बगुलों के जिम्मे मछलियों की सुरक्षा
बगुलों के जिम्मे मछलियों की सुरक्षा
पलाश विश्वास
देहाती पिछड़े लालू यादव मीडिया के लिए हास्य और व्यंग्य के पात्र रहे हैं वैसे ही जैसे भोजपुर या किलसी भी लोक भूगोल की माटी में रचे बसे लोग। चारा घोटाले में लालू की जेल यात्रा की खबरों को मीडिया ने ऐसे ही पेश किया कि जैसे भारत की सरजमीं से भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट गया हो और सारे भ्रष्ट लोग जेल के सींखचों के पीछे हैं। अब बिहार के ही पूर्व मुख्यमंत्री और चारा घोटाले के सह अभियुक्त डा. जगन्नाथ मिश्र को इस घोटाले के दूसरे मामलों में बरी कर दिया गया गुपचुप तो मीडिया के सारस्वत पुत्र पुत्रियों की कैंची सी चलती जुबान बंद है। सत्ता में आते ही नैतिकता, विशुद्धता और मूल्यबोध के स्वयंभू देव देवियों की सरकार ने एक मुश्त सवा लाख फाइलें नष्ट कर दी हैं। जिस पर आज जनसत्ता में ज्ञानपीठ विजेता गिरिराज किशोर ने सवाल उठाये हैं।
इस सिलसिले में आगे कुछ कहना जरूरी नहीं है। केसरिया कारपोरेट अमेरिकी सरकार के लिए निजीकरण, विनिवेश, विनियंत्रण और विनियमन देश को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने का अभियान है। विदेशी निवेश की शक्ल में अर्थव्यवस्था के पोर-पोर में कालाधन भी वापस आ रहा है।
इसी सिलिसिले में मामले को समझने के लिए यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि चारा लालू ने नहीं खाया, लेकिन सरकार के मुखिया बतौर घोटाले के लिए दोषी वे ही हैं।
तमाम रक्षा घोटालों में अंतिम फैसला प्रधानमंत्रियों, वित्तमंत्रियों और रक्षा मंत्रियों की होती है और आप बताइये कि सरकारें भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भले बदल गयी हों, भले ही विश्व के कोने कोने से यशस्वी संवाददाताओं ने स्विस बैंक में जमा कमीशनखोरों के नाम बता दिये हों, आजतक किस ऐसे महामहिम को सजा दी गयी है या कम से कम उनके सत्ता में रहने या सत्ता से बोहर हो जाने के बाद भी कोई मुकदमा ही चला हो उनके खिलाफ।
हाल में कोयला और स्पेक्ट्रम घोटालों को लेकर बाहैसियत मुख्य विपक्ष केसरिया ब्रिगेड ने जमीन आसमान एक कर रखा था और उसी के प्रत्यक्ष समर्थन से मीडिया ने सारे बुनियादी मुद्दों को एकतरफ रखकर पिछले लोकसभा चुनावों को भ्रष्टाचार के खिलाफ नमोसुनामी में तब्दील कर दिया और इसमें राजनेता से लेकर संतों तक की अपरंपार महिमा रही।
इस सिलसिले में अविराम रामलीला के दो आख्यान बेहद लकप्रिय रहे। पहला कोयला घोटाला तो दूसरा स्पेक्ट्रम घोटाला।
अब सत्ता में आते ही कोयला आबंटन के किस्से को दरकिनार करके एक झटके से कोयला और दूसरे बेशकीमती खनिजों का निजीकरण कर दिये जाने का फैसला हो गया तो स्पेक्ट्रम का भी विनियंत्रण हो गया बिना नीतिगत कार्यकारी भूमिका के सिर्फ देशी विदेशी स्पेक्ट्रम कंपनियों को घाटे की हालत में क्षेत्र की मजबूत कंपनियों के साथ बिना सरकारी हस्तक्षेप के 2जी,3जी,4जी वगैरह वगैरह स्पेक्ट्रम शेयर करने की इजाजत देकर।
हूबहू वही हो रहा है जैसा प्राइवेटाइजेशन के बदले विनिवेश और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश माध्यमे निरंकुश देश बेचो अभियान का सिलसिला है निर्विरोध। जैसे सेज अब औद्योगिक गलियारा या स्मार्ट सिटी हैं। या जैसे ई कामर्स के बिजनेस टू होम मध्ये सिंगल ब्रांड एफडीआई मार्फते देसी कारोबार का बंटाधार और विदेशी कंपनियों की बहार।
संचार क्रांति सूचना क्रांति से जुड़ी है। सूचना का महत्व प्रतिरक्षा से कम नहीं है। क्योंकि सूचना से बड़ा कोई हथियार नहीं है। इंदिरा गांधी ने इसीलिए 1980 में सत्ता में वापसी के बाद सूचना नियंत्रण के लिए देश व्यापी टीवी नेटवर्क बना दिया तो उनके बाद उनके सुपुत्र सुपर कंप्यूटर और उच्च तकनीक का आयात करने लगे।
तेईस साल के मुक्त बाजार में आर्थिक सुधारों के लिए सूचना का जनता के विरुद्ध इस्तेमाल ही नहीं किया गया बल्कि इस नरसंहारी सुधार अभियान की हकीकत से लोगों को सिरे से अनजान बनाने के लिए सूचनाओं का कत्ल सरेआम होने लगा है। सवा लाख फाइलों का विनाश दरअसल सूचनाओं और तथ्यों का रक्तहीन कत्लेआम है।
गौरतलब है कि स्पेक्ट्रम क्रांति दरअसल सूचना क्रांति नहीं है और न तथ्य संप्रेषक है। हालांकि बहुआयामी मल्टीमीडिया मार्फते सूचान और तथ्यों को मनोरंजन में दब्दील कर देने की विशुद्ध यह तकनीक है जो डिजिटल भी है और डिजिटल देश के एफडीआई निजी और विदेशी कंपनियों के प्रजाजनों तक ईकामर्स का यह सबसे बड़ा रियल टाइम पोंजी नेटवर्क है।
इसे इस रपट से समझें कि भारत में लोग अपने स्मार्टफोन पर दिन में औसतन करीब 3 घंटे का समय बिताते हैं। ऐसे एक चौथाई उपभोक्ता एक दिन में अपने स्मार्टफोन को 100 से अधिक बार देखते हैं। एरिक्सन कंज्यूमर लैब की ताजा रिपोर्ट में ये तथ्य सामने आए हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, स्मार्टफोन के ज्यादातर नए उपभोक्ता सोशल वेबसाइट और चैट ऐप्स की वजह से स्मार्टफोन खरीद रहे हैं। हालांकि काफी समय से स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे लोगों का कहना है कि अब उनका स्मार्टफोन का इस्तेमाल सोशल नेटवर्किंग तक सीमित नहीं है।
24 प्रतिशत स्मार्टफोन उपभोक्ता व्हाटसऐप और वीचैट का उपयोग उत्पाद व सेवाएं बेचने और नए ग्राहकों तक अपनी पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से करते हैं।
स्पेक्ट्रम विनियंत्रण की यह प्राविधि भी मौलिक है। दरअसल स्पेक्ट्रम आबंटन कोयला आबंटन की तरह काजल की कोठरी है जिसमें उजले पवित्र चेहरों के काल दाग और हाथों पर लाल छाप एक झटके से सामने आ जाते हैं। स्पेक्ट्रम शेयरिंग के मार्फत भारत की सरकार और देशी विदेशी कंपनियों को इस बला से हमेशा के लिए छूटकारा मिल गया है। इस केसरिया सूचना क्रांति से टेलीकॉम कंपनियों की स्पेक्ट्रम की दिक्कत दूर होने वाली है।
जोहिर है कि टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) ने सभी तरह के स्पेक्ट्रम की शेयरिंग के लिए अपनी सिफारिशें जारी कर दी है। अगर टेलीकॉम विभाग ये सिफारिशें लागू करता है तो कंपनियां 2जी, 3जी, 4जी हर तरह का स्पेक्ट्रम शेयर कर सकेंगी।सिपारिशें भूखे बगुला भगतों की कमिटियों और आय़ोगों की तरफ से जारी की जाती है तो तमाम सरकारी एजंसियों की ओर से भी। जिसपर संसदीय कोई बहस होती नहीं है। कैबिनेट फैसला होता है। कभी कभार कैबिनेट फैसले भी नहीं होते, कार्यकारी अधिसूचना जारी करके सीधे संसद और मंत्रिमंडल तक को बायपास करके ये सिफारिशे लागू कर दी जाती है।यही मुक्तबाजारी राजकाज है।यही मुक्तबाजारी कारपोरेट केसरिया नीति निर्धारण है।
आज की डाक से समकालीन तीसरी दुनिया का ताजा अंक आया है, जिसमें बगुलों के जिम्मे मछलियों की देखभाल शीर्षक के तहत इस बगुला संस्कृति की परतें सांढ़ संस्कृति के प्रसंग में खोल दी गयी है। मुशर्रफ अली ने इस आलेख में जो लिखा है गौर करें-
नयी सरकार के गठन के बाद इन बगुला - आयोग, बगुला कमिटियों की जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है। अभी-अभी इसी तरह के एक बगुला आयोग की रिपोर्ट आयी है जिसकी अध्यक्षता एक्सिस बैंक के पूर्व एमडी व चेयरमैन व वर्तमान में मार्गन स्टेनले के चेयरमैन पी.जे. नायक ने की है। श्री नायक पूर्व नौकरशाह हैं और वित्तमंत्रालय में काम कर चुके हैं। चूंकि उनके वित्त मंत्रालय में संपर्क रहे हैं इसलिए निजी क्षेत्र ने उनकी इसी उपयोगिता को देखते हुए अपनी सेवा में रख लिया है और इसमें कोई शक भी नहीं है कि वह बखूबी सेवा कर भी रहे हैं। इन्हीं महोदय की अध्यक्षता में रिजर्व बैंक ने एक कमेटी बनायी और अब उसने बैंकों में सुशासन लाने, उसका मालिकाना तय करने व निदेशक मंडल को किसी भी राजनीतिक या बाहरी दबाव से मुक्त किये जाने की सिफारिश की। सरकारी बैंकिंग व्यवस्था को सधारने के लिए निजी क्षेत्र से सलाह लेना बिल्कुल वैसा ही है जैसे बगुलों से मछलियों के कल्याण की सलाह लेना।
मुशर्रफ साहेब के इस आलेख से बस इतना ही। बाकी पूरा लेख आप दुनिया मे ही पढ़ लें। हम जब फिर बैंकिंग के निजीकरण के प्राइवेट रोडमैप का सरकारी क्रियान्वयन के मुद्दे पर लिख पायेंगे तब इस आलेख की विस्तार से चर्चा करेंगे। विनिवेश के प्राइवेट रोडमैप का खुलासा तो हम लोग लगातार कर ही रहे हैं।
लेकिन इस अंक में भूटानी शरणार्थी समस्या पर आमुख होने और आनंद तेलतुंबड़े के दो दो आलेख, अभिषेक की सिंगरौली रपट की हम कतई चर्चा नहीं कर रहे हैं। वे जाहिर है कि मौजूदा मुद्दे के संदर्भ में नहीं हैं।
लेकिन स्पेक्ट्रम डीकंट्रोल पर आगे चर्चा से पहले इसी अंक में प्रकाशित मुशर्रफ अली के दो आलेखों की चर्चा मुद्दे को समझने के लिए जरूरी है।
पहलाः क्या सचमुच खजाना खाली है?
दूसराः यह चुनाव नहीं तख्ता पलट है।
कृपया इन दो आलेखों को केसरिया कारपोरेट सुदार राजसूय के कर्मकांड को समझने के लिए जरूर पढ़ें।
अब फिर स्पेक्ट्रम।
ट्राई ने नीलामी या बिना नीलामी का स्पेक्ट्रम शेयर करने की सिफारिश की है। ट्राई ने शेयरिंग पर 0.5 फीसदी स्पेक्ट्रम यूसेज चार्ज लगाने की सिफारिश की है। इस फैसले से स्पेक्ट्रम की कमी से जूझ रही एयरटेल, वोडाफोन, आइडिया जैसी बड़ी कंपनियों को फायदा होगा। साथ ही ऐसी कंपनियों को भी फायदा होगा जिनके पास स्पेक्ट्रम तो है लेकिन उनका यूजर बेस ज्यादा बड़ा नहीं है।


