ज़ुल्मतों के दौर में अपने-अपने झंडे को बचाना छोड़िए।
अभिषेक श्रीवास्तव

बगावतों के सिलसिले में बाग़ी फूलन को भूलिए नहीं, याद रखिए।
14 फरवरी बीत गई। किसी को एक बाग़ी की याद नहीं आई। उन्हें भी नहीं जो उसे अपना क्लेम करते फिरते हैं। ठीक 35 साल पहले फूलन देवी ने बेहमई काण्ड को अंजाम दिया था- 14 फरवरी, 1981 को। उसके ऊपर हुए जुल्म की इंतिहा ही थी कि उसने तमाशबीनों को भी नहीं बख्शा। जातिगत प्रतिशोध का इससे ज्यादा प्रामाणिक बयान आज़ाद भारत में मौजूद नहीं है।
आज जातिगत, वैचारिक और वर्गीय अन्याय सत्ता के सिर पर चढ़ कर बोल रहा है। रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद जिस किस्म का सामूहिक प्रतिरोध खड़ा हुआ था, वह अभूतपूर्व था लेकिन जेएनयू तक आते-आते ऐसा लग रहा है कि संघर्ष बंट गया है। एक तरफ वामपंथी मूर्खताएं हैं तो दूसरी ओर रोहित वेमुला को अपना शहीद बताने की बेचैनी और यह डर, कि वामपंथियों के चक्कर में कहीं यह उभार दलितों के हाथ से ही न जाता रहे। नतीजा यह हुआ है कि रोहित वेमुला और अफज़ल दोनों मिलकर वामपंथियों को डबल गिल्ट में डाले हुए हैं जबकि दलित ताकतें थोड़े अतिरिक्त आग्रह और बचाव के चलते राष्ट्रवाद की तरफ़ झुकती दिखाई दे रही हैं।
यह बिलकुल संभव है कि अफज़ल का मुद्दा रोहित वेमुला के संघर्ष से ध्यान बांटने के लिए उछाला गया हो, लेकिन उसके ठोस निहितार्थ भी मौजूद हैं। गिरफ्तारियां हो रही हैं, लोगों को देशद्रोही ठहराया जा रहा है, दिन के उजाले में अपहरण हो रहे हैं। क्या रोहित का संघर्ष इसे दूर से बैठ कर देखते रहता? कतई नहीं। ज़ुल्मतों के दौर में अपने-अपने झंडे को बचाना छोड़िए। प्लीज़, अपनी लड़ाई लड़िये लेकिन दूसरी लड़ाई को हल्का मत करिए। याद रखिए, फूलन देवी भले अनपढ़ थी, लेकिन माथे पर उसके भी लाल पट्टी ही बंधी रहती थी। बगावतों के सिलसिले में बाग़ी फूलन को भूलिए नहीं, याद रखिए।