक के बड़े हिस्से पर और सीरिया के एक हिस्से पर कब्जा है। अमरीकी-फांसीसी-नाटो दखलंदाजी से पैदा हुआ यह भस्मासुर ही अब गंभीर खतरा बनकर खड़ा हो गया है। सीरिया में अमरीका तथा फ्रांस के हवाई हमलों के जरिए अब ठीक उसी लानत पर अंकुश लगाने की कोशिश की जा रही है, जिसे खुद उन्होंने ही जबात अल नुसरा तथा ऐसी अन्य इस्लामवादी ताकतों की मदद कर के खड़ा किया था, जिनको सऊदी अरब तथा उसके खाड़ी के सहयोगियों से पैसा मिल रहा था और हथियार मिल रहे थे।
पश्चिमी ताकतें अब तक इस सचाई को पहचानने से ही इंकार करती आयी हैं कि सीरिया में असद निजाम की मौजूदगी और दइश तथा अन्य इस्लामी अतिवादियों के खिलाफ सीरियाई फौजों की लड़ाई ही है जिसने सीरिया को अब तक पूरी तरह से अराजकता के गर्त में गिरने से और बर्बर अतिवाद का गढ़ बनने से बचाए रखा है।

बहरहाल, ऐसा लगता है कि हाल के घटना विकास के बाद, कुछ बदलाव शुरू हो रहा है। पहली बात तो यह कि पिछले कुछ महीनों में ही, सीरिया तथा इराक से शरणार्थियों की भारी बाढ़ योरप तक पहुंची है। युद्ध तथा अतिवादियों की हत्याओं से किसी तरह से बचकर निकल भागे निरुपाय औरतों-बच्चों तथा मर्दों की इस बाढ़ ने, मध्य-पूर्व के संकट को ऐन योरप के बीचो-बीच तक पहुंचा दिया। अब तो योरपीय यूनियन को भी यह मानना पड़ा है कि इस मानवीय त्रासदी को रोकने का एक ही तरीका है, सीरिया में युद्ध खत्म कराना। इसके लिए वे अब असद सरकार को हटाने को अपना पहला लक्ष्य बनाकर नहीं चलते रह सकते हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण घटना विकास, सीरिया की सरकार तथा सेना के पक्ष में, सैन्य हस्तक्षेप करने के राष्ट्रपति पूतिन तथा रूस के फैसले से जुड़ा हुआ है। रूसी वायु सेना ने दइश तथा अन्य अतिवादी ताकतों के ठिकानों पर हमले शुरू कर दिए। रूसी सैन्य हस्तक्षेप से युद्ध के हालात में गुणात्मक बदलाव आया है और विद्रोहियों के खिलाफ लड़ाई में सीरिया की सरकार तथा सेना की सामर्थ्य में बढ़ोतरी हुई है। पश्चिमी ताकतों को भी स्वीकार करना पड़ा है कि सीरिया में सत्ता बदल, अब और प्राथमिकता नहीं बना रह सकता है। इस सब से इंटरनेशनल सीरिया सपोर्ट ग्रुप द्वारा विएना में आयोजित वार्ताओं में नयी जान आ गयी है। पहली बार इन वार्ताओं को ईरान को भी आमंत्रित किया गया है।
याद रहे ईरान खुद ही पश्चिमी ताकतों का अगला निशाना है और असद सरकार का मजबूत मददगार है।
तीसरा महत्वपूर्ण कारक हैं, मिस्र की सीमाओं में रूसी विमान का गिराया जाना और पेरिस में आतंकवादी हमले। इन घटनाओं ने सीरिया में जारी टकराव का कोई राजनीतिक समाधान निकालने को और भी जरूरी बना दिया है।
इसी पृष्ठभूमि में रूसी, फ्रांसीसी तथा अमेरिकी सेनाओं ने, सीरिया में आइएसआइएस के ठिकानों पर अपनी हवाई बमबारी तेज कर दी है। लेकिन, सिर्फ इससे आइएसआइएस को शिकस्त नहीं दी जा सकती है। जरूरत इसकी है कि अमरीका और फ्रांस जैसे उसके सहयोगी, अपना रास्ता बदलें। दसियों वर्षों से अमरीका और नाटो के उसके सहयोगी, सऊदी अरब जैसी प्रतिक्रियावादी ताकत का साथ देते आ रहे हैं, जो इस पूरे क्षेत्र में आतंकवाद फैलाने के लिए पैसा लगाती आयी है। दूसरी ओर, अमरीका तथा उसके सहयोगियों ने अरब देशों के धर्मनिरपेक्ष निजामों को निशाना बनाया है तथा उनके हमले किए हैं, ताकि उनके तेल संसाधनों पर कब्जा कर सकें या नियंत्रण कायम कर सकें। उनकी फौजी दखलंदाजियों से ही अफगानिस्तान में तालिबान का उभार हुआ और इराक तथा सीरिया में अल कायदा तथा आइएसआइएस का।
इन हालात को बदलने के पहले कदम के तौर पर उन्हें सत्ता बदल थोपने के लिए सीरिया की असद सरकार को निशाना बनाना बंद करना होगा। इसके संकेत हैं कि फ्रांस इस मामले में अपना रुख बदल रहा है। राष्ट्रपति ओलांदे ने फ्रांसीसी संसद में अपने संबोधन में कहा कि समस्या असद निजाम नहीं है बल्कि आइएसआइएस की मुख्य दुश्मन है। इसका अर्थ यह होना चाहिए कि सीरिया में बागियों को पैसा तथा हथियार देना अब बंद हो जाएगा। बहरहाल, आइएसआइए को अलग-थलग करने और शिकस्त देने के लिए, एक एकजुट रणनीति का अपनाया जाना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी होगा कि अमरीका तथा नाटो यह सुनिश्चित करें कि साऊदी अरब, कतर तथा तुर्की भी, अपनी कठपुतलियों को सीरिया की सीमाओं में सैन्य कार्रवाइयां करने से रोकें। इसके साथ ही अमरीका तथा नाटो को रूस तथा ईरान से हाथ मिलाकर, आइएसआइएस का मुकाबला करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि सीरिया में शांति बहाल हो। सीरिया के प्रश्न का संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में ऐसा समाधान निकलना चाहिए जिसके तहत, अतिवादियों को छोडक़र सीरियाई जनता, अपने देश की भावी राजनीतिक व्यवस्था का निर्णय कर सकें।