यूपी को सरकार नहीं समाज सुधारक चाहिए

जगदीश्वर चतुर्वेदी

यूपी हर मायने में आज भी 17वीं शताब्दी के पहले की चेतना में जीता है, मध्यवर्ग से लेकर युवाओं तक, औरतों से लेकर संयासियों तक यूपी का मनोजगत 21वीं सदी का नहीं है, आज भी लोग जाति, गोत्र, सामाजिक शोहरत आदि पुराने मध्यकालीन रूपों में ही सोचते और देखते हैं।

जो लोग कहते हैं यूपी बदल गया है, मैं उनसे पहले भी असहमत था, आज भी असहमत हूँ। सवाल यह है यूपी के मनोजगत को बदलने के लिए हम-सबने कुछ तो किया नहीं, कोई विचारधारात्मक जंग नहीं लड़ी, कोई समाजसुधार की लड़ाई नहीं लड़ी, फिर आप कैसे उम्मीद लगाए बैठे हैं कि यूपी बदल जाएगा, कोई राज्य लैपटॉप-कम्प्यूटर-मोबाइल-इंटरनेट होने से नहीं बदलता।

हिंदी से प्रोफेसरों से लेकर विज्ञान के प्रोफेसरों तक सब ही जब जय बाबा भोले नाथ बोल रहे हैं तो आप सहज ही अंदाज लगा सकते हैं कि यूपी कितना बदला है।

आज भी यूपीवाले का हर मामले में संदर्भ सूत्र मध्यकालीन है, 21वीं सदी में मध्यकालीन संदर्भसूत्र में जीनेवाले समाज को जगाने के लिए पहले इस संदर्भ सूत्र को तो बदलो, फिर देखते हैं यूपी कैसा निकलता है।

21वीं सदी में यूपी में बर्बरता, संवेदनहीनता, कुसंस्कृति, कुसंस्कार चरम पर हैं, हम सब इसकी इनदेखी करके सिर्फ सरकारों को देख रहे हैं, सरकार बना रहे हैं, सरकार गिरा रहे हैं, इस या उस दल के पीछे भाग रहे हैं। यूपी का मामला सरकारों के आने जाने से भी ज्यादा गहरा है।

भाजपा के यूपी में सत्ता में आने से फासिज्म नहीं आएगा, फासिज्म का कच्चामाल तो भाजपा के सत्ता में आने पहले से ही बिखरा पड़ा है। इस माल को बनाने में गैर-भाजपादलों की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती, इन दलों ने जनता को मध्ययुग में ठेला है, मध्ययुगीनता के समूचे ताने बाने को पुख्ता बनाया है, भाजपा को तो उसका राजनीतिक लाभ मिला है।

भाजपा और गैर भाजपा दलों के राजनीतिक कार्यक्रम में अंतर है, लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक तौर तरीके एक जैसे हैं। मात्र राजनीतिक कार्यक्रम में अंतर के आधार समाज नहीं बदला जा सकता।

सपा-बसपा को सत्ता के लिए लोकतंत्र चाहिए लेकिन राजनीतिक शैली मध्यकालीन-क्रिमिनल है, उसमें अलोकतांत्रिक तत्व कूट-कूटकर भरे हुए हैं, वहीं दूसरी ओर भाजपा भी वही कर रही है जो सपा-बसपा करते रहे हैं, अनुकरण का अनुकरण करने की कला में माहिर है भाजपा। इन तीनों दलों का मर्म या सार एक है। यही हाल नौकरशाही का है।

यूपी में लंबे समय से विभिन्न जातियों और समुदायों में फिछड़ी चेतना के प्रचार-प्रसार के सैंकड़ों संतों-महंतों के राज्य में क्षेत्रवार केन्द्र बने हुए हैं जो 12 महिने पिछड़े हुए मूल्यों का आम जनता में प्रचार-प्रसार करते रहते हैं, इन संतों-महंतों को महान और पूजनीय बनाने में राजनेताओं की बड़ी भूमिका रही है। आज जरूरत इस बात की है कि आम जनता को पिछड़े मूल्यों और संस्कारों के बारे में सीधे शिक्षित किया जाय।

मजेदार बात है अखिलेश की सरकार ने कम्प्यूटर-लैपटॉप के प्रचार परजितना पैसा खर्च किया उसका दशांश भी सामाजिक चेतना पैदा करने वाले कामों पर खर्च किया होता तो समाज का भला होता। स्थिति यह है कि किसी भी पिछड़े मूल्य के खिलाफ राज्य सरकार ने कोई विज्ञापन तक नहीं निकाला। ऊपर से तुर्रा यह कि वे 21वीं सदी में यूपी को ले जा रहे हैं।

सड़कें, चमचमाती बिल्डिंगें हमारे विकास का आईना नहीं हो सकतीं, जब तक मूल्य व्यवस्था न बदलें, समाज नहीं बदलता, हम सड़कें बदलने को तैयार हैं लेकिन मूल्यबोध बदलने को तैयार नहीं हैं।