प्यार पर पहरा : ये जाति के झूठे रिवाजों की दुनिया, ये प्यार के दुश्मन समाजों की दुनिया
प्यार पर पहरा : ये जाति के झूठे रिवाजों की दुनिया, ये प्यार के दुश्मन समाजों की दुनिया
बहुत वर्ष पूर्व गुरुदत्त की फिल्म प्यासा का ये गीत 'ये दौलत के झूठे रिवाजो की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है,' आज बरबस याद आता है।
साहिर ने जब ये गीत लिखा तो वो आज़ादी का दौर था, एक नए भारत के निर्माण का सपना भी जहा धर्म, जाति और रश्मो की संकीर्ण दीवारों से उठकर हम इंसानियत और प्यार के पैगाम के साथ आगे बढ़ेंगे। लेकिन जैसे जैसे तकनीक में महारत हासिल करने लगे, दिमागी तौर पर जाति, धर्म, और संकीर्णताओ की दीवारे ढहने के बजाय बढ़ने लगी है।
अभी कुछ दिन पूर्व नोएडा में नाईजेरियाई मूल के अश्वेत छात्रों के साथ दुर्व्यवहार का मामला सामने आया। एक भारतीय छात्र की संदिग्थ परिस्थितियों में हुई और उसके परिवार ने पहले इन अफ़्रीकी मूल के छात्रों पर आरोप लगाया के वो 'नरभक्षी' हैं और उनके इस आरोप पर पुलिस ने इन छात्रों के घरो पर छापेमारी की, फ्रीज़ भी देखा तो कुछ नहीं मिला। कुछ छात्रों को गिरफ्तार भी किया।
नोएडा के उस इलाके के लोगों ने पुलिस थाने पर प्रदर्शन भी किया, लेकिन कुछ समय बाद वो छात्र मिल गया लेकिन अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया।
अब परिवार वालों का आरोप बदल गया और उन्होंने आरोप लगाया कि इन अफ्रीकी छात्रों ने ही उनके बेटे की हत्या की है।
पुलिस इससे पहले कुछ करती, नोएडा की भीड़ ने इन छात्रों के घर पर तोड़-फोड़ की और उन पर कई किस्म के आरोप लगाए।
हिंसा इतनी अधिक थी कि अफ़्रीकी छात्र सदमे में थे। उनमें से बहुत से छात्र इसलिए भारत आते हैं क्योंकि उन्हें लगा कि हमने भी उपनिवेशवाद के दौर में उनकी तरह ही नस्लभेद झेला है। ये सब भारत के विषय में एक बिलकुल अलग किस्म की राय के साथ यहाँ आये थे।
मेरे एक मित्र जो अफ़्रीकी मूल के अमेरिकी हैं, दिल्ली विश्विद्यालय में पी एच डी के लिए आये। भारत आने से पहले उनके दिमाग में गाँधी की इमेज थी, लेकिन दिल्ली आकर उन्हें पता चल गया कि हम रंग, नस्ल और जाति के प्रश्नों पर कितने संवेदनशील हैं। उन्होंने अपना शोध कर जल्दी से जल्दी यहाँ से निकलने में ही भलाई समझी।
अफ़्रीकी मिशन के राजदूतों ने नोएडा में हुई घटना पर गहरी आपत्ति जताई और मामला सयुंक्त राष्ट्र संघ की ह्यूमन राइट्स कौंसिल में हैं। उनका कहना है कि भारत में नस्लभेद होता है और अफ़्रीकी मूल के लोगों के साथ ये आम बात है, लेकिन भारत सरकार इस मामले से निपटने में गंभीर नहीं है। उनका कहना था कि ये बहुत गंभीर बात है क्योंकि अफ्रीका में बहुत भारतीय रहते हैं और अधिकांश कारोबारी हैं और इस प्रकार की घटनाएं उनको सीधे प्रभावित करती हैं।
असल में सवाल इस बात का नहीं था कि यहाँ नस्लभेद या जातिभेद नहीं था, लेकिन सरकार का रवैया निहायत ही निराशाजनक रहा। भारत सरकार ने इस प्रश्न को नस्लभेद की तरह न लेकर एक साधारण अपराध की तरह लिया है, जो उसके पूरे एप्रोच को पर सवालिया निशान खड़ा करता है।
हम अपने अफ्रीकी दोस्तों से कहना चाहते हैं कि एक भारतीय होने के नाते हम रंगभेद, जातिभेद, नस्लभेद और लिंगभेद आदि सभी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध हैं और बाबा साहेब आंबेडकर के निर्देशन में बने हमारे संविधान ने सभी को एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर बराबरी का अधिकार दिया, लेकिन 70 वर्षो बाद भी भारत में नस्लवाद और जातिवाद के पुजारी इस संविधान की मर्यादाओं को लगातार ध्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं।
हाँ, भारत नस्लवादी या जातिवादी नहीं है क्योंकि वो तो स्वयं ही इन विभिन्न प्रकार के भेदभावों का शिकार है।
यहाँ की 90 प्रतिशत बहुजन आबादी जातिवाद, रंगभेद, लिंगभेद और अन्यप्रकारो के विभिन्न भेदभावों से ट्रस्ट है, जिनके विरूद्ध समाज में समय समय पर संघर्ष भी हुए। बुद्ध से लेकर कबीर, नानक, रैदास, फूले, आंबेडकर, पेरियार, श्रीनारायणगुरु, राहुल सांकृत्यायन, भगत सिंह आदि सभी ने तो इस बीमारी जिसका श्रोत भारत का वर्णाश्रम धर्म है, उसको बताया और उसके विरूद्ध विद्रोह का बिगुल हमारे समाज में फूंका।. सभी का मानना था का भारत की एकता और ताकत वर्णव्यस्था के खात्मे से होगा क्योंकि तभी यहाँ बराबरी वाला समाज बन पायेगा।
आज़ादी के बाद ये संविधान उन लोगों की आँखों की किरकिरी है जो भारत को वर्णाश्रम धर्म के जातिवादी सिद्धांतो पर झोंक देना चाहते हैं, क्योंकि जैसे-जैसे जाति, धर्म की दीवारे टूटेंगी धंधेबाज़ों के लिए मुश्किलें बढ़ेंगीं। इसलिए हम देख रहे हैं कि इस देश में जाति की पवित्रता को बचाये रखने के सारे प्रयास हो रहे हैं, चाहे उसके कारण हमारी एकता और संविधान मज़बूत न रहे।
जाति व्यवस्था की सर्वोच्चता की रक्षा के लिए ही आज हमारे युवाओं को असमय बलिदान देना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश में एंटी रोमियो स्क्वाड बना है जो युवकों को सरेआम पीट रहा है और उत्तर प्रदेश पुलिस, जिसके बारे में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के एक न्यायाधीश ने बहुत पहले कहा कि वर्दीवाला गुंडा है, अब ईरान और सऊदी अरब धार्मिक पुलिस की तरह दिखाई दे रही है।
महिलाओं की सुरक्षा हम सब का कर्तव्य है और पुलिस अगर महिलाओं को सुरक्षा दे पाए तो यह बहुत बड़ी बात होगी, लेकिन उसकी आड़ में नौजवानों को एक दूसरे से मिलने से रोकना, उनकी सरे आम बुरी तरह से पिटाई करना सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना भी है और लोगों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का भी हनन है। लेकिन पुलिस यहाँ पर एक संवैधानिक तंत्र की तरह नहीं, एक धार्मिक सामाजिक व्यवस्था की वाहक नज़र आ रही है, जो बेहद खतरनाक है।
हम उम्मीद करते हैं कि पुलिस निहत्थे प्रेमियो पर जुल्म न कर प्रदेश में कानून व्यवस्था पर ध्यान देगी, क्योंकि नैतिकता के निर्लज़्ज़ ठेकेदार कानून अपने हाथ में लेकर लोगों को परेशान कर रहे हैं और उन पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही है।
एक हफ्ते पहले तेलंगाना राज्य में मधुकर नमक एक नवयुवक की नृशंस हत्या कर दी गयी। पुलिस ने इसे आत्महत्या का मामला बनाकर रफा दफा करने की कोशिश की, जबकि मधुकर का क्षत विक्षत शव, जिसमें उसके गुप्तांगों को तक काट डाला गया था, पुलिस ने बरामद किया।
साफ़ जाहिर था कि मधुकर को प्यार करने की सजा मिली। वो इसलिए कि वो दलित था और प्यार करने वाली लड़की वहां की एक ताकतवर जाति कापू से थी। एक्टर चिरंजीवी इसी जाति से आते हैं और जातियों के वोटबैंक होने के कारण पूरा प्रशासन इस घटना पर पर्दा डालना चाहता है। लेकिन तेलंगाना में लोग खड़े हुए हैं इस क्रूर अपराध के विरुद्ध।
एक बहुत ही ह्रदय विदारक घटना उत्तर प्रदेश में हुई। एक किशोरवय जोड़े ने आत्म हत्या कर ली क्योंकि उन्हें कही से भी कोई उम्मीद नहीं थी। उन्हें भय था का मौजूदा दौर में उनके प्यार के कारण उनके माँ बाप नैतिकता के ठेकेदारो की गुंडागर्दी का शिकार न हो जाए, क्योंकि वे बेलगाम घूम रहे हैं और उन्हें प्रशासन की पूर्ण शह मिली हुई है।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक फिरोज और गूंझ एक दूसरे से प्यार करते थे और उम्र कोई 18 वर्ष के आस पास। फिरोज ने पहले गूंझ को गोली मारी और फिर अपने आपको भी ख़त्म कर दिया। स्थिति इतनी भयावह कि किसी के परिवार वाले अपने बच्चों के शव लेने भी नहीं आये।
उसी अख़बार की खबर बताती है कि लगभग 5 अन्य जोड़ों ने इसी दौरान आत्महत्याएं की हैं, अंतर्धार्मिक और अंतरजातीय नहीं है। कुछ ऐसे भी मामले जो जाति के अंदर के हैं।
बात साफ़ है कि हमारा समाज हमारे युवाओं को इतना परिपक्व तो मान रहा है कि वे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बना सकें. लेकिन अपनी जिंदगी के फैसले लेने के लिए वह योग्य नहीं है।
ये कैसा समाज है जो अपनी इज्जत की खातिर अपने बच्चों को मारने के लिए तैयार है और उसके लिए नए कारण ढूंढ रहा है।
ये बीमारी के लक्षण हैं जो हमारे समाज को ग्रसित कर चुकी है।
करीब दो दशक पहले उत्तर प्रदेश के एक इलाके में प्रेमी जोड़े को जिन्दा जला दिया गया। वो मामला एक गुजर और नाइ जाति के युवक-युवती का था।
जब मैं एक अन्य साथी के साथ उस गाँव पहुंचा तो ज्यादातर का कहना था कि उन्हें नहीं पता कि क्या हुआ, जबकि उन दोनों प्रेमी युगल को पूरे बाजार में घुमाया गया था।
जब मैंने लड़की की बहिन से, जिनके बीच दो तीन वर्ष का फर्क था, पूछा कि वो क्या कहना चाहेगी, इस घटनाक्रम में तो बहिन का कहना था कि जो हुआ वो ठीक था क्योंकि घर की मान मर्यादा भी तो कुछ होती है। मेरे साथ गयी एक विदेशी पत्रकार इस बात से स्तब्ध रह गयी।
कहीं न कहीं हमारे समाज में इन बातों की स्वीकार्यता है क्योंकि हम अपनी झूठी शान और मर्यादाओं की खातिर अपने बच्चों की जिंदगी लेंने में भी दुखी नहीं होते। ऐसा बहुत से देशों में हो रहा है, जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, जोर्डन जहाँ इज्जत के नाम पर हत्याओं को धर्म का चोगा पहनाकर कातिल साफ़ तौर पर बच रहे हैं, लेकिन क्या ऐसा समाज कही आगे बढ़ेगा, क्या उसका कोई बौद्धिक विकास होगा।
जब हमने संविधान बनाया तो सदियों की गैर बराबरी को ख़त्म करके एक प्रबुद्ध भारत के निर्माण सपना भी देखा था, ताकि जाति के दलदल में फंसा ये समाज आधुनिकता और मानववाद के रास्ते में चलकर दुनिया को एक नयी दिशा देगा। लोकतंत्र के जरिये हमने पुराने जातिवादी किलों को ध्वस्त करने का सोचा, लेकिन आज लोकतंत्र इन्हीं जातिवादी ताकतों को सबसे बड़ा हथियार बन गया है। हर वक़्त ये जातिवादी ताकतें व्यक्तिगत आज़ादी की सबसे बड़ी दुश्मन हैं और जाति के खात्मे के लिए हो रहे सारे प्रयासों को समाप्त करने की कोशिशें करती रहती हैं।
जाति पंचायतें, खाप पंचायतें सभी अपनी-अपनी जातियों की महानता और पवित्रता का गुणगान करती रहती हैं। क्या आपने आई एस और तालिबान के अलावा कोई और सभ्य समाज देखा है, जहाँ इज्जत के लिए लड़कियां मार दी जाएं और समाज पर कोई असर नहीं पड़े ?
बहुत वर्ष पूर्व प्रद्युम्न महानंदिया दिल्ली के पालिका बाजार के स्थान पर खुले फव्वारे वाली जगह पर रोज लोगों के स्केच बनाते थे। उनके एक स्केच की कीमत 10 रुपया होती थी और ये संन 1970 का दशक था। उनके पास विदेशी पर्यटकों की अच्छी संख्या आती थी। स्वीडन से भारत यात्रा पर आये चार्लोट उनके चित्रों और व्यक्तित्व से इतनी प्रभावित हुई कि उनसे प्यार करने लगीं। दोनों में प्यार हुआ और फिर प्रद्युम्न के माँ बाप की उपस्थिति में उनके ओडिशा स्थित गांव में उनकी शादी हुई।
प्रद्युम्न दलित परिवार से आते थे और ओडिशा के गाँव में उन्होंने छुआछूत को गहरे से देखा था। प्रद्युम्न ने चार्लोट का नाम चारुलता रख दिया और दोनों दिल्ली लौट आये।
प्रद्युम्न चारुलता के साथ स्वीडन नहीं गए क्योंकि वो चाहते थे के वो अपनी कमाई के पैसो से स्वीडन जाए। ऐसे में कई दिन बीत गए और फिर एक दिन प्रद्युम्न ने सोच लिया के जाना है। उनके पास मात्र 60 रुपये थे जिससे उन्होंने एक साइकिल खरीदी और अपना छोटा-मोटा सामान पैक कर दिल्ली से स्वीडन की यात्रा शुरू की।
जनवरी 1970 में शुरू हुई उनकी प्यार के लिए साइकिल यात्रा लगभग 6 महीने बाद स्वीडन पहुंची। उन्हें बहुत दिक्कतें हुईं। उन्हें नहीं पता था कि उनकी पत्नी की पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या है और न चार्लोट ने उनसे कुछ पूछा था। पहली ही मुलाकात प्यार में बदल गयी और जैसे कहा गया है कि प्यार में कोई यदि और लेकिन नहीं होता, कोई शर्त नहीं होती।
चार्लोट और प्रद्युम्न आज स्वीडन में प्यार की सबसे बड़ी कहानी हैं और उन पर कई फिल्में बन चुकी हैं। प्रद्युम्न को स्वीडन में जाकर ही पता चला कि उनकी पत्नी एक कुलीन परिवार से आती हैं जिनके पास पांच हज़ार एकड़ से बड़ा जंगल और लगभग दस किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई खूबसूरत झील है। मुझे उनके पास कुछ समय बिताने का मौका मिला और मैं कह सकता हूँ कि उनका परिवार प्यार एक बेहद प्यारा और सौम्य परिवार है।
इस कहानी को जिसे मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ, को सुनाने का उद्देश्य केवल इतना है कि क्या ऎसी कोई कहानी भारत में संभव है जहाँ सबसे पहले व्यक्ति की पारिवारिक और जातीय पृष्ठभूमि पूछी जाती है। और अगर जाति मिल गयी तो माँ बाप की सामाजिक हैसियत का बड़ा होना भी जरूरी है, उनकी जेब कितना खर्च कर सकती है ये पहले ही पता होना आवश्यक है। अगर माँ बाप के खिलाफ चले गए तो मधुकर या फिरोज जैसी भयावह स्थिति हो सकती है।
बड़े अफ़सोस की बात है के जब हम सिनेमा में इननोसेंट टीन ऐज रोमांस की फिल्में देखते हैं तो 'बॉबी, लैला मजनू, हीर राँझा, सीरी फरहाद, सोनी महिवाल, मैंने प्यार किया, दिल और ऐसी कई फिल्मों को सुपर हिट बनाते हैं। हम सभी की सहनुभूति प्यार करने वाले जोड़े के साथ होती है और हम सभी उनको नियंत्रण करने वाले परिवार के सदस्यों को बुरा भला कहते हैं। सिलसिला में तो अमिताभ रेखा के रोमांस का जादू लोगों के सर चढ़ा, जब सभी जानते थे कि उनके और जया के बीच में सम्बन्ध मधुरतम नहीं थे लेकिन लोगों की सहानुभूति अमिताभ और रेखा की जोड़ी के साथ थे। ऐसा क्या है कि असल जिंदगी में हम क्रूर हो जाते हैं और मार-काट पर उत्तर आते हैं जबकि परदे में कलाकारों को रोमांस करते देख हमारे दिल की धड़कने भी बढ़ जाती हैं।
रस्म और रिवाज समय के अनुसार बदलने चाहिए और इसलिए संवैधानिक मूल्यों की नैतिकता ही भारत को एक रख पायेगी। क्योंकि धर्म, जाति और इलाको की नैतिकताएं अपनी अलग अलग होती हैं लेकिन जब एक राष्ट्रीय नैतिकता की बात आएगी तो हमारे लिए संवैधानिक नैतिकता को ही अपने जीवन का हिस्सा बनाना पड़ेगा। ये बात विशेषकर सरकारी और सार्वजानिक सेवाओ के व्यक्तियों के लिए आवश्यक है ताकि वो समस्याओं का हल ईमानदारी से निकाल सके।
कोई नहीं कहता कि समाज में सुरक्षा का भाव न आये या महिलाओं की सुरक्षा नहीं होनी चाहिए, लेकिन इसको किस प्रकार किया जाए वो जरूरी है। क्या महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर उन्हें घर से बाहर निकलने की छूट मिलेगी या नहीं। क्या उन्हें या किसी पुरुष को आपस में बात करने, घूमने और काम करने और प्यार करने की आज़ादी के लिए बार बार नैतिकता के ठेकेदारों से अनुमति लेनी पड़ेगी। सरकार के अच्छे निर्णय भी अगर गलत तरीके से लागू हुए तो वो भला करने के बजाय बुरा करेंगे। कानून जो करे वो करे लेकिन समाज में वैचारिक बदलाव की जरूरत है।
भारत की एकता और मज़बूती धर्मों को केवल निहायत व्यक्तिगत स्तर पर रखकर हो सकती है। प्रेम पर पहरेदारी करके हम केवल जातीयता और सामंतवादी स्त्रीविरोधी मानसिकता को ही मज़बूत करेंगे जो देश और समाज के हित में कतई नहीं है।
एक मज़बूत समाज के लिए स्त्री और पुरुषों के सम्बन्ध बराबरी पर आधारित होते हैं जिसकी गारंटी हमारे संविधान ने दी ही। देश की मज़बूती और एकता के लिए संविधान की नैतिकता और हमारे निजी जीवन मूल्यों में उसकी उपयोगिता जरूरी है। 21वीं सदी का प्रबुद्ध भारत बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा स्थापित संवैधानिक नैतिकता से ही बन सकता है और उम्मीद है हमारे राजनैतिक दल और सरकार इस पर प्रतिबद्धता से काम करेंगे।
विद्या भूषण रावत


