बहुत घूम लिए विदेश में कुछ दिन तो गुजारिए देश में।
जब मोदी शरीफ के साथ मजबूत रिश्ते रख सकते हैं तो पाकिस्तान के साथ भारत की औपचारिक बातचीत क्यों नहीं हो सकती ?
नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रधान स्वयंसेवक ?
यह प्रश्न कुछ लोगों को बेहूदा लग सकता है मगर मोदी के बतौर प्रधानमंत्री अब तक के कार्यकाल को देखकर यही लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि आरएसएस के प्रधान स्वयंसेवक ही हैं। हालांकि 15 अगस्त को बाबर की औलादों के बनवाए हुए लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री की हैसियत से दिए गए अपने पहले संबोधन में ही मोदी ने भले ही देशवासियों से कहा हो कि वे प्रधान सेवक हैं, मगर उनकी कार्यप्रणाली खासकर विदेश यात्राओं के दौरान उनका आचरण साबित करता है कि वे प्रधान (स्वयं)सेवक ही हैं।
ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत की विदेश नीति बुरी तरह असफल साबित हुई है और जिस पाकिस्तान को सबक सिखाने की हुंकारें मोदी और उनका संघ कबीला भरता रहा है उस पाकिस्तान ने सार्क सम्मेलन में भारत को करारा झटका दिया है।
सार्क देशों में वैसे भी भारत को डर भरी नज़रों से देखा जाता है। ऐसे में भारत का बर्ताव सार्क देशों के साथ बिरादराना होना चाहिए था लेकिन समस्या यह है कि मोदी को भारत का नहीं बल्कि संघ का एजेंडा चलाना था, इसलिए दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) का 18वां शिखर सम्मेलन विफल हो गया।
मोदी की सबसे बड़ी विफलता तो यही है कि छोटे देशों की तरफ से चीन को सार्क का पूर्ण सदस्य बनाने की मांग उठी। निश्चित रूप से इसके लिए भारत के प्रधानमंत्री की अदूरदर्शितापूर्ण नीति ही जिम्मेदार है।
वैसे भी भारत एशिया में चीन से प्रतिस्पर्द्धा करने की क्षमता नहीं रखता है, इस तथ्य को मान लेने में क्या हर्ज है? लेकिन समस्या यह है कि संघ कबीला विदेश नीति को ढाल बनाकर देश की अंदरूनी राजनीति करता है और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि प्रधानमंत्री ने भी सार्क देशों की यात्रा के दौरान भारत के हितों की भयंकर अनदेखी करते हुए संघ के इस एजेंडे को ही आगे बढ़ाया। देखने वाली बात यह है कि मोदी तो सिर्फ कहते हैं कि उनके खून में व्यापार है जबकि चीन ने इसे साबित कर दिखाया है।
सार्क दक्षिण एशियाई देशों के बीच व्यापार का मंच है। जाहिर है कि भारत इस मंच का प्रयोग व्यापार के साथ-साथ राजनीतिक संबंध सुधारने के लिए कर सकता था और करना ही चाहिए था। लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा। कहां तो मंदबुद्धि भारतीय मीडिया मोदी और नवाज शरीफ के बीच संवाद न होने की खबरें तान रहा था उधर मोदी हँसते हुए शरीफ के साथ चित्र सामने आए।
अब यहीं सवाल उठता है जब मोदी शरीफ के साथ ऐसे मजबूत रिश्ते रख सकते हैं तो पाकिस्तान के साथ भारत की औपचारिक बातचीत क्यों नहीं हो सकती ?
.... और कूटनीतिक दृष्टि से मोदी के साथ शरीफ की उस हँसी का क्या मतलब है जब पाकिस्तान के विरोध के चलते मोदी के दो महत्वपूर्ण प्रस्ताव सम्मेलन में गिर जाएं। पाकिस्तान ने सार्क देशों के बीच लोगों की आवाजाही और माल परिवहन को बढ़ावा दिए जाने के करार पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। हालांकि ऐसा करके पाकिस्तान ने स्वयं अपने साथ भी न्याय नहीं किया, लेकिन मोदी इस सम्मेलन का उपयोग पाकिस्तान के साथ रिश्ते सहज करने के लिए कर सकते थे, जो उन्होंने नहीं किया क्योंकि उनकी निगाहें पाकिस्तान के जरिए भारत की अंदरूनी राजनीति पर लगी हुई थीं। जाहिर है पाकिस्तान ने मोदी की राजनीति को उनके ही अस्त्र से परास्त कर दिया है। अगर यह करार हो जाता तो आठ दक्षिण एशियाई देशों के बीच आवाजाही और माल परिवहन आसान होता, इसका सबसे बड़ा फायदा भारत को ही होता। जब आवागमन व व्यापार होता तो भारत व पाकिस्तान के रिश्तों में जो बर्फ जमी हुई है, वह जरूर पिघलती।
मजे की बात तो यह है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने कहे पर ही अमल करते नहीं दिखते हैं। मसलन उन्होंने सार्क सम्मेलन में आर्थिक मोर्चे पर सार्क देशों से प्रक्रिया सरल करने की मांग करते हुए कहा कि आपसी मतभेद विकास में बाधक हैं और इस वजह से हम आपस में क्षमता से काफी कम व्यापार करते हैं। ... और व्यवहार में स्वयं किया इसका उल्टा। मोदी को सार्क सम्मेलन में दिए अपने भाषण के इस अंश से स्वयं सीख लेने की आवश्यकता है- “सार्क देशों के साथ भारत का व्यापार काफी कम है। मेरा मानना है कि यह न तो ठीक है और न ही दीर्घकालिक है। एक अच्छा पड़ोस पूरी दुनिया की आकांक्षा है और विश्व में सामूहिक प्रयासों की सबसे ज्यादा आवश्यकता दक्षिण एशिया में है।“ लेकिन समस्या यह है कि मोदी शरीफ के रूप में अच्छा मित्र तो रखते हैं लेकिन पाकिस्तान के रूप में अच्छा पड़ोसी रखने की इच्छा नहीं रखते।
इतना ही नहीं, चीन और पाकिस्तान के अलावा भी यह सम्मेलन नेपाल के मसले पर भी मोदी के लिए चिंतन का विषय है। दरअसल अभी तक भारत की विदेश नीति गुटनिरपेक्षता की रही इसीलिए सारी दुनिया में भारत का मान-सम्मान रहा, लेकिन जबसे भारत ने अमेरिका का पिछलग्गू बनने की कोशिशें प्रारंभ की हैं, जिसे डॉ. मनमोहन सिंह ही अपने कार्यकाल में प्रारंभ कर गए थे और संघ कबीले के हिंदुत्व एजेडे के तहत मोदी ने तेजी से परवान चढ़ाया है, उससे भारत की विदेश नीति विफल हो रही है।
खबरें हैं कि मोदी अपनी अन्य विदेश यात्राओं की तरह नेपाल के मधेश क्षेत्र में जनकपुर में अपनी जनसभा करना चाहते थे, लेकिन नेपाल के माओवादियों ने उसमें यह कहकर अड़ंगा लगा दिया कि यहां इनका क्या काम है? इसके चलते मोदी का जनकपुर का दौरा रद्द हो गया।
दरअसल मधेश क्षेत्र में अपनी जनसभा करके मोदी नेपाल को पुनः हिंदू राष्ट्र बनाने के संघ कबीले के एजेंडे को अंजाम देना चाहते थे। मधेशियों से नेपाली माओवादियों के रिश्ते अच्छे नहीं रहे हैं लेकिन पिछले दिनों मधेशी संगठनों के साथ माओवादी नेता पुष्प कमल प्रचण्ड की 22 दलीय एक बड़ी जनसभा जनकपुर में हुई थी और मधेशी व माओवादी नज़दीक आए थे। इस जनसभा के जरिए मोदी इस गठबंधन को तोड़कर मधेशियों को राजतंत्र के पक्ष में करने की संघ कबीले का संदेश देने की इच्छा रखते थे।
जनकपुर की इसी सभा में मधेशी जन अधिकार फोरम नेपाल के अध्यक्ष उपेन्द्र यादव सहित मधेशी नेताओं ने जब यह कहा था कि जब तक प्रचण्ड जी हमारे साथ हैं, हम साथ रहेंगे, वह छोड़ देंगे तो हम भी प्रचण्ड जी को छोड़ देंगे, इस पर माओवादी नेता प्रचण्ड ने कहा था कि हम कभी भी मधेशी जनता को धोखा नही देंगें। हम किसी से नहीं डरते थे और न ही डरते हैं। अगर हम डर गये होते तो जनयुद्ध होता ही नहीं। प्रचण्ड ने कहा था कि मधेशी जनता को साक्षी रखकर 22 दल के नेतागण को कहना चाहूँगा कि हम तो आगे बढ़ चुके हैं, आप लोग मुझे मँझधार में नहीं छोड़िएगा ?
दरअसल मोदी प्रचण्ड को मँझधार में छोड़ने का ही इंतजाम करना चाहते थे, जो हो नहीं पाया।
विदेश यात्रा पर जाते वक्त मोदी को ध्यान रखना चाहिए कि वे आरएसएस के स्वयंसेवक की हैसियत से नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और एक संप्रभु राष्ट्र के प्रधानमंत्री की हैसिय़त से जा रहे हैं। लेकिन लगता है मोदी अभी चुनावी मोड से निकल नहीं पाए हैं या उन्हें यह यकीन ही नहीं हो पा रहा है कि वे भारत जैसे बहुविध संस्कृति वाले जहां कोस-कोस पर पानी बदले/ आठ कोस पर बानी है, उस मुल्क के प्रधानमंत्री बन गए हैं। अब बेहतर यही है कि हनीमून का वक्त भी समाप्त हो गया है, और यहां जनता सवाल भी पूछने लगी है इसलिए भाषण छोड़कर काम करना शुरू करें। बहुत घूम लिए विदेश में कुछ दिन तो गुजारिए देश में। प्रधान (स्वयं)सेवक जी अब चुनावी मोड से बाहर निकलिए, यकीन करिए आप 125 करोड़ की जनसंख्या वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। अब लालन कालेज के भ्रम से निकलकर प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार करिए। भारत के प्रधानमंत्री को सारी दुनिया में बहुत सम्मान के साथ देखा जाता है।
O- अमलेन्दु उपाध्याय
- अमलेन्दु उपाध्याय, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं। हस्तक्षेप.कॉम के संपादक हैं।