फिलिस्तीन दिखता है कश्मीर नहीं
फिलिस्तीन दिखता है कश्मीर नहीं

समर अनार्या
19 जनवरी 1990.
हमले तो अरसे से जारी थे पर ठीक पहले की रात क़यामत थी.
सारी रात कश्मीरी पंडितों को धमकियाँ दी जाती रहीं थीं कि या घाटी छोड़ो, या मजहब बदलो, या मारे जाओ.
केंद्र में भाजपा के समर्थन से चल रही वीपी सिंह सरकार थी. सूबे में राष्ट्रपति शासन था- राज्यपाल जगमोहन के हाथ में पूरी सत्ता थी.
जगमोहन ने पंडितों को सुरक्षा मुहैया कराने से साफ़ इनकार कर दिया। पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी.
कश्मीरी पंडित भी भाजपा की चुनावी राजनीति का मुद्दा बने। भाजपा सत्ता में आयी- तो जगमोहन अटल सरकार में मंत्री!
हिसाब तो खैर यहाँ सेकुलर-लिबरल खेमे का भी ठीक नहीं है.
फिलिस्तीन के लिए लड़ने में सबसे आगे रहने वाली हमारी क़तारों से कश्मीर कहो और सबको साँप सूंघ जाता था.
जी, लेफ्ट-लिबरल खेमे से कश्मीरी पंडितों का विस्थापन और जाति का सवाल- दोनों हल हुए नहीं, दोनों पे ये बगलें झांकते रहे और नीचे से जमीन सरकती रही.
एक पर दलित-बहुजन जनता के बढ़ते अविश्वास के कारण, दूसरे पर संघ की शानदार मेहनत के- देखिये इन तुष्टीकरण वालों को- फिलिस्तीन दिखता है कश्मीर नहीं।
पर अभी लेफ्ट को छोड़िये! सवाल तो असली ठेकेदारों से ठहरा.
केंद्र और काश्मीर दोनों में ढाई साल से मोदी/भाजपा सरकार है. चुनाव जीतने के पहले मोदी जी दिन में तीन बार कश्मीरी पंडितों की घर वापसी कराते थे. अभी ढाई साल में कितने लौटे वादी में? बाकी चाहें तो कुछ पूछ लें- तब आप कहाँ थे- 27 साल से विस्थापित हैं ढाई में क्या होगा- (27 में 9 माने एक तिहाई भाजपा सत्ता में थी- साढ़े छह साल वाजपेयी, ढाई मोदी), थेथरई पे कोई टैक्स थोड़े हैं!
मंदिर वहीँ बनायेंगे, कश्मीरी पंडितों की घर वापसी कराएंगे
दोनों की तारीख नहीं बताएँगे. भामाकीजे!
(समर अनार्या की फेसबुक वॉल से साभार)


