फिरोजा बेगम की याद के प्रसंग में काजी नजरुल इस्लाम और लव जिहाद
फिरोजा बेगम की याद के प्रसंग में काजी नजरुल इस्लाम और लव जिहाद
पलाश विश्वास
अभी तो खिला ही नहीं हूँ, महारण्य के अंधेरे में हूँ अभी अकेला दिशा खोज रहा।
अभी तो खेल ही शुरु हुआ नहीं है, न दर्शक दीर्घा में कोई है, न कहीं रेफरी कोई।
वक्त लेकिन मुट्ठी बंद रेत के किले की तरह रिसने लगा है अविराम।
हिंदी में फिरोजा बेगम के निधन और उनकी गायकी संबंधी जानकारी न मिलने की वजह से अंग्रेजी और बांग्ला संदर्भ सूचनाएं दे रहा हूँ। हिंदी योद्धो बोद्धागण माफ करें।
फिरोजा बेगम की गायकी और परंपरा पर लिखने की सोहबत मेरी नहीं रही है। बेहद बेसुरा हूँ न कान है संगीत बूझने लायक और न छंद ताल राग अनुराग की तमीज है।
बचपन में घर में संगीत शिक्षक होने के बावजूद सारेगामा में मेरा मन संयमित अनुसासित न हो सका तो अब भी संगीत प्रेमी नहीं हूँ किसी भी तरह। हालांकि मरी बहनें, भाई सुभाष और पत्नी सविता संगीत के रवींद्र नजरुल घराने के सान्निध्य में हैं। इसके बावजूद दूर द्वीप वासिनी फिरोजा के 84 साल की उम्र में चले जाने का सदमा इतना जोर का लगा है कि बिना लिखे मुक्ति भी नहीं है।
कल दिन भर शारदा फर्जीवाड़े के अपडेट्स में लगा रहा। सत्ता समीकरण, शक्ति संतुलन और भ्रष्टाचार के सौदर्यशास्त्र में मेरी कोई रुचि, जाहिर है कि नहीं है। लेकिन राजनीति और सत्ता की परत दर परत मुक्त बाजार में किस तरीके से जनविध्वंसी बारुदी सुरंगों में तब्दील है, उसकी तपिश शारदा फर्जीवाड़े के खुलासे के साथ साथ महसूस की जा सकती है। बशर्ते कि महसूस करने लायक दिलोदिमाग में खून पसीने की कमाई की फिक्र हो।
मुक्त बाजार के तंत्र यंत्र मंत्र और न्यूनतम सरकार और विनियंत्रित बाजार में कानून, न्याय प्रणाली, प्रशासन, रिजर्व बैंक, सेबी, ईडी, आयकर विभाग की नाकों तले उन्हीं के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष संरक्षण में दो लाख छियासी हजार एजेंटों के जरिये मेहनत कश दस लाख परिवारों का सर्वस्वहरण करके जो बीस हजार करोड़ रुपये की लूट और बंदरबांट हुई है और ऐसी ही जो सैकड़ों लिस्टेड अनलिस्टेड देशी विदेशी कंपनियां नाना प्रकार से भारतीय जनगण का रोजाना श्राद्धकर्म कर रही हैं मोक्ष इंतजाम सहकारे, उसे समझने का आसान मौका उनके लिए भी है जो अर्थशास्त्र और राजनीति नहीं समझते।
आज सुबह शारदा समूह के ही एक संगीत चैनल पर एपार बांग्ला ओपार बांग्ला का साझा स्मरण का मौका था फिरोजा बेगम का। लिलि इस्लाम गीतों के जरिये तो सुतपा कविताओं के जरिए नजरुल रावींद्रिक विरासत की गंगा यमुना में बह रही थीं। किनारा तोड़तीं यह विरासत नदी मुझे भी किंचित बहने के मोड में डाल गयी है।
वैसे साफ-साफ कहना जरूरी है कि मैं कोलाहल के कवि नजरुल को जितना आत्मसात करता रहा हूँ, उतना रावींद्रिक कभी नहीं रहा।
रवींद्र के गीतांजलि से आवृत्ति के दो चार अवसरों के अलावा मेरे शिशुमन में कोई रवींद्र स्पर्श नहीं रहा है कभी, जिसमें अक्षरज्ञान के साथ ही हमेशा अग्निवीणा के तार झनझनाते रहे हैं।
अधंरे में लालटेन की रस्सी और मिट्टी तेल की गंध में कीचड़ सने झोपड़ियों के मध्य हम कोलाहली कवि नजरुल के साथ अंधेरा चीरने के अभ्यस्त रहे हैं।
हिमाद्रिशिखर हमारे स्पर्श में था आजन्म और इसलिए हिमाद्रिशिखर को चुनौती देने वाले विद्रोही के मुकाबले अंतरतम का आध्यात्म हमारे लिए कोई तात्पर्य रखे, ऐसा कोई रसायन हमारे लिए था ही नहीं चूंकि तराई के जंगल मध्ये अस्पृश्य बहिष्कृत शरणार्थी कृषि उपनिवेशे जंगली फूल की तरह बिना महक के खिलने के संस्कार चूंकि बंगीय अभिजन विरासत के मुताबिक थी ही नहीं।
उसी काजी नजरुल इस्लाम के गीतों की पहचान, उनके गानेर पाखी के अवसान पर दिलोदिमाग से इतना मजबूर हूँ कि सुर ताल छंद राग गायकी के इस मायावी संसार में अनधिकार प्रवेश कर रहा हूँ।
काजी नजरुल धर्म के आर-पार थे तो फीरोजा ने भी विवाह एक हिंदू कमल दासगुप्त के साथ किया था, जो अखंड बंगाल के किंवदन्ती संगीतकार हैं और जिन्हें इस्लामी बांग्लादेश पलक पांवड़े पर बिठाये हुए है अब भी और बंगाल में उनका नामोल्लेख फिरोजा बेगम के अवसान के बाद हो रहा है।
हम संगीत के बारे में इतने अहमक हैं कि केएल सहगल, मन्नाडे, बेगम अख्तर, नूरजहां जैसे विशिष्ट स्वरों को छोड़कर अलग- अलग कंठ की पहचान नहीं कर सकते। किशोर कुमार और मोहम्मद रफी तो क्या लता और आशा को अलग- अलग चीन्ह नहीं सकते। हालत इतनी जटिल है कि लता और आशा की तस्वीरों को अलग करने में भी भूल हो जाती है।
लेकिन बचपन की स्मृतियों का कमाल है कि नजरुल के गीतों के मामले में फिरोजा बेगम से लेकर लिलि इस्लाम और रिजवाना वन्या तक को स्पर्श कर लेता हूँ।
नजरुल संगीते आसीना दूरद्वीपवासिनी होने के अलावा फिरोजा बेगम उस वक्त को याद करने का बहाना है, जहां लव जिहाद का उल्लेख नहीं हुआ कभी।
सही मायने में नजरुल उस संस्कृति के वाहक धारक भी हैं जो इस महाद्वीप की अखंड संस्कृति, उसकी साझा विरासत, उसका साझा भूगोल, साझा इतिहास है।
राजनीतिक सीमाएं, धर्मभेद, उपासना पद्धतियां, धर्मोन्माद के ध्रुवीकरण से जिन्हें मिटाया नहीं जा सकता।
मसलन कश्मीर में आय़ी बाढ़ ने बाकी देश से कश्मीर को जैसे जोड़ा है, वह अभूतपूर्व इसलिए है कि सब-कुछ उलट पुलट कर देने वाली प्रकृति के विरुद्ध खड़ी यह सीमेंट की सभ्यता है, जिसमें मनुष्यता की संधान असंभव है।
जैसे आपदाओं में दोनों कश्मीर एकाकार है, जैसे आपदाओं में भारत नेपाल, भारत बांग्लादेश और यहां तक कि भारत पाकिस्तान एकाकार हैं, उसी तरह संस्कृति, विरासत, इतिहास भूगोल में राजनीतिक सीमाओं के आर पार हम लोग अब भी एकाकर हैं जैसे हिमालय के ग्लेशियरों से निकलकर बंधी अनबंधी नदियां सारी राजनीतिक सीमाओं को तोड़कर समुंदर में जा मिलती हैं, वैसा ही महामानवसागर यह।
जोहरा सहगल के बाद फिरोजा बेगम के महाप्रयाण के अवसर पर उस साम्प्रतिक अतीत के आइने में अपने धर्मोन्मादी चेहरे को देखना भी जरूरी है, इसीलिए बेगम फिरोजा का यह अनधिकार स्मरण।
जोहरा, फिरोजा, नजरुल की मनुष्यता धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता और पहचान पर भारी है।
स्वतंत्र बांग्लादेश बनने के बाद नजरुल ढाका चले गये तो फिरोज और उनके पति कमल दासगुप्त तो बांग्लादेश बनने से पहले ही पूर्वी पाकिस्तान जा बसे थे।
दोनों राष्ट्रों का राष्ट्रीय गीत रवींद्रनाथ के जन गण मन और आमार सोनार बांग्ला जरूर है, रवींद्रनाथ को इस विभाजन की त्रासदी को सहना झेलना नहीं पड़ा। लेकिन इस विभाजन की त्रासदी में जीवंत टोबा टेकसिंह थे काजी नजरुल इस्लाम और शायद उनके गानेर पाखी के वजूद भी।
नजरुल विक्षिप्त हो गये थे, संक्षिप्त रचनाकर्म के बाद लेकिन सीमाओं के आर- पार फिरोजा बेगम के कंठ में एकसाथ ध्वनित हो रहे थे रवींद्र और नजरुल संगीत।
फिरोजा जैसे सीमाओं के आर-पार समान रूप में जीती रहीं, जैसे जीती रहीं जोहरा सहगल, वैसा लेकिन बेगम अख्तर, गिरिजा देवी या नूरजहां के साथ नहीं हो सका क्योंकि पाकिस्तान जन्मलग्न से शत्रुदेश है।
लव जिहाद उसी शत्रुदेश का रसायन है जो देश के भीतर गाजापट्टियों का निर्माण कर रहा है। दूसरी तरफ गंगा जमुनी तहजीब का प्रेमकथा यह भी कि नजरुल जोहरा फिरोजा नर्गिस मधुबाला शर्मिला टैगोर जैसी अनगिनत नारियां हैं, जिन्होंने कला, संगीत और अप्रतिम सौंदर्य के साथ धर्म और धर्मोन्माद को सिरे से गैर प्रासंगिक बना दिया है।
असंगीतीय कारण से फिरोजा बेगम को याद कर लेना हमारे दिलो दिमाग के मुक्त बाजार को समाज वास्तव के धरातल पर खड़ा करने के लिए बेहद जरूरी है, इसीलिए यह दुस्साहस। अभिजन संगीत प्रेमी संगीतज्ञ जनता विद्वतजन माफ करेंगे।
काजी नजरुल और फिरोजा का यह प्रसंग हाल में लिखे मेरे कविता विधा केंद्रित रोजनामचे को समझने के लिए भी प्रासंगिक है।
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