तेरह साल का झारखण्ड जोहार !
पलाश विश्वास

आज लोग नहीं मानते लेकिन यह सच है, कम से कम मेरे लिए सच है, जिसे मैं आप सबके साथ साझा करना चाहता हूँ कि लाल झंडे के बिना झारखंड आंदोलन एके राय, विनोद बिहारी, शिबू सोरेन तिकड़ी के आविर्भाव से पहले एक सपने के सिवाय कुछ नहीं था। झारखंड ही नहीं, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड आंदोलनों में भी लाल झंडे की बेहद निर्मायक भूमिका रही है। चूँकि तीनों राज्यों में अलग राज्य बनने के बाद संघ परिवार का वर्चस्व है तो इस हकीकत से सिरे से इंकार करने में कोई दिक्कत भी नहीं है।

आज जो संघ परिवार या बहुजन आंदोलन के लोग कैडर आधारित संगठन की बात करते हैं, उसकी अवधारणा ही मार्क्सवादी है। लाल झंडे ने झारखंड आंदोलन के कैडर तैयार कर दिये, जिसकी बदौलत यह आंदोलन अपने अंजाम तक पहुँचा। अंजाम तक पहुँचने के बाद बेदखल हो गया। छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का किस्सा भी आंदोलन से बेदखली का ही किस्सा है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मित्रगण मुझे माफ करें, मेरा तो मानना यह भी है कि हमें नारायण मेघाजी लोखंडे के मजदूर आंदोलन का नये सिरे से मूल्याँकन करना चाहिए, क्योंकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में ग्लोबल जायनवादी मनुस्मृति व्यवस्था के प्रतिरोध की जमीन उसी अंबेडकरी वामपंथी मजदूर आंदोलन में है।

भारत के निनानब्वे फीसद आवाम की गोलबंदी के बिना किसी की कहीं भी किसी किस्म की आजादी सम्भव नहीं है। मुक्तिकामी परिवर्तनकामी सामाजिक शक्तियाँ विचारधारा की शुद्धता के बहाने अलग अलग द्वीपों में कैद रहें, तो हर बात बेमानी है। वामपंथ पर जाति वर्चस्व के ही विरोधी थे डॉ. अंबेडकर, मार्क्सवादी विचारधारा के नहीं।

जनांदोलन की जो वैज्ञानिक पद्धति मार्क्सवाद ने ही दी है, प्रतिबद्ध कैडर आधारित मार्क्सवादी संस्थागत सगठनात्मक ढाँचे के बिना तो भारत वर्ष में हिंदू राष्ट्र भी असम्भव है। सही मायने में इस वक्त मार्क्सवादी वैज्ञानिक संस्थागत संगठनात्मक ढाँचा संघ परिवार के अलावा किसी के पास नहीं है। सिर्फ हिंदुत्व ही नहीं, सिर्फ धर्म और साम्प्रदायिकता नहीं, सिर्फ बाजार और पूँजी का समर्थन नहीं, भारत को नमोमय बनाने में संघ परिवार के संस्थागत कैडर बेस ही मुख्य आधार है।

अगर धुर दक्षिणपंथी जायनवादी लोग मार्क्सवादी संगठनात्मक ढाँचा खड़ा करके भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने में कामयाबी के साथ तेजी से बढ़ रहे हैं, तो संस्थागत प्रतिबद्ध कैडरबेस मार्क्सवादी संगठनात्मक ढाँचे के तहत मूलनिवासी बहुजन उसका मुकाबला करने के लिये गोलबंद क्यों नहीं हो सकते, मेरा यह प्रश्न है, मित्रों सोचें जरूर।

झारखंड आंदोलन को संगठन बनते हुये और फिर सत्ता में तब्दील होते देखने के बाद मुझे तो यही लगता है कि अंबेडकरी विचारधारा और वैज्ञानिक मार्क्सवाद के अंतर्विरोधों के बहाने भारतीय जनगण के एकीकरण में बाधक बने तत्व अंबेडकर के भी उतने ही विरोधी हैं, जितने मार्क्स लेनिन और माओ के विचारों के,चाहे वे रक्त की विशुद्धता की तरह विचारों की विशुद्धता की बात कितनी ही क्यों न करें। उनकी विद्वता महज अकादमिक है, जिससे भारतीय जनता की किस्मत नही बदलने वाली है और न इस गैस चैंबर की कोई खिड़की उस उच्च कोटि के विशुद्ध विमर्श से खुलने जा रही है।