धर्म-अधर्म धर्मनिरपेध अंध आस्था के विमर्श के बदले हमने संविधान और लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में संवाद और विमर्श का यह विकल्प जिस परिदृश्य में चुना, उसके तहत कारपोरेट मनुस्मृति राजकाज इस सरकार को संविधान और लोकतंत्र, जल जंगल जमीन और आजीविका, प्रकृति और प्रयावरण, नागरिक और मानवाधिकारों की कोई परवाह नहीं है और अबाध पूंजी के लिए जनसंहारी सुधार कयामत उसकी सर्वोच्चा प्राथमिकता है क्योंकि बाजार में पिछले 6 महीने की तेजी नई सरकार बनने के चलते ही हुई है।
जाहिर है कि बाजार को नई सरकार से बड़े फैसलों की उम्मीद है। इतनी बड़ी उम्मीद कि अगले 3 सालों में बाजार में 20-25 फीसदी के सालाना रिटर्न आने की उम्मीद है। 20 फीसदी सालाना रिटर्न के हिसाब से अगले 3 सालों में सेंसेक्स में 50000 तक के स्तर आने मुमकिन हैं।
मोदी सरकार ने 6 महीनों में 6 बड़े आर्थिक फैसले लिए हैं। और यूपीए सरकार की पॉलिसी पैरालिसिस दूर हुई है। रेलवे में एफडीआई निवेश सीमा 100 फीसदी कर दी गई। रक्षा क्षेत्र में अब 49 फीसदी एफडीआई को मंजूरी दे दी गई है। इस के साथ ही मोदी सरकार ने रियल एस्टेट, निर्माण क्षेत्र में भी एफडीआई को आसान कर दिया है। डीजल डीकंट्रोल कर दिया गया है और गैस की कीमत 4.2 डॉलर से बढ़ाकर 5.61 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू कर दी गई है।
समझ जाइये कि किसका न्यारा किसका वारा होना है और बहुसंख्य बहुजनों का हाल क्या होते जाना है।
समझ जाइये विनिवेश और निजीकरण से सफेद पोशों का रंग रोगन कैसे उतर जाना है और आम जनता को कैसे-कैसे कारपोरेट मुनाफा का बलि बन जाना है।
सरकार ने भी अब तक बाजार को निराश नहीं किया है। अगले 1 साल में ब्याज दरों में 2 फीसदी तक की कमी आने का अनुमान है। ब्याज दरों में कमी से कैपिटल गुड्स, इंफ्रा सेक्टर को काफी फायदा होगा। बजट के ऐलानों के मुकाबले जीएसटी, श्रम कानून, जमीन अधिग्रहण कानून से जुड़े रिफॉर्म ज्यादा अहम हैं।
सरकार ने डीजल डीकंट्रोल, मेक इन इंडिया और डिफेंस के ऑर्डर जैसे कुछ बड़े और अहम कदम उठाए हैं। जीएसटी, श्रम कानून, जमीन अधिग्रहण कानून से जुड़े सुधार देश की ग्रोथ में सुधार के नजरिए से बेहद अहम हैं।
अलीबाबा का आगमन हो चुका है। वालमार्ट, फ्लिपकार्ट.अमेजन, स्नैप डील के बाद खुदरा कारोबार का बिना एफडीआई काम तमाम करने के लिए अलीबाबा जिंदाबाद।
गौरतलब है कि ई-कॉमर्स कंपनी अलीबाबा के फाउंडर और चीन के सबसे धनी व्यक्ति जैक मा ने अपने पहले भारत दौरे पर एलान किया है कि वे यहां और ज्यादा निवेश करने के इच्छुक हैं। साथ ही उन्होंने तकनीकी उद्यमियों को मदद देने का भी भरोसा दिया। जैक मा ने पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सराहना भी की।
किसानों, खेतों, खलिहानों, घाटियों, अरण्यों, ग्लेशियरों, समुद्रतटों का जो हुआ सो हुआ, इस देश के चायबागानों, कपड़ा मिलों, जूट उद्योग, कपास और गन्ने की तरह खुदरा कारोबार से जुड़े मंझोले और छोटे कारोबारियों का हाल करने वाली बै कारोबार बंधु सरकार जिसकी ईटेलिंग से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी चूना लगने लगा है और वे त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही हैं।
गौरतलब है कि बैंकों के डूबते कर्ज और रसूखदार डिफॉल्टरों के खिलाफ सख्ती न होने के कारण पूरे बैंकिंग सिस्टम पर सवाल उठने लगे हैं। यहां तक कि आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन का भी दर्द बीते मंगलवार को बैंकिंग सिस्टम को लेकर निकल गया। उनके अनुसार देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) के 1.25 फीसदी के बराबर पूंजी बैंकों की कर्ज वसूली न होने से फंसी हुई है।
राजन का कहना है मौजूदा सिस्टम ऐसा है जिससे कंपनियां तो दिवालिया हो जाती हैं, लेकिन प्रमोटर अमीर बने रहते हैं। बड़ी कंपनियों के डिफॉल्ट और उसके प्रमोटरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई न होने से पूरे बैंकिंग सिस्टम को धक्का लगा है।
मीडिया में वित्त मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से प्रकाशित खबर के मुताबिक उसके पास करीब 400 बड़े विलफुल डिफॉल्टरों की सूची हैं। जिन्होंने जानबूझ कर बैंकों के कर्ज नहीं चुकाए हैं। इसके अलावा बैंक संगठनों ने भी में देश के 50 बड़े डिफॉल्टर की सूची वित्त मंत्रालय को सौंपी है। जिन पर करीब 40 हजार करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है।
सरकार को कारोबार के लिए मंजूरियों की अवधि में कमी और जमीन खरीदने की प्रक्रिया को आसान करने जैसे कदम उठाने होंगे।
कोई भी नया कारोबार शुरू होने के बाद सरकार को उसके लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर, ट्रांसपोर्टेशन जैसे सुविधाएं मुहैया कराने की ओर ध्यान देने की जरूरत है।
बाजार बम-बम है और संविधान लोकतंत्र डमडम है। डमडमाडम डमडम।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वैश्विक वित्तीय सेवा कंपनी एचएसबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार विदेशी संस्थागत निवेशकों ने नवंबर में एशियाई इक्विटी बाजार के प्रति भरोसा जताते हुए इस क्षेत्र में अब तक 5.3 अरब डॉलर का निवेश किया, जिसमें से भारत में 1.4 अरब डॉलर का निवेश किया गया। वित्तीय सेवा क्षेत्र की प्रमुख कंपनी एचएसबीसी के मुताबिक लगातार दो महीने की बिकवाली के बाद विदेशी संस्थागत निवेशकों ने एशियाई शेयर बाजारों के प्रति अपना भरोसा जताया और सभी बाजारों में नवंबर के दौरान पूंजी प्रवाह हुआ। एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में चीन सबसे लोकप्रिय बाजार के तौर पर शीर्ष पर रहा और भारत दूसरे नंबर पर।
जबकि सरकार उचित मूल्य प्राप्त करने के लिए कोल इंडिया और ओएनजीसी में अपनी हिस्सेदारी का विनिवेश दो किस्तों में करने की तैयारी कर रही है। ख़बर है कि कोल इंडिया और ओएनजीसी में हिस्सेदारी बिक्री की तारीख का फैसला बाजार स्थिति का अध्ययन करने के बाद किया जाएगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा ओएनजीसी में पांच प्रतिशत विनिवेश को मंजूरी दिए जाने की भी खबरें हैं। उम्मीद जताई जा रही है कि इससे सरकार को 11, 477 करोड़ रुपये मिल सकते हैं। वहीं कोल इंडिया की 10 फीसद हिस्सेदारी बिक्री से 15, 740 करोड़ रुपये प्राप्त होने की उम्मीद है।
सबकुछ बेच डाला। सब कुछ बिकने चला। लाइफ झिंगालाला।
26 नवंबर, 1949 में हमारे पुरखों ने भारतीय संविधान के जरिये लोक गणराज्य भारत का निर्माण किया है, जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का खुलासा है तो राष्ट्र के लिए नीति निर्देशक सिद्धांत भी हैं। इस संविधान में प्राकृतिक संसाधनों पर राष्ट्र के अधिकार और जनता के हक हकूक के ब्योरे भी हैं। नागरिकों के लिए संवैधानिक रक्षाकवच भी हैं। संविधान दिवस मनाने का मतलब मुक्त बाजार में खतरे में फंसी नागरिकता और लोकतंत्र के साथ संविधान का प्रासंगिकता को बनाये रखने का जन जागरण अभियान है।
हामरे मित्र डा. आनंद तेलतुंबड़े खरी-खरी बातें करने के लिए बेहद बदनाम हैं। वे अंबेडकर परिवार के दामाद तो हैं ही, दलितों के मध्य उनकी जो विद्वता है और जो उनका स्टेटस है, उसके मद्देनजर अलग एक अंबेडकरी दुकान के मालिक तो वे हो ही सकते हैं, लेकिन मजा तो यह है कि अंबेडकर अनुयायियों को तेलतुंबड़े का लिखा बिच्छू का डंक जैसा लगता है क्योंकि वे अंबेडकर का अवदान सिर्फ आरक्षण और कोटा को नहीं मानते।
हमसे बिजनौर में एक अत्याधुनिक मेधावी छात्र ने कहा कि अंबेडकर बेहद घटिया हैं। हमने कारण पूछा तो उसने कहा कि अंबेडकर के कारण आरक्षण और कोटा है। उसके मुताबिक अंबेडकर ने ही वोट बैंक की राजनीति को जन्म दिया और आगे उसका कहना है कि जनसंख्या ही भारत की मूल समस्या है। उसके मुताबिक गैरजरुरी जनसंख्या से निजात पाये बिना भारत का विकास असंभव है।
ऐसा बहुत सारे विद्वतजन मनते हैं कि आदिवासी ही विकास के लिए अनिवार्य जल जंगल जमीन पर अपना दावा नहीं छोड़ते तो उनके सफाये के बिना विकास असंभव है। इंदिरा गाँधी ने तो गरीबी उन्मूलन का नुस्खा ही नसबंदी ईजाद कर लिया था और संजोग से नवनाजी जो कारपोरेट शासक तबका है इस देश का, देश बेचो ब्रिगेड जो है, उसकी भी सर्वोच्च प्राथमिकता गैर जरुरी जनसंख्या का सफाया है।
जैसा तेलतुंबड़े बार-बार कहते हैं कि इस संविधान का निर्माण और उपयोग शासक तबके के हितों में हैं, इसमें असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन जनता के लिए जो संवैधानिक रक्षा कवच हैं, जो मौलिक अधिकार हैं नागरिकों के, जो नीति निर्देशक सिद्धांत हैं, वे ही मौजूदा राज्यतंत्र के बदलाव के सबसे तेज हथियार हैं, इसे समझने की जरूरत है। मुक्तबाजारी कारपोरेट राजकाज नागरिकता, मानवाधिकार, नागरिक अधिकार, प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यता के विरुद्ध हैं, तो उसके प्रतिरोध की जमीन हमें लोकतंत्र और संविधान में ही बनानी होगी।
वोट बैंक का खेल तो पुणे समझौते के साथ शुरू हुआ, जिस पर मोहनदास कर्मचंद गाँधी के दवाव में अंबेडकर ने हस्ताक्षर किये थे और आरक्षण और कोटा की बुनियाद वहीं है, ऐसा बाकी लोग नहीं जानते तो अंबेडकर अनुयायी भी अंबेडकर की आराधना सिर्फ इसीलिए करते हैं।
क्या संविधान में अंबेडकर का अवदान का मतलब सिर्फ रिजर्वेशन और कोटा है?
जब तक इस देश के नागरिक नागरिकता, संविधान और लोकतंत्र के साथ बाबासाहेब के अवदान का वस्तुगत मूल्यांकन करने लायक नहीं होंगे, कयामत की यह फिजां बदलेगी नहीं।
जैसा तेलतुंबड़े का कहना है कि अलग-अलग समय एक ही मुद्दे पर अंबेडकर के विचार और अवस्थान बदलते रहे हैं, किसी उद्धरण के आधार पर अंबेडकरी आंदोलन चलाया जा नहीं सकता।
हमें अंबेडकर का भी मूल्यांकन करना चाहिए और उस संविधान का भी, जिसका निर्माता उन्हें बनाया गया है। संविधान के जिन प्रावधानों के तहत सैन्य शासन और आपातकाल की संभावना का यथार्थ है, उसे सही ठहराना लोकतांत्रिक होना नहीं है।
लेकिन कुल मिलाकर जो बाते सकारात्मक हैं संविधान में, उन्हें बदलकर उसके बदले मनुस्मृति शासन लागू करने की कारपोरेट कवायद का हम विरोध न करें तो यह हमारे वजूद के लिए विध्वंसकारी होगा।
इस देश में चूंकि नागरिकों को पुलिस सेना राजनीति और बाजार की इजाजत के लिए सांस लेने की भी इजाजत नहीं है, विशुद्ध भारतीय नागरिक की हैसियत से अस्मिता के आर-पार मानवबंधन संविधान दिवस के मार्फत बनाना असंभव ही है। हम न कोई राजनीतिक संगठन है और न अस्मिता के कारोबारी हैं हम और न कारपोरेटट ताकतें, बाजार और मीडिया के वरदहस्ते हैं हम पर, आम नागरिक की हैसियत से राष्ट्रव्यापी जनजागरण बतौर संविधान दिवस को लोक उत्सव बना देने का ख्याली पुलाव हम यकीनन नहीं बना रहे थे और न हम इसके लिए किसी कामयाबी या श्रेय का दावा कर रहे हैं।
O- पलाश विश्वास
पलाश विश्वास । लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।