फिर बहस में समान नागरिक संहिता
हस्तक्षेप | आपकी नज़र यह समान नागरिक संहिता (uniform civil code) किस प्रकार का कानून होगा, इस पर अभी तक इसकी मांग करने वाले और इसके पक्षधर भी बता नहीं पा रहे हैं। जब कानून का प्रारूप सामने आए तो उस पर बहस और चर्चा की जाय। फिलहाल तो यह एक अस्पष्ट सी मांग है
यह समान नागरिक संहिता (uniform civil code) किस प्रकार का कानून होगा, इस पर अभी तक इसकी मांग करने वाले और इसके पक्षधर भी बता नहीं पा रहे हैं। जब कानून का प्रारूप सामने आए तो उस पर बहस और चर्चा की जाय। फिलहाल तो यह एक अस्पष्ट सी मांग है
Uniform Civil Code is again debated / Vijay Shankar Singh
समान नागरिक संहिता पर बहस (debate on uniform civil code) पुनः शुरू हो गयी है, पर समान नागरिक संहिता का प्रारूप क्या होगा और किस प्रकार से एक बहुलतावादी देश में नाना प्रकार के धर्मों, सम्प्रदाय, जाति, वर्ण, और क्षेत्र के बीच समानता के बिंदु खोजे जाएंगे, इस पर अभी सरकार का कोई प्रारूप नहीं आया है। हमारा संविधान इस मसले पर समान नागरिक संहिता की न केवल बात करता है, बल्कि नीति निर्देशक तत्वों के अध्याय के अनुच्छेद 44 में इसे लागू करने की भी सम्भावना बनाये रखता है। संविधान के भाग 4 जो राज्य के नीति निर्देशक तत्व के संदर्भ में हैं, के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि
"राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।"
समान नागरिक संहिता (Uniform civil code) का अर्थ होता है कि,
"भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान क़ानून होना चाहिए वह किसी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने (Adoption) से सम्बंधित क़ानून सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होगा।"
हालाँकि, देश में, विभिन्न धर्मों के अनुसार, इस तरह के मामलों के लिए वर्तमान में अलग-अलग कानून बने हुए हैं। जैसे, हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम आदि। इसके साथ ही, मुसलमानों के लिये मुस्लिम पर्सनल लॉ या मोहम्मडन लॉ, उनके धार्मिक ग्रंथ कुरआन और परम्पराएं यानी हदीस पर आधारित हैं।
लेकिन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम (यूके), संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस), ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि कई अन्य देशों में पहले से ही समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की तरह ही कानून बने हैं जो एक देश, एक कानून के सिद्धांत पर आधारित हैं।
What type of law would be the Uniform Civil Code
भारत में अक्सर समान नागरिक संहिता बनाये जाने और उसे लागू करने की बात अक्सर लोग करते रहते हैं औऱ भाजपा ने तो, इस बिंदु को अपने संकल्पपत्र में भी शामिल किया है तो उसकी प्रतिबद्धता है कि वह इस कानून को ड्राफ्ट कर उसे पारित कराए और लागू करे। लेकिन यह समान नागरिक संहिता किस प्रकार का कानून होगा, इस पर अभी तक इसकी मांग करने वाले और इसके पक्षधर भी बता नहीं पा रहे हैं। जब कानून का प्रारूप सामने आए तो उस पर बहस और चर्चा की जाय। फिलहाल तो यह एक अस्पष्ट सी मांग है।
फिर कैसे शुरू हुई समान नागरिक संहिता की चर्चा
समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की अचानक चर्चा दिल्ली हाईकोर्ट में दायर एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान फिलहाल शुरू हुई है। तलाक़ से जुड़े एक मुक़दमे की सुनवाई करते हुए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि,
"भारतीय युवाओं को विवाह और तलाक के संबंध में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में आपसी टकराव से उत्पन्न होने वाले मुद्दों से संघर्ष करने के लिए मजबूर होने की आवश्यकता नहीं है। आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे एकरूप होता जा रहा है। धर्म, समुदाय और जाति के पारंपरिक अवरोध धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। और इस प्रकार यूसीसी को मात्र नीति निर्देशक तत्वों का एक प्राविधान ही नहीं बने रहना चाहिए।"
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न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह ने 7 जुलाई को दिए गए अपने एक आदेश में कहा है कि,
"भारत के विभिन्न समुदायों, जनजातियों, जातियों या धर्मों के युवाओं को, जो विवाह आदि करते हैं, उन्हें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों, विशेष रूप से विवाह और तलाक के संबंध में, टकराव के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।"
इसका आशय यह है कि एक सरल और समान कानून ऐसे मामलों के संदर्भ में बनाया और लागू किया जाना चाहिए। अभी विभिन्न समाजो के लिये अलग अलग कानून हैं तो उनके रीतिरिवाजों और परंपराओं के ही आधार पर बने हुए हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट की उपरोक्त टिप्पणी, द हिन्दू मैरेज एक्ट 1955 की धारा 2 (2) के संदर्भ में प्रस्तुत एक कानूनी बिंदु के परीक्षण के समय की गई थी। मुकदमे का विवरण इस प्रकार है -
24 जून 2012 को राजस्थान के मीणा समुदाय के एक युगल ने विवाह किया और बाद में पति पत्नी में कुछ मतभेद हो गया। पुरूष (पति) ने हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 13 - 1 ( आईए ) के अंतर्गत तलाक़ के लिये निचली न्यायालय में एक मुकदमा 2 दिसंबर 2015 को दायर किया। महिला (पत्नी) ने तलाक की अर्जी को खारिज करने के लिए अदालत में यह तर्क दिया कि,
"एचएमए, 1955 के प्रावधान संबंधित पार्टियों पर लागू नहीं होते क्योंकि वे राजस्थान में एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति (मीणा) के सदस्य हैं। इसलिए एचएमए, 1955 धारा 2 (2) के मद्देनजर उक्त पार्टियों के मामले में लागू नहीं होगा।"
इस आवेदन पर फ़ैमिली कोर्ट द्वारा सुनवाई की गयी और फैमिली कोर्ट ने तलाक की अर्जी को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि,
"एचएमए, 1955 के प्रावधान मीणा समुदाय तक विस्तारित नहीं हैं, जो एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति है।"
यानी मीणा आदिवासी समाज के विवाह और विवाह विच्छेद के अपने सामाजिक नियम कायदे और कानून हैं जो हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 के अंतर्गत उनको आच्छादित नहीं करते हैं।"
उस व्यक्ति ने फैमिली कोर्ट द्वारा व्याख्यायित इस कानूनी बिंदु को दिनांक 28 नवंबर 2020 को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस प्रकार हिन्दू होते हुए भी मीणा समुदाय, अपनी सामाजिक विशिष्टता के कारण हिन्दू विवाह अधिनियम (एचएमए) 1955 की धारा 2 (2) के तहत इस कानून के बाहर है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती देने और निचली अदालत के फैसलों को रद्द करने की अपील स्वीकार कर ली और यह कहा कि,
"अपील की अनुमति है। फैमिली कोर्ट का फैसला कानून के आधार पर टिकाऊ नहीं है अतः तदनुसार उसे रद्द किया जाता है। ट्रायल (फैमिली) कोर्ट को एचएमए, 1955 के 13-1 (ए) के तहत याचिका का निस्तारण, मुक़दमे के गुणदोष (मेरिट) के आधार पर सुनवाई करने और छह महीने के अंतर्गत तदनुसार निर्णय देने का निर्देश दिया गया।"
अदालत ने 1985 के ऐतिहासिक शाह बानो मामले के संदर्भ में, समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का उल्लेख करते हुए, कहा,
"संविधान के अनुच्छेद 44 में व्यक्त नीतिगत प्राविधान, कि,
"राज्य अपने नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुनिश्चित करेगा," केवल एक नीतिगत अनुच्छेद ही नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे व्यवहारिक रूप से एक कानून बना कर लागू भी करना चाहिए।"
शाह बानो मामले में, शीर्ष अदालत ने भी, कहा था कि
"एक समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति असमान निष्ठा को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य में मदद करेगी। यह भी देखा गया था कि राज्य पर देश के नागरिकों के लिए यूसीसी लागू करने का एक संवैधानिक दायित्व भी है।"
अदालत का यह तर्क सही है कि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-समय पर यूसीसी की आवश्यकता और उसके प्रति राज्य की संवैधानिक प्रतिबद्धता को बार बार इंगित किया गया है, हालांकि, "यह स्पष्ट नहीं है कि, समान नागरिक संहिता का क्या प्रारूप होगा और सरकार कैसे अनुच्छेद 44 की मंशा को विधिक रूप से पूरा करने में सफल होगी।
क्या था शाहबानो का मुकदमा
शाहबानो का मुकदमा एक बहुचर्चित मुकदमा था जिसमें तलाकशुदा महिला शाहबानो को उनके पति ने धारा 125 सीआरपीसी के अंतर्गत भरण पोषण का खर्च देने से मना कर दिया था। शाह बानो एक 62 वर्षीय मुसलमान महिला और पाँच बच्चों की माँ थीं जिन्हें 1978 में उनके पति ने तालाक दे दिया था। मुस्लिम पर्सनल कानून के अनुसार पति पत्नी की मर्ज़ी के खिलाफ़ ऐसा कर सकता है। अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण शाह बानो पति से गुज़ारा लेने के लिये अदालत पहुचीं। उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते मामले को सात साल बीत चुके थे। न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय लिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो। न्यायालय ने निर्देश दिया कि, शाह बानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाय।
कुछ रूढ़िवादी मुसलमानों के अनुसार यह निर्णय उनकी संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप था। उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। तब उनके नेता और प्रवक्ता एमजे अकबर और सैयद शाहबुद्दीन थे। इन लोगों ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक संस्था बनाई और सभी प्रमुख शहरों में आंदोलन की धमकी दी। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगें मान लीं और इस आधार पर 1986 में, सरकार ने, एक कानून पास किया जिसने शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। इस कानून के अनुसार,
"हर वह आवेदन जो किसी तालाकशुदा महिला के द्वारा सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत निपटाया जायेगा चाहे उपर्युक्त कानून में जो भी लिखा हो।"


