कश्मीर के सवालों का साम्प्रदायीकरण (Communalization of Kashmir questions) संघी और महासभाईयों ने शुरू किया था। शुरू के समय कश्मीरियत (Kashmiriyat) हिन्दू मुसलमान की निगाह से खुद को नहीं देख रही थी। इसीलिए नेहरू के धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व के प्रति अपने यकीन के चलते कश्मीरियों ने अपनी स्वायत्तता की गारंटी (Guarantee of autonomy) पर भारत का हिस्सा होना खुद चुना था। उन्हें पाकिस्तान से डर था कि सिंधी-पंजाबी मुसलमान (Sindhi-Punjabi Muslims) कश्मीर को नोंच खाएंगे।

धीरे-धीरे पाकिस्तानपरस्त और इस्लामिक तत्ववादियों ने कश्मीरी स्वायत्तता के प्रश्न को हरे रंग में रखना शुरू किया। और इस तरह धरती का स्वर्ग सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धा की भेंट चढ़ता चला गया। अब भी कश्मीर इसी दंश का शिकार है।

कश्मीरियों के प्रति हमदर्दी (Empathy towards Kashmiris) दिखाने वाले बहुत से लोग हैं जो उनके साथ जुल्मों को मुसलमानों के साथ जुल्म के तौर पर पेश कर रहे हैं।

इसी तरह कश्मीरियों की पीड़ा से आनंदित होने वाले लोग भी हैं जो हिंदुत्व की राजनीति (Politics of Hindutva) के नशे में डूबे हैं।

Madhuvan Dutt Chaturvedi मधुवन दत्त चतुर्वेदी लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। Madhuvan Dutt Chaturvedi मधुवन दत्त चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।

बेशक़, अब की सरकार के लिए हिन्दू मुसलमान का द्वेष स्ट्रांग कंसिडरेशन है पर सोल कन्सिड्रेशन नहीं है। प्राइम कन्सिड्रेशन तो संसाधनों की लूट का यार सरमायेदारों को मौका देना है।

नागालैंड आदि के हवाले से कुछ पूछ रहे हैं कि - यों तो नागालैंड भी भारत में है ? हाँ है, और वह संघियों की सत्ता में इसलिये नहीं बख्शा हुआ है कि वह हिन्दू बहुल हो। सत्ता इन्हीं लोगों के हाथ में रही तो नम्बर उसका भी आना है। बल्कि नम्बर तो उनका भी आना है जो आज कश्मीरियों की आहों पर वाह-वाह कर रहे हैं।

इसलिए नगरिक अधिकारों की कीमत पर देशभक्ति की बातें करने वाले मुगालते में हैं, चाहे सुप्रीम कोर्ट हो, पीसीआई हो, मिडिलक्लास की फैन्सी देशभक्ति हो या कोई और। फासिस्टों की क्रूर लूट और तबाही से कोई नहीं बचेगा।

मधुवन दत्त चतुर्वेदी