प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था एवं भाषा
प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था एवं भाषा
प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था एवं भाषा
Varn system and language in ancient India
भाषा के बारे में मार्क्सवादी चिंतन
Marxist thinking about language
भाषा के बारे में मार्क्सवादी चिंतन है कि ‘इसका निर्माण पूरे समाज के हितसाधन के लिए लोगों के पारस्परिक सम्पर्क-सूत्र के रूप में समाज के सभी सदस्यों के लिए हुआ है। पूरे समाज की एक भाषा होती है जो समाज के हर सदस्य का हितसाधन बिना उसकी वर्गीय स्थिति को ध्यान में रखे हुए करती है।’
खासकर स्तालिनवादी मार्क्सवाद को मानने वाले लोगों की यह मान्यता है कि भाषा विचारधारा से मुक्त होती है, लेकिन वास्तव में भाषा विचारधारा से न केवल गहरे स्तर पर जुड़ी होती है बल्कि यह उस विचार के वर्चस्व का साधन बन जाती है। भारतीय समाज के जीवनानुभव इस बात को काफी हद तक पुष्ट करते हैं। प्राचीन भारतीय समाज में वर्णों के आधार पर भाषा-विधान प्रसिद्ध है।
तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से निश्चित पता लगता है कि जातियों/वर्णों के अनुसार भाषा-विधान तथा व्यवहार प्रचलित था। शायद इसीलिए शताब्दियों तक साहित्य-जगत में प्राकृत को वह मान्यता और प्रतिष्ठा न मिली जो संस्कृत को प्राप्त थी, उल्टे उसका निरंतर तिरस्कार होता रहा।
प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मण अथवा श्रेष्ठ लोग संस्कृत का प्रयोग करते थे जबकि अन्य लोग प्राकृत। मार्कण्डेय के ग्रंथ में कोहल का मत है कि यह प्राकृत राक्षसों, भिक्षुओं, क्षपणकों, दासों आदि द्वारा बोली जाती है।
नाट्यशास्त्र और साहित्य दर्पण में बताया गया है कि राजाओं के अंतःपुर में रहने वाले आदमियों द्वारा मागधी व्यवहार में लाई जाती है। दशरूप का भी यही मत है। साहित्य दर्पण के अनुसार मागधी नपुंसकों, किरातों, बौनों, म्लेच्छों, आभीरों, शकारों, कुबड़ों आदि द्वारा बोली जाती है। नाट्यशास्त्र तक में बताया गया है कि मागधी नपुंसकों, स्नातकों और प्रतिहारियों द्वारा बोली जाती है। दशरूप में वर्णित है कि पिशाच और नीच जातियां मागधी बोलती हैं और सरस्वतीकण्ठाभरण का मत है कि नीच स्थिति के लोग मागधी प्राकृत काम में लाते हैं।
मृच्छकटिक में शकार, उसका सेवक स्थावरक, मालिश करनेवाला जो बाद को भिक्षु बन जाता है; बसन्तसेना का नौकर कुम्भीलक वर्द्धमानक जो चारुदत्त का सेवक है, दोनों चाण्डाल, रोहसेन और चारुदत्त8 का छोटा लड़का मागधी में बात करते हैं।
शकुन्तला नाटक में पृष्ठ 113 और उसके बाद, दोनों प्रहरी और धीवर, पृष्ठ 154 और उसके बाद शकुन्तला का छोटा बेटा सर्वदमन इस प्राकृत में वार्तालाप करते हैं।
प्रबोध चन्द्रोदय के पृष्ठ 28 से 32 के भीतर चार्वाक का चेला और उड़ीसा से आया हुआ दूत, पृष्ठ 46 से 64 के भीतर दिगम्बर जैन मागधी बोलते हैं।
मृच्छकटिक के पृष्ठ 29 से 39 तक में जुआघर का मालिक और उसके साथ जुआरी जिस बोली में बातचीत करते हैं, वह ढक्की है।
कहना होगा कि प्राकृत केवल जैन या बौद्ध सम्प्रदाय (पालि के रूप में) की भाषा न थी वरन् भील, कोल, शबर, दस्यु, चाण्डाल आदि से लेकर राजदरवार और रनिवासों तक में यह भाषा बोली जाती थी। आचार्य अभिनवगुप्त ने इसे अव्युत्पन्न (अनगढ़, ग्राम्य) जनभाषा कहा है।
संस्कृत चूंकि शिष्ट जनों की भाषा थी, इसलिए उसे सर्वश्रेष्ठ आसन प्रदान किया गया। अकारण नहीं है कि कई विद्वान प्राकृतों को कृत्रिम कहते हैं और संस्कृत को इसका मूल बताते हैं। इसके प्रमाण में मार्कण्डेय, चण्ड तथा हेमचन्द्र आदि की ‘प्रकृतिः संस्कृतम्’ उक्ति उद्धृत की जाती है। किंतु आज प्राकृत का मूल संस्कृत को बताना वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है, अथवा कहें कि भ्रमपूर्ण है।
संस्कृत के वैयाकरणों ने शब्दकोशों की भी रचना की है। इसलिए व्याकरण ग्रंथों की ही भांति शब्दकोश भी पुरानी लीक पर चलते नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, अपभ्रंश शब्द के लिए व्याकरण का सबसे पहला प्रयोग है-‘अपशब्द’। अमरकोश, विश्वप्रकाश, मेदिनि, अनेकार्थसंग्रह, विश्वलोचन, शब्दरत्नसमन्वय तथा शब्दकल्पद्रुम आदि कोशों में अपभ्रंश का अर्थ ‘अपशब्द’ एवं ‘भाषा विशेष’ भी मिलता है। मेदिनि तथा अन्य कोशों में भी दोनों अर्थ मिलते हैं पर अमरकोश में केवल ‘अपशब्द’ अर्थ है।
संस्कृत व्याकरणशास्त्र के प्राचीन आचार्य व्याडि का मत उद्धृत करते हुए भर्तृहरि ने कहा है कि ‘शब्द संस्कार से हीन शब्दों का नाम अपभ्रंश है’।
संस्कृत वैयाकरण इस तथ्य से अनजान न थे कि भाषा का स्वभाव ही अपभ्रंश है,15 पर वे ‘साधु भाषा’ के पक्षपाती थे। जो शब्द शिष्टजनों के द्वारा व्यवहृत नहीं होता वह ‘अवाचक’ है, ऐसे ही अवाचक शब्द जब प्रसिद्ध अथवा लोक प्रचलित हो जाते हैं तब वे अपभ्रंश हो जाते हैं। स्पष्ट है कि शिष्टजनों के द्वारा प्रयुक्त न होने से तथा इसीलिए संस्कारहीन होने से अव्यवहारणीय शब्दावली को अपभ्रंश कहते हैं।
महाभाष्य में अपभ्रंश का उल्लेख तीन स्थलों पर तथा अपशब्द का कई बार हुआ है।
महर्षि पतंजलि का अपशब्द से अभिप्राय व्याकरण के नियमों से पतित शब्द से है। प्रायः ‘म्लेच्छ’ लोग अपशब्दों का व्यवहार करते हैं इसलिए ब्राह्मणों को अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
महाभाष्य के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उस समय म्लेच्छ आदि आर्येतर जातियां तथा निम्न सामाजिक हैसियत प्राप्त जातियां शब्दों को ‘बिगाड़कर’ सहज प्रवृत्ति के अनुसार उनका उच्चारण करती थीं। शिष्ट भाषा के आग्रही वैयाकरणों/सिद्धांतकारों ने जब देखा होगा कि नीची जातियां भी एक शब्द के लिए कई ‘अप्रसिद्ध’ तथा शब्दानुशासन से हीन शब्दों का व्यवहार करती हैं तो उसे आर्य जाति और भाषा से गिरा हुआ, अपभ्रष्ट तथा अपभ्रंश कहा होगा। वैयाकरण इस बात से भलीभांति परिचित थे कि समाज में अपशब्दों का प्रचलन अधिक है और ‘शब्दों’ का व्यवहार कम है।
पतंजलि हमें स्पष्ट बताते हैं कि प्रत्येक शब्द के कई ‘अशुद्ध’ रूप होते हैं। इन अशुद्ध रूपों को आपने अपभ्रंश कहा है। उदाहरण के बतौर उन्होंने गौ शब्द को लिया है जिसके अपभ्रंश रूप गावी, गोणी, गोता और गोपोतालिका दिये हैं।
संस्कृत वैयाकरण जहां शिष्टों के प्रयोग से हीन भाषा को अपभ्रंश कहते हैं वहीं साहित्यशास्त्री अश्लील तथा ग्राम्यपदों को सदोष मानते हैं और काव्य में उनका निषेध करते हैं। स्पष्ट ही निम्नवर्गीय लोगों के शब्द-प्रयोग सुनने में बुरे लगते हैं और संभवतः इसीलिए वे काव्य में अनुचित माने जाते हैं। भोज ने भी कहा है कि लोक को छोड़कर और कहीं ग्राम्य प्रयोग नहीं चलते। अश्लील, अमंगल और घृणासूचक शब्दों को ग्राम्य कहते हैं।
ग्राम्यभाषा के प्रति शिष्टजनों की घृणा
Gentlemen's disgust against rural language
ग्राम्यभाषा के प्रति शिष्टजनों की जो घृणा है, उसको शूद्र शब्द के व्युत्पत्यर्थ निकालने के प्रयासों से भी समझा जा सकता है। सबसे पहले वेदांत सूत्र में बादरायण ने इस दिशा में पहल की थी। इसमें शूद्र शब्द को दो भाग में विभक्त कर दिया गया है-‘शुक’ (शोक) और ‘द्र’ जो ‘द्रु’ धातु से बना है और जिसका अर्थ बताया गया है दौड़ना। इसकी टीका करते हुए शंकर ने तीन वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत की है।
पाणिनि के व्याकरण में उणादिसूत्र के लेखक ने भी इस शब्द की कुछ ऐसी ही व्युत्पत्ति दर्शायी है। ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है तथा उसे औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई है। उसे ‘पतित’ बताया गया है। मनुष्यों में शूद्र एवं भाषाओं में अपभ्रंश समान रूप से ‘घृणित’ एवं ‘पतित’ हैं।
मनुस्मृति में शूद्रों के प्रति घृणा
Manusmriti hatred against Shudras
प्राचीन भारतीय समाज में शूद्रों के प्रति घृणा को चरम अभिव्यक्ति मिली मनुस्मृति में। हालांकि शूद्रों की सामाजिक स्थिति के बारे में मनु के नियम बहुत हद तक पुराने विधि-निर्माताओं के विचारों की पुनरुक्ति लगते हैं। कुछ नये नियम भी बनाये हैं। उन्होंने सृष्टि-रचना की पुरानी कथा दुहराई है, जिसमें शूद्र का स्थान सबसे नीचे है।
(डॉ राजू रंजन प्रसाद, का यह महत्वपूर्ण आलेख हस्तक्षेप पर January 24,2011 11:59 को प्रकाशित हुआ था। डॉ राजू रंजन प्रसाद, लेखक, इतिहासकार व कवि हैं। ‘प्राचीन भारत में प्रभुत्त्व की खोज: ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष के विशेष संदर्भ में’ (1000 ई. पू. से 200 ई. तक) विषय पर शोधकार्य हेतु सन् 2002-04 के लिए आइ. सी. एच. आर का जूनियर रिसर्च फेलोशिप मिला और मई, 2006 में शोधोपाधि। पांच अंकों तक ‘प्रति औपनिवेशिक लेखन’ की अनियतकालीन पत्रिका ‘लोक दायरा’ का संपादन। सोसायटी फॉर पीजेण्ट स्टडीज, पटना एवं सोसायटी फॉर रीजनल स्टडीज, पटना के कार्यकारिणी सदस्य।)
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Topics - Varn system and language in ancient India, Marxist thinking about language, Stalinist Marxism, Mrichchhkatik, Sanskrit Vyakarana, Sanskrit grammar, derivative of the word Shudra,


