पिछले दिनों सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने काफी शिकायतों के बाद दो मनोरंजन चैनलों- सोनी और इमैजिन टी.वी को उनके कार्यक्रमों क्रमशः ‘बिग बॉस’ और ‘राखी का इंसाफ’ को नोटिस जारी करते हुए उन्हें रात में ११ बजे के बाद दिखाने का आदेश जारी किया. यही नहीं, न्यूज चैनलों को भी समाचार और अन्य कार्यक्रमों में इन दोनों टी.वी शो की क्लिपिंग्स न दिखाने की हिदायत दी. जैसीकि आशंका थी कि इस फैसले को चैनलों ने तुरंत मुंबई हाई कोर्ट में चुनौती दी जिसपर कोर्ट ने स्थगनादेश जारी कर दिया.

दो महीनों की जद्दोजहद के बाद आखिरकार कोर्ट की मध्यस्थता में यह फैसला हो गया है कि चैनल अश्लील और द्विअर्थी संवाद नहीं दिखायेंगे या गालियों आदि को बीप की ध्वनि के साथ दिखने के बजाय सम्पादित कर दिया जायेगा. इस तरह अश्लीलता, द्विअर्थी संवादों, गालियों और निजता के अधिकारों के उल्लंघन जैसी शिकायतों के बावजूद ये दोनों कार्यक्रम अपने नियत समय यानी ९ बजे रात्रि के प्राइम टाइम पर दिखाए जाते रहेंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस पूरे प्रकरण ने एक बार फिर चैनलों के नियमन यानी कंटेंट रेगुलेशन के व्यापक सवाल को उठा दिया है. इस प्रकरण ने यह साबित कर दिया है कि चैनलों के नियमन की एक स्वतंत्र, स्थाई, पारदर्शी, नियम आधारित और प्रभावशाली व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है.

ऐसी व्यवस्था नहीं होने के कारण न सिर्फ सरकार यानी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को मनमाने तरीके से निर्देश जारी करने का कानूनी अधिकार मिले हुए हैं बल्कि चैनलों को भी मनमानी करने और गलती करके भी बच निकलने का रास्ता मिला हुआ है. इसके अलावा यह व्यवस्था पूरी तरह से तदर्थ, अपारदर्शी और कुछ नौकरशाहों की मनमर्जी पर टिकी हुई है और चैनल इस तदर्थवाद की सीमाओं का पूरा फायदा उठा रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस तदर्थ व्यवस्था को बदलने और इसकी जगह एक नई और मुक्कमल व्यवस्था की मांग काफी सालों से हो रही है.

लेकिन चैनलों के दबाव और कुछ सरकार के अनमनेपन के कारण ऐसी स्वतंत्र, प्रतिनिधिमूलक, पारदर्शी, नियम आधारित और प्रभावी व्यवस्था आज तक नहीं बन पाई है. निश्चय ही, प्रसारण क्षेत्र के नियमन का मामला एक ऐसा क्लासिक मामला है जहां पिछले एक दशक से ज्यादा समय से नियमन की चर्चाओं, बहसों, कोर्ट और संसद के हस्तक्षेप और इस सम्बन्ध में कई विधेयकों के मसौदे तैयार करने के बावजूद सरकार आज तक नया कानून बनाने में नाकाम रही है.

निश्चय ही, यह ताकतवर और प्रभावशाली प्रसारकों की लाबीइंग की जीत है. यहां तक कि २००७ में यू.पी.ए सरकार ने भारतीय प्रसारण नियमन प्राधिकरण (बी.आर.ए.आई) विधेयक को कैबिनेट में पास करके भी संसद में पेश करने से पहले वापस ले लिया. इससे प्रसारकों की ताकत और पहुंच का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

लेकिन दूसरी ओर, यह भी उतना ही सच है कि खुद सरकार भी नहीं चाहती है कि ऐसी कोई पारदर्शी व्यवस्था बने जिसमें चैनलों को नियंत्रित करने के अधिकार उसके हाथ से निकाल जाएं. मौजूदा तदर्थ स्थिति का फायदा उठाकर सरकार प्रसारकों की लगाम अपने हाथ में रखना चाहती है जिससे उसे उनके साथ सीधे डील करने में कोई दिक्कत नहीं आए.

सरकार चाहे जिस रंग और विचारधारा की हो, वह राजनीतिक तौर पर प्रभावी मीडिया से सीधे डीलिंग और मोलतोल का स्पेस अपने पास रखना चाहती है. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों के अनुभव से यह भी स्पष्ट है कि सरकार नियमन के मुद्दे को एक ऐसे हथियार की तरह भी इस्तेमाल करती है, जिसे गाहे-बगाहे दिखाकर और उसकी चर्चा छेडकर प्रसारकों को डराने और अपने अनुकूल करने की कोशिश करती है.

असल में, प्रसारक खासकर बड़े चैनल समूह नियमन के पक्ष में नहीं है. उनका मानना है कि भारतीय चैनल कुछ अपवादों को छोड़कर बहुत संयमित और स्वस्थ मनोरंजन को बढ़ावा देते हैं. चैनलों के मुताबिक तमाम आलोचनाओं के बावजूद तथ्य यह है कि चैनल के कंटेंट में बहुतेरे सकारात्मक पक्ष हैं.

पहला, भारतीय चैनल सूचनाओं के विशाल भंडार है जो देश, दुनिया, विज्ञान, कला, स्वास्थ्य, बिजनेस और खेलों के बारे में दर्शकों को उपयोगी सूचनाएं पहुंचाते हैं. दूसरा, चैनल लोगों की जागरूकता बढ़ाने में लगे हैं जिसके कारण दहेज, बाल विवाह, जातियों, क्षेत्रों, भाषा और समुदाय के आधार पर भेदभाव जैसी कुरीतियाँ कम हो रही हैं. तीसरा, टी.वी उद्योग न सिर्फ नई प्रतिभाओं को आगे बढाता है बल्कि उसमें दसियों लाख लोगों को रोजगार भी मिला हुआ है.

वे यहीं नहीं रुकते. उनके मुताबिक, टी.वी की संस्कृतियों के भूमंडलीकरण में बहुत बड़ी भूमिका है और चैनलों के कारण आज भारत दुनिया भर में बहुत दिलचस्पी के साथ देखा जा रहा है. और पांचवें, चैनल एक अखिल भारतीय दृष्टिकोण से काम करते हैं और भारतीय दर्शकों की मनोरंजन सम्बन्धी विविधतापूर्ण जरूरतों करते हुए देश को उसी तरह जोड़ते हैं, जैसे भारतीय रेल. आप चाहें तो टी.वी उद्योग के इन दावों पर सवाल कर सकते हैं लेकिन चैनल इसी आधार पर नियमन का विरोध करते रहे हैं और उनका तर्क रहा है कि नियमन से टी.वी उद्योग की सृजनात्मकता, स्वतंत्रता, स्वायत्तता और विकास पर नकारात्मक असर पड़ेगा. इसके अलावा वे नियमन प्रयासों का इस आधार पर भी विरोध करते रहे हैं कि उनकी स्वतंत्र नहीं बल्कि सरकारी नियमन की कोशिश की जा रही है.

इन तर्कों और राजनीतिक दबाव के जरिये बड़े प्रसारक किसी स्वतंत्र नियमन को रोकने में कामयाब रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब प्रसारण एक उद्योग और बिजनेस है तो कौन सा ऐसा बिजनेस है जिसके नियमन की कोई स्वतंत्र और स्वायत्त व्यवस्था नहीं है? जाहिर है कि प्रसारकों के इस तर्क में कोई दम नहीं है कि प्रसारण क्षेत्र में कोई स्वतंत्र नियमन नहीं होना चाहिए. एक बिजनेस के तौर पर उनके नियमन के साथ-साथ लोगों के मानस को प्रभावित करने की उनकी क्षमता को देखते हुए यह नियमन और भी जरूरी हो जाता है.
(साहित्यिक पत्रिका 'कथादेश' के जनवरी अंक में प्रकाशित लेख का संशोधित संस्करण)