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बीते दो साल में जनतंत्र का हुलिया कैसे बदला ?
पवित्र किताब की छाया में आकार लेता जनतंत्र - 2

भारतीय लोकतंत्र: दशा और दिशा को लेकर चन्द बातें

– सुभाष गाताडे
गौरतलब है कि लोकतंत्र की भावी दशा एवं दिशा को लेकर खतरे के संकेत उसी वक्त़ प्रगट किए गए थे जब देश ने अपने आप को एक संविधान सौंपा था। संविधान सभा की आखरी बैठक में डॉ. अम्बेडकर की भाषण की चन्द पंक्तियां याद आ रही हैं, जिसमें उन्होंने साफ कहा था :

‘‘हम लोग अन्तर्विरोधों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे और सामाजिक-आर्थिक जीवन में हम लोग असमानता का सामना करेंगे। राजनीति में हम एक व्यक्ति - एक वोट और एक व्यक्ति- एक मूल्य के सिद्धान्त को स्वीकार करेंगे। लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे मौजूदा सामाजिक आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक लोग-एक मूल्य के सिद्धान्त को हमेशा खारिज करेंगे। कितने दिनों तक हम अन्तर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हैं ? कितने दिनों तक हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में बराबरी से इन्कार करते रहेंगे ।’’

जनतंत्र के मौजूदा स्वरूप को लेकर बेचैनी के स्वर आज की तारीख में ऐसे लोगों से भी सुनने को मिल रहे हैं जो संवैधानिक पदों पर विराजमान हैं, ऐसे लोग जिन्होंने अपने ज़मीर की बात को कहने का बार बार जोखिम उठाया है।
पिछले साल ‘राममनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यान’ में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के इन लब्जों को पढ़ते हुए यह बात अवश्य लग सकती है, जब उन्होंने कहा था :

‘एक  जनतांत्रिक समाज में, मतभिन्नता का स्वीकार एक तरह से बहुवचनी होने का आवश्यक अंग समझा जाता है। इस सन्दर्भ मे, असहमति का अधिकार एक तरह से असहमति का कर्तव्य बन जाता है क्योंकि असहमति को दबाने की रणनीति जनतांत्रिक अन्तर्वस्तु को कमजोर करती है।.. एक व्यापक अर्थों में देखें तो असहमति की आवाज़ों की

अभिव्यक्ति उन गंभीर गलतियों से बचा सकती है या बचाती रही है - जिनकी जड़ों को हम सामूहिक ध्रुवीकरण में देख सकते हैं - यह अकारण नहीं कि भारत की आला अदालत ने असहमति के अधिकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार - जिसे संविधान की बुनियादी अधिकार की धारा 19/1/ के तहत गारंटी प्रदान की गयी है - के एक पहलू के तौर पर स्वीकार किया है। ...आज की वैश्वीक्रत होती दुनिया में और ऐसे तमाम मुल्कों में जहां जनतांत्रिक तानाबाना बना हुआ है, असहमति को स्वर देने में नागरिक समाज की भूमिका पर बार बार चर्चा होती है और साथ ही साथ उसके दमन या उसे हाशिये पर डालने को लेकर बात होती है।’’

उन्होंने यह भी कहा कि

असहमति और विरोध के लिए और कोईभी बात उतनी जानलेवा नहीं दिखती जितना यह विचार कि सभी को बाहरी एजेण्डा तक न्यूनीकृत किया जा सकता है .. यह विचार कि जो मेरे नज़रिये से इत्तेफाक़ नहीं रखता वह किसी दूसरे के विघटनकारी एजेण्डा का वाहक  है, अपने आप में घोर गैरजनतांत्रिक विचार है। वह नागरिकों के प्रति समान सम्मान से इन्कार करता है क्योंकि वह उनके विचारों के प्रति गंभीर होने की जिम्मेदारी से आप को मुक्त कर देता है। एक बार जब हम असहमति के स्त्रोत को विवादित बना देते हैं फिर उनके दावेां की अन्तर्वस्तु पर गौर करने की आवश्यकता नहीं रहती .. इसका असहमति पर गहरा प्रभाव पड़ता है।’

निश्चित तौर पर हम सबकी चिन्ताओं का केन्द्र, उनका फोकस हमारे इर्दगिर्द प्रगट होते जनतंत्र के ताज़ा संस्करण से संबंधित है, जिसके बारे में देश के कर्णधारों द्वारा यही कहा गया है कि वह ‘पवित्र किताब की छाया में आकार ले रहा है।’
याद करें कि जनाब मोदी ने जब 2014 में सत्ता की बागडोर संभाली थी तो संसद् भवन में प्रवेश करते हुए उन्होंने उसकी पहली सीढ़ियों का वंदन किया था और यह ऐलान किया था कि उनके लिए संविधान ही अब सबसे पवित्र किताब है - गोया वह अप्रत्यक्ष तौर पर यह कहना चाह रहे हों कि उनके अतीत को लोग अब भूल जाएं। हम याद कर सकते हैं कि ऐसे कई लोग जो मोदी के विश्वदृष्टिकोण से इत्तेफाक नहीं रखते थे और उन्होंने उनके खिलाफ वोट भी दिया था, उन्हें भी यह उम्मीद थी कि वाकई एक नयी शुरूआत हो रही है।
विडम्बना ही है कि लोग अक्सर भूल जाते हैं कि पवित्र की महज पूजा होती है और उसका अनुकरण नहीं किया जाता।
प्रश्न उठता है कि यह ‘नयी शुरूआत’ कैसी रही ? इसे हम कैसे समझें ? एक तरीका यह हो सकता है कि हम जनाब मोदी के किसी घोषित आलोचक के हालिया किसी लेख को पलटें और जानें कि बीते दो साल में जनतंत्र का हुलिया कैसे बदला ? दूसरा तरीका यह हो सकता है कि हम अख़बार की कतरनों पर निगाह डालें और खुद समझें कि क्या शक्ल बन रही है ! मैं अख़बारों की कतरनों से निसृत होते इसी पसमंज़र को आप के साथ साझा करना चाहूंगा।

‘ फेंकुजी अब दिल्ली में हैं ? ’
Ahmedabad: Narsinhbhai Solanki, a supporter of Prime Minister Narendra Modi, has moved a local court demanding ban on a book published recently in Gujarati on the PM's alleged failure to fulfil promises made during the 2014 general elections. The litigant, who has objected to this publication, has also made Modi a party-respondent in the civil suit.
J R Shah, a resident of Paldi, has written a book titled, 'Fekuji Have Dilli Ma' (Fekuji is now in Delhi) and got it published by his own venture, J R Enterprise. The book allegedly talks about the promises that Modi had made during the campaign for the 2014 parliamentary elections.
http://timesofindia.indiatimes.com/city/ahmedabad/Ban-book-on-Modis-broken-promises/articleshow/52910549.cms
सभी जानते हैं कि मोदी सरकार ने कुछ वक्त़ पहले अपनी हुकूमत के दो साल पूरे किए और उसे लेकर पूरे भारत में जश्न मनाया। कई सितारों, सेलेब्रिटीज को आमंत्रित किया गया था। छह घंटा तक चले इस कार्यक्रम को राष्ट्रीय दूरदर्शन ने सजीव प्रसारण किया था। तयशुदा बात है कि उसमें कई हजार करोड़ रूपए खर्च किए गए होंगे। मुझे यह मालूम नहीं कि आखिर दो साल की ऐसी क्या उपलब्धियां थी जिन्हें लेकर ढिंढोरा पीटा जाना जरूरी था ?
बहरहाल, यह वही वक्त़ था जब स्वराज्य अभियान की याचिका पर हस्तक्षेप करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा था कि देश के लगभग तीस फीसदी भाग में सूखा पड़ा है और सरकार कुछ नहीं कर रही है। इतना ही नहीं उसने इस बात को आधिकारिक तौर पर स्वीकारा तक नहीं था कि सूखे की व्यापकता इतनी अधिक है, उसे लेकर ठोस कदम उठाने की बात तो दूर रही।

कोई भी सोचता कि क्या तो अच्छा होता कि कुछ वक्त पहले आला अदालत द्वारा अपनी कर्मण्यता को लेकर झाड़ खा चुकी सरकार ऐलान करती कि चूंकि मुल्क में सूखा पड़ा है, लिहाजा हम अपने समारोहों को स्थगित कर रहे हैं। उसका एक सकारात्मक असर होता। लोग सोचते ‘देर आए, दुरूस्त आए’। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उतने ही गाजेबाजे के साथ दो साल की उपलब्धियां गिनायी गयीं, अलग-अलग राज्यों में केन्द्रीय मंत्रियों को भेज कर राज्य स्तर पर भी इस बखान को दोहराया गया। और जहां तक भारत के इतने बड़े हिस्से में सूखे की बात है, तो उसे लेकर कदमताल जारी रहा।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा फूड कमीशनर के दफतर के लिए प्रमुख सलाहकार के तौर पर नियुक्त किए गए बिराज पटनाईक का साक्षात्कार इस मामले में आंखें खोलने वाला है, जिसमें वह बताते हैं कि आला अदालत द्वारा इस मामले में स्पष्ट तथा सख्त निर्देश के बावजूद सूखाग्रस्त इलाकों में जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं हुआ है। /(http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/despite-sc-directions-nothing-has-happened-to-help-drought-victims-biraj-patnaik-2853743)
गौरतलब है कि 2013 में बने नेशनल फूड सिक्युरिटी एक्ट अर्थात् राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा अधिनियम तक पर अमल तक शुरू नहीं किया गया है। सत्ता की बागडोर संभालने के बाद भाजपा/राजग की सरकार ने तीन दफा इस अधिनियम को लागू करने की डेडलाइन आगे बढ़ा दी। ऐसा महज संसद की स्वीकृति से ही संभव है, मगर इसे कार्यपालिका की कार्रवाई के तहत अंजाम दिया गया।
जाहिर है कि इसने सूखाग्रस्त इलाकों में भूख की समस्या को बढ़ाया है। अगर अधिनियम जब से बना तबसे लागू किया गया होता तो ग्रामीण आबादी के लगभग 75 फीसदी के पास तक अनाज पहुंचाने की प्रणालियां कायम हो चुकी होती। बिराज पटनायक के मुताबिक राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा अधिनियम को लागू करने का कुल बजट 15,000 करोड़ रूपए है, जबकि केन्द्र सरकार ने उसके लिए अभी तक महज 400 करोड़ रूपये ही आवंटित किए हैं। पिछले साल इसकी पायलट स्कीम अर्थात शुरूआती प्रायोगिक योजना पर उसने 438 करोड़ रूपए खर्च किए थे, जो इसी बात को रेखांकित करता है कि किस तरह वह इस योजना को हल्का करने की फिराक़ में है।
……. जारी……..

(डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल स्मृति व्याख्यान में प्रस्तुत मसविदा, 26 जून 2016, कुरूक्षेत्र)

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