फर्जी मामले और राज्यतन्त्र : कहाँ है न्याय?
फर्जी मामले और राज्यतन्त्र : कहाँ है न्याय?
राम पुनियानी
आतंकवाद से सम्बंधित मुकदमों में झूठे फँसाये गये युवकों को न्याय दिलवाने के गठित संगठन ‘‘रिहाई मंच’’ के कार्यकर्ता इन दिनों (जून 2013) मौलाना खालिद मुजाहिद की मौत के लिये जिम्मेदार पुलिस और आई.बी. कर्मियों के निलम्बन, आर. डी. निमेश आयोग की रपट को लागू किये जाने और आतंकी हमलों के सिलसिले में गिरफ्तार निर्दोष मुस्लिम युवकों को रिहा करने की माँग को लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। इस अभियान को मुस्लिम समुदाय के साथ-साथ, मानवाधिकार संगठनों का भी व्यापक समर्थन मिल रहा है। यह एक सामाजिक समूह की, असंवेदनशील और पूर्वाग्रहग्रस्त राज्यतन्त्र को सही राह दिखाने की कोशिश है। ‘‘रिहाई मंच’’ का उद्देश्य है कि सरकार पर समाज का दबाब बनाकर निर्दोष युवकों को न्याय दिलवाया जाये।
समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव सरकार का यह दावा रहा है कि वह मुसलमानों की जबरदस्त हितचिंतक है। यहाँ तक कि मुलायम सिंह यादव को मुल्ला मुलायम तक कहा जाता है। परन्तु समाजवादी पार्टी के उत्तरप्रदेश में सत्ता में आने के बाद से, राज्य में सरकार की नाक के नीचे जमकर सांप्रदायिक हिंसा हुयी है। अखिलेश यादव शासनकाल में अब तक 27 साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं। चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी ने यह वायदा किया था कि सत्ता में आने पर वह आतंकी हमलों में जबरन फँसाये गये मुस्लिम युवकों को रिहा करेगी। यह तो हुआ नहीं उल्टे, मौलाना खालिद मुजाहिद की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो गयी। इस घटना ने यादव सरकार के असली इरादों के बारे में गंभीर संदेह उत्पन्न कर दिये हैं। आर.डी. निमेश आयोग की रपट को लम्बे समय तक ठण्डे बस्ते में डालकर रखा गया और अब, जबकि, वह सार्वजनिक कर दी गयी है, उसे लागू करने का सरकार का कोई इरादा नजर नहीं आता। सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि विधानसभा के अगले सत्र में रपट पर चर्चा की जायेगी। तथ्य यह है कि सरकार को रपट पर कार्यवाही के लिये विधानसभा की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। यह काम मंत्रिमंडल के स्तर पर ही हो सकता है। आमजनों को डर है कि अन्य रपटों की तरह, यह रपट भी किसी सरकारी दफ्तर की पुरानी-सी अलमारी में धूल खाती रहेगी।
आशीष खैतान एक निहायत ईमानदार, प्रतिबद्ध और संवेदनशील पत्रकार हैं। उन्होंने एक वेबसाईट शुरू की है, जिसका नाम है ‘‘गुलेल’’। इस वेबसाईट पर उन्होंने निर्दोषों को फँसाने के प्रयासों से सम्बंधित रपटों को रखा है। अनेक पुलिस अधिकारियों ने अपनी कार्यक्षमता साबित करने के लिये निर्दोष युवकों को यह जानते हुये भी आतंकी हमलों के मामलों में अभियुक्त बना दिया कि उनकी उसमें कोई भूमिका नहीं है। कुछ ने यही काम उन पूर्वाग्रहों के चलते किया, जो हमारी कानून और व्यवस्था की मशीनरी के एक बड़े हिस्से के दिलो-दिमाग पर छाए हुये हैं। इन पूर्वाग्रहों के चलते, ये लोग ऐसा मानते हैं कि आतंकवाद से सिर्फ एक धर्म विशेष के युवक जुड़े हुये हैं। खेतान का मत है कि इस तरह के मामलों में अनततः सच के सामने आ जाने से भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तब तक सम्बन्धित व्यक्ति जेल में लम्बा समय बिता चुका होता है, पुलिसकर्मियों के हाथों घोर यन्त्रणा भोग चुका होता है और अखबारों व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए अपने समुदाय, अपने मोहल्ले, अपने रिश्तेदारों और अपने शहर में बदनाम हो चुका होता है। खेतान को उम्मीद है हमारी न्यायपालिका से और न्याय के लिये संघर्षरत विभिन्न सामाजिक समूहों से। उत्तर प्रदेश में वर्तमान में चल रहा धरना, समाज का ध्यान इस समस्या की ओर आकर्षित कर रहा है और लगभग दो सप्ताह से सामाजिक कार्यकर्ता और पीड़ित परिवारों के सदस्यगण इस धरने में भागीदारी कर रहे हैं। झूठे फँसाये गये युवकों के परिजनों का कहना है कि इससे सम्बंधित युवकों का भविष्य बर्बाद हो रहा है और कई मामलों में उन्हें अपने ही समुदाय के सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। इस दिशा में पहले भी कई प्रयास हो चुके हैं। हर बार कुछ समय के लिये हालात में सुधार आता है, जाँच एजेंसिया कुछ बेहतर बर्ताव करती हैं परन्तु जल्दी ही चीजें अपने पुराने ढर्रे पर लौट आती हैं।
उत्तरप्रदेश ही नहीं, पूरे देश में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की कथनी और करनी में अन्तर देखा जा सकता है। महाराष्ट्र में कांग्रेस ने चुनाव प्रचार के दौरान यह वायदा किया था कि सत्ता में आने पर वह सन् 1992-93 के मुंबई दंगों के सम्बंध में श्रीकृष्ण जाँच आयोग की रपट को लागू करेगी। परन्तु इस वायदे को आज तक पूरा नहीं किया गया है। एक के बाद एक नये-नये बहानों से कार्यवाही को टाला जा रहा है और दोषी पुलिस अधिकारी और राजनैतिक नेता, दंगों में उनकी भागीदारी के पुख्ता सबूत होने के बावजूद, अपने पदों पर बने हुये हैं। उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ है। समाजवादी पार्टी भी इस मामले में कोई अलग साबित नहीं हुयी है। आर.डी. निमेश आयोग ने अपनी रपट में पर्याप्त तथ्य और सबूत दिए हैं और उनके आधार पर दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की जा सकती है। परन्तु ऐसा नहीं किया जा रहा है। चाहे वह कांग्रेस हो या समाजवादी पार्टी, सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों का अल्पसंख्यकों को न्याय दिलवाने के मामले में रवैया अत्यन्त अवसरवादी है। जहाँ साम्प्रदायिक पार्टियाँ अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर डाका डालने को आतुर हैं और उनके साथ न्याय हो, इसमें ऐसे दलों की कोई रूचि नहीं है, वहीं धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का दोहरा चरित्र है। वे वायदे तो ढेर सारे करती हैं परन्तु उन्हें पूरा नहीं करतीं क्योंकि उन्हें यह डर होता है कि इससे उनके वोट बैंक को क्षति पहुँचेगी।
इस स्थिति के लिये कई अलग-अलग कारण जिम्मेदार हैं। पहली बात तो यह है कि धर्मनिरपेक्षता के मूल्य ही इन पार्टियों के पथप्रदर्शक नहीं हैं। उनका नीतियां और निर्णय कई अन्य कारकों से भी निर्धारित होती है। अगर सरकारें प्रतिबद्धता और दृढ़संकल्प से काम करें तो साम्प्रदायिक दंगों को रोकना संभव है। परन्तु ऐसा जानते-बूझते नहीं किया जाता। दूसरी समस्या है, राज्यतन्त्र, जांच एंजेसियों, पुलिस और नौकरशाही का साम्प्रदायिकीकरण। किसी भी आपराधिक मामले में असली दोषियों को पकड़ना कठिन होता है; किसी को भी पकड़कर उसे दोषी करार देना आसान। और यही रास्ता हमारे खाकी वर्दीधारी अपनाते हैं। यही कारण है कि विभिन्न दंगा जांच आयोगों की रपटों को किसी सरकार ने लागू नहीं किया। भिवंडी दंगों की जाँच के लिये नियुक्त मादोन आयोग से लेकर श्रीकृष्ण आयोग और लिब्रहान आयोग तक, अवसरवादी राजनैतिक नेतृत्व ने सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा नहीं दर्शायी और इन रपटों को लागू करने की कोशिश तक नहीं की।
बहरहाल, अब रास्ता क्या है। जहाँ साम्प्रदायिक ताकतें, धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने में जुटी हुयी हैं वहीं धर्मनिरपेक्ष समूहों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे न्याय और बराबरी के लिये खुलकर लड़ सकें। इसलिये यह जरूरी है कि समाज इस दिशा में सक्रिय हो। कई सामाजिक संगठनों ने इन मुद्दों को गंभीरता से लिया है और उनके द्वारा की गये पहल के अच्छे नतीजे भी सामने आए हैं। अचंभे की बात यह है कि वामपंथी पार्टियाँ, जिन्हें सैद्धान्तिक रूप से धर्मनिरपेक्षता के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा रखनी चाहिये, सामाजिक समूहों के प्रयासों से जुड़ नहीं रही हैं। अगर वे ऐसा करेंगी तो इससे कांग्रेस व समाजवादी पार्टी जैसे दलों पर इस बात के लिये दबाव बनेगा कि वे निष्ठापूर्वक अपने वायदों को निभायें और कर्तव्यों का निर्वहन करें।
न्यायपालिका और सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों के जरिए जबरन फँसाये गये अल्पसंख्यक युवकों को न्याय दिलवाने के प्रयासों को तेज किया जाना चाहिये। हमारे राज्यतन्त्र और प्रजातान्त्रिक ढाँचे में साम्प्रदायिक तत्वों ने घुसपैठ कर ली है और इससे हमारे संवैधानिक मूल्यों को गहरी क्षति पहुँची है। अब समय आ गया है कि एक राष्ट्र के रूप में हम आत्मचिन्तन करें और कमजोर वर्गों के प्रति पूर्वाग्रहों से मुक्ति पायें। न्याय और शांति के बगैर हमारा समाज और हमारा देश उन्नति नहीं कर सकता। अगर हमें सच्चे अर्थों में आगे बढ़ना है तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हिंसा की घटनाओं की जांच पूर्ण निष्ठा और निष्पक्षता से की जाये, सभी पीड़ितों को न्याय मिले और साम्प्रदायिक हिंसा पर कड़ाई से रोक लगाई जाये।
(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)


