विकास का मतलब ? केदारनाथ जल सुनामी! पूरे हिमालय पर धारा 370 लागू होने पर बिल्डर प्रोमोटर राज खत्म हुआ तो विकास बंद।
पलाश विश्वास
आदरणीय हिमांशु कुमार ने मुक्तबाजारी तिलिस्म खोलने वाली एक चीखती हुई कविता लिखी है। जो नीचे पूरी की पूरी दी जा रही है। आज का रोजनामचा इस कविता की सबसे मारक पंक्तियों के साथ शुरु कर रहा हूँ -

आपका विकास हो जाएगा तो आपके पास ज़्यादा पैसा आ जाएगा जिससे आप ज़्यादा गेहूँ, सब्जियाँ, ज़मीन वगैरह खरीद सकते हैं ?
हाँ जी।
क्या आपके लिए प्रकृति ने ज़्यादा ज़मीन बनाई है ?
नहीं जी सबके लिए बराबर बनाई है।
आप ज़्यादा ज़मीन लेंगे तो वो ज़मीन तो किसी दूसरे के हिस्से की होगी ना ?
हाँ बिलकुल।
यानी आपका विकास दूसरे के हिस्से का सामान हड़प कर ही हो सकता है ?
हाँ जी।
तो आपका विकास प्रकृति के नियम के विरुद्ध हुआ ना ?
हाँ बिलकुल।

विकास का मतलब ?
साल भर बाद भी केदारघाटी उतनी ही असुरक्षित है, जितनी हादसे के वक्त थी। भारतीय मीडिया के विपरीत तब बीबीसी ने पूरे पहाड़ का कवरेज किया था। अब भी केंद्र को चालीस चिट्ठियाँ लिखने के बावजूद मौसम की सही भविष्यवाणी के लिए अत्याधुनिक रडार नहीं मिले। हालांकि केदार जलप्रलय की सही भविष्वाणी केदार यात्रा अबाध रखने के लिए तब रद्दी की टोकरी में फेंक दी गयी थी। हादसे के बाद चारों धामों की यात्रा और कैलाश मानरोवर की यात्रा भी पूरा जोखिम उछाकर संपन्न करायी गयी। मौसम की भविष्यवाणी हो या खड़गसिंह वाल्दिया जैसे हिमालय विशेषज्ञों की चेतावनी, परवाह कौन करता है। पहाड़ के लोगों की जान माल की कोई कीमत ही नहीं ठहरी।
हमने हिंदी और अंग्रेजी में लिखा है कि हिमालय में मनुष्य और प्रकृति के संरक्षण के लिए धारा 370 सर्वत्र लगायी जाये। हमने पहाड़ के जनपक्षधर और आंदोलनकारी दोनों प्रकार के लोगों को या ईमेल से या उनकी बेशकीमती टाइम लाइन पर ये आलेख दाग दिये हैं। पहाड़ों में हावी केसरिया तत्वों ने मेहरबानी की है कि मुझे अभी राष्ट्रद्रोही घोषित नहीं किया है। बाकी पहाड़ पहाड़ चीखने वाले लोगों ने भी इस मांग पर गंभीरता से विवेचना तो दूर, इसका नोटिस भी नहीं लिया है।
विकास का मतलब ? केदारनाथ जल सुनामी! पूरे हिमालय पर धारा 370 लागू होने पर बिल्डर प्रोमोटर राज खत्म हुआ तो विकास बंद।
इस विकास से जो लोग मालामाल हैं वे जाहिरा तौर पर नहीं चाहते फिजूल जल जंगल जमीन के मुद्दे उठाकर विकास अवरुद्ध कर दी जाये। बाकी देश में भी अबाध पूँजी प्रवाह से जो लोग मालामाल है उनकी नजर में शाइनिंग इंडिया है, बाकी भारत है ही नहीं।
इसलिए देवभूमि में नरक यंत्रणा सी सजायाफ्ता जिंदगी जी रहे आम पहाड़ियों की गुमशुदा जिंदगी पर धारा 370 जैसे विवादास्पद मामले के संदर्भ में भी किसी बहस की शुरुआत नहीं चाहते लोग।
मुजफ्फरनगर कांड हो या पहाड़ के लोगों के दमन के दूसरे मामले ,न्याय अभी मिला नहीं है। राजधानी को लेकर राजनीति खूब है। सत्ता को शोयर करने की आपाधापी है। अपने-अपने हिसाब से विकास पुरुष तमगा देने लेने की बाजीगरी भी खूब है। तराई के खेती योग्य जमीन को कॉरपोरेट हवाले करके उत्तराखंड का विकास कितना हुआ और कितना रोजगार सृजन हो पाया,यह हिसाब किताब हुआ ही नहीं है। ऊर्जा प्रदेश सह देवभूमि बनाने की कवायद से पहाड़ों में अर्थव्यवस्था में आम पहाड़ी की हिस्सेदारी का क्य हुआ, इसका कोई गुणा भाग नहीं हुआ। इस अंधाधुंध विकास की मलाई कौन चाख रहे हैं और उनमें बिचौलियों के अलावा कितने पहाड़ी हैं, इसका भी कोई लेखा-जोखा नहीं है।
उत्तराखंड बनने से पहले अखंड यूपी के जमाने में पंडित गोविंद बल्लभ पंत और सीबी गुप्ता के जमाने से लेकर नारायण दत्त तिवारी और हेमवती नंदन के प्रेमरस पगे राजकाज में तराई के बड़े फार्मरों और भूमि माफिया की ही तूती बोलती थी। अलग राज्य बनने के बावजूद भी सत्ता, राजकाज और नीति निर्धारण में उन्हीं तत्वों के अलावा उत्तराखंड में व्यापक पैमाने पर सेंधमारी कर रही कॉरपोरेट कंपनियों की चांदी है।
न भूमि सुधार के लिए कोई पहल हुई और न राजस्व और कर प्रणाली में कोई सुधार हुआ। न आदिवासी इलाकों में संविधान और लोकतंत्र लागू है और न स्थानीय रोजगार सृजन की कोई दिशा खुली।
धर्म कर्म का दायरा जरूर बढ़ा। बढ़ा केसरिया वर्चस्व। नेताओं, अफसरों और बुद्धिजीवी वर्ग का तामझाम बढ़ गया। लालबत्तियों की आंधी शुरू हो गयी। न वन संरक्षण है और न पर्यावरण संरक्षण है। न श्रम कानून लागू है और न जमीन की डकैती पर रोक लगी है।
कमाओ और कमाने दो का तत्र मंत्र यंत्र है देवभूमि में जैसा हिमाचल में, वैसा ही उत्तराखंड में। कश्मीर में हिंदू कम हैं और देवभूमि में हिंदू ज्यादा। फर्क सिर्फ इतना है। बाकी कश्मीर से कोई बेहतर हालत नहीं है न हिमाचल में और न उत्तराखंड में। अखंड देव देवी स्तुति यज्ञ होम और योगाभ्यास से पहाड़ों की नियति नहीं बदलने वाली है।
तो जो विशेषाधिकार कश्मीर की जनता को हासिल है कि उनकी जल जंगल जमीन पर कोई बाहरी लोग कब्जा न करें, उनकी जीवन चर्या और संस्कृति में बाहरी हस्तक्षेप नहीं हो, जो धारा 370 के प्रावधान हैं, वैसा हम हिमाचल, उत्तराखंड और बाकी हिमालय के लिए क्यों नहीं मांगें।
मेरी समझ से लुटेरों से हिमालय और हिमालयी जनता और उनकी संस्कृति को बचाने का यही एकमात्र उपाय है।
देखें कि अब फिर केदार जलसुनामी की मीडिया बरसी का शोर है।
बाढ़, भूकंप और भूस्खलन पहाड़ों का रोजनामचा है। पहाड़ी तरह-तरह के हादसों में हमेशा मरते खपते रहे हैं। लेकिन किसी घटना की रस्म शायद पहली बार मनायी जा रही है क्योंकि मरने वाले लोगों में अबकी दफा देश के कोने-कोने से ज्योतिर्लिंग के दर्शन आराधन के लिए पहुंचे लोग भी हैं।
मीडिया का फोकस जैसे हादसे के वक्त भी पर्यटकों पर केंद्रित था, वैसा अब भी हूबहू वही हो रहा है। सरकार ने पर्यटकों के बचाव राहत के लिए यथासंभव करके उससे भी ज्यादा प्रयत्न करके केदारनाथ मंदिर के कपाट खोल दिये। स्थानीय लोगों, लापता गांवों और लगुमशुदा घाटियों की कोई खोज खबर नहीं हुई। हवाई उड़ानों के मार्फत लाइव कवरेज हुआ तो अखबारों और चैनलों को मालामाल भी कर दिया गया। इस पूरी कवायद में पहाड़ी कहीं नहीं थे। न कोई तब लापता गांवों, उनमें बसने वाले लोगों और सिरे से गायब घाटियों, शिखरों और ग्लेशियरों को लेकर फिक्रमंद था और न अब है।
उस जलप्रलय की जद में अकेला केदार मंदिर ही नहीं था, उस हादसे का हिस्सेदर हिमाचल भी था हालांकि वहां जानमाल की हानि उतनी नहीं हुई। लेकिन गंगोत्री से लेकर भारत नेपाल, भारत चीन सीमाओं तक कहर बरपाने वाले उस हादसे में आलोकपात फिर उसी केदार पर ही क्यों, यह समझने बूझने वाली बात है।
स्कंद-पुराण के अनुसार, जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय, भक्तों में नारद, गायों में कामधेनु और सभी पुरियों में कैलाश श्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण क्षेत्रों में केदार क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ है। और उस दिव्यधाम का परिसर लाशों से पट गया हो, गौरीकुंड व केदारनाथ के बीच यात्रा के प्रमुख पड़ाव रामबाड़ा का नामोनिशान मिट गया हो, शंकराचार्य का समाधि स्थल तक मलबे में दब गया हो तो फिर इसे ईश्वरीय सत्ता को चुनौती का दुष्परिणाम न कहें तो फिर क्या कहें।
देवभूमि में ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने वाले लोग नास्तिक भी नहीं हैं और न विधर्मी हैं। फिर भी उनकी पहचान बताने में प्रत्यक्षदर्शियों का गला क्यों कांप रहा है,यह समझ से परे है। लेकिन हिंदुत्व का प्रबल प्रताप है कि वास्तव को नकारने के लिए, प्रकृति से निरतर हो रही छेड़छाड़ और जनसंहारी अश्वमेध को मिथकों में तब्दील कर दिया गया है और बार-बार कहा गया है कि ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देना खुद के अस्तित्व को मिटाने जैसा है। ऐसे कारोबारी स्थाई बंदोबस्त का कहना है कि श्रीनगर में गंगा की धारा के बीच स्थापित धारी देवी की मूर्ति हटाए जाने से जल प्रलय आया। प्रकृति की हर गतिविधियों को विज्ञान के नजरिये से देखने वाले लोग भले ही इसे अंधविश्वास मान रहे हों, लेकिन भक्तों और संतों का तर्क मानें तो 16 जून को धारी देवी की मूर्ति को हटाया गया था और इसी वजह से जल प्रलय ने देवभूमि में तबाही मचाई। यह निश्चित रूप से धारी देवी का ही प्रकोप है। आस्थावान लोगों का यह भी मानना है कि अगर धारी देवी की मूर्ति को उनकी जगह से नहीं हटाया जाता तो जल प्रलय नहीं आता। इससे पूर्व 1882 में भी एक राजा ने मंदिर की छत को जब अपने तरीके से बनाने करने की कोशिश की थी तो उस समय भी इसी प्रकार की विनाशलीला देखी गई थी।
ऐसे आस्थावान लोगों की ही महिमा है कि प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध हिमालय देवभूमि है बाहरी लुटेरों के लिए और स्थानीय जनता के लिए जीवनयापन अखंड नरकयंत्रणा है।
उत्तरकाशी और टिहरी के जख्मों पर तो अब भी मरहम लगा नहीं है। उत्तराखंड में ‘जलप्रलय’ से मची तबाही के बीच मरने वालों का आंकड़ा हजारों तक पहुंच सकता है, बताया गया कि बताया गया है कि बाढ़ और भूस्खलन में 90 धर्मशालाएं बह गईं, जिनमें ठहरे हजारों तीर्थयात्रियों के मरने की आशंका है। केदार घाटी के 60 गांवों के लोगों का कुछ पता नहीं चल रहा है।
राज्य के आपदा राहत एवं प्रबंधन ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंपी रिपोर्ट में यह व्यौरा दाखिल किया था। लेकिन मंदिर के कपाट खोलने की जल्दी में लापता उन गाँवों में बिना कुछ बचाव राहत कार्य किये अमानवीय तरकीब से बचाव राहत अभियान का असमय पटाक्षेप कर दिया गया। पहाड़ में भी लोगों को अपने स्वजनों की याद नहीं आयी और न सरकार और प्रशासन को उन्होंने किसी भी स्तर पर घेरा जबकि पहाड़ के चप्पे-चप्पे पर आंदोलनकारी और एनजीओ सक्रियता प्रबल है।
उत्तराखंड में आई भीषण जल प्रलय के बाद एक बार फिर से भोले के केदार धाम में घण्टे की आवाज गूँज उठी। सुरक्षा की दृष्टि से 86 दिनों तक केदारनाथ में नियमित पूजा अर्चना पूर्ण रूप से बंद थी। कपाट खोलने के मौके पर मुख्यमंत्री ने बताया जिस शिलापट्ट ने केदार मंदिर को जलप्रलय से बचाया था। उसके और ऊपर चैराबाड़ी की ओर द्वी स्तरीय सुरक्षा दीवार बनाई जा रही है। उन्होने कहा कि केदारमंदिर की सुरक्षा के लिए दो सुरक्षा दीवार बनाई जा रही है। मुख्यमंत्री को मंदिर की सुरक्षा की चिंता सताती रही, बाकी पहाड़ की उन्होंने कोई परवाह नहीं की। मंदिर का पुन: शुद्धिकरण किया गया फिर जहाँ जल प्रलय थी उस मंदिर में जलाभिषेक और दुग्धाभिषेक हुआ, मुख्यपुजारी ने प्रायश्चित के भी मन्त्र पढ़े और फिर बाहर हवन करके विधिवत सरकारी तामझाम के तहत कपाट खोल दिये गये।
अब लीजिये नया तिकड़म भी। नए केदार धाम के निर्माण योजना के तहत निर्णय लिया जाएगा कि जलप्रलय में तबाह हुए केदारधाम के कहां पर बसाया जाए। उत्तरकाशी से लेकर पिथौरागढ़ तक फिर सालाना आपदाओं की भृकुटी तनी हुई है।
केदार जलप्रलय से सबक लेकर आपदा प्रबंधन तंत्र में क्या सुधार किये गये सालभर में, बहस इस पर भी नहीं हो रही है। पहाड़ और पहाड़ियों की सेहत के माफिक विकास कैसे हो, इस पर भी कोई बहस हो नहीं रही है।
कश्मीर में बाहरी लोगों पर संपत्ति खरीदने पर रोक है। इसीलिए वहां कॉरपोरेट राज अभी कायम नहीं हो सका है। दंडकारण्य और मध्यभारत से लेकर सारे देश में आदिवासी इलाकों में संवैधानिक रक्षाकवच और कानून की धज्जियाँ उड़ाकर जनसंहार नीति के तहत जल जंगल जमीन से बेदखली का आलम है क्योंकि वहां धारा 370 जैसा कुछ नहीं है।
सिक्किम में धारा 370 नहीं है, लेकिन बाहरी लोगों को संपत्ति खरीदने की इजाजत वहां भी नहीं है। लेकिन वहां मुख्यमंत्री पवन चामलिंग अपने हिसाब से विकास कर रहे है। थोकभाव से लीजमाध्यमे जमीन का हस्तांतरण हो रहा है अबाध और गांतोक का विस्तार तीस्ता नदी तक हो गया है।
पूर्वोत्तर में उग्रवादी इतने प्रबल हैं कि बिल्डरों प्रोमोटरों और कॉरपोरेट कंपनियों को सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता राष्ट्र, इसलिए वहां बाकी हिमालय की तुलना में प्रकृति से छेड़छाड़ कम है।
कॉरपोरेट राज के शिकंजे से बचे हुए पूर्वोत्तर में लेकिन सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून है और जनता का दमन निरंकुश है। देवभूमि बतौर महिमामंडित हिमाचल और उत्तराखंड में न धारा 370 है और न प्रबल उग्रवाद। न संपत्ति हस्तांतरण पर रोक।
उत्तराखंड और हिमाचल की देवभूमि में हिदंत्व धर्म नहीं है महज न राजनीति है केवल, धर्म धार्मिक पर्यटन में तब्दील है और इसी की आड़ में उत्तुंग हिमाद्रि शिखरों में विकास के नाम पर प्रोमोटरों, बिल्डरों और माफिया का राज सर्वत्र।
हिमालय वध कथा अनंत है।
दोनों राज्यों में जनता के लिए रोजगार का कोई बंदोबस्त हुआ नहीं है विकास के गोरखधंधे के बावजूद। दोनों राज्य आर्थिक मामलों में बाकी हिमालय की तरह हत दरिद्र है और नौजवानों के लिए मैदान भाग जाने या फिर सेना में रंगरुट बन जाने के अलावा कोई दूसरा चारा है ही नहीं नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के बावजूद। बाकी देश के लिए अच्छे दिन आये या न आये,पहाड़ों में रातें अब भी लंबी हैं और कड़ाके की सर्दी है।
प्राकृतिक विपदाएं भी बारंबार हैं।
मौसम और प्रकृति की प्रतिकूल परस्थितियों में फंसे पहाड़ियों के लिए सर्दी की सुहावनी धूप की तरह विकास कमल कब खिलेंगे, उनके देवता भी नहीं बता सकते।
कांगड़ा हो या लाहौल स्पीति या जौनसार भाबर टौंस यमुना आरपार या चीन से लगे सीमा क्षेत्र, आदिवासी न पांचवीं अनुसूची जानते हैं और न छठीं अनुसूची।
कानून का राज फिर वहीं पटवारी राज।
अलग राज्य बनने से कुछ अफसर और राजनेता तबके के लोग मलाईदार जरूर बन गये हैं लेकिन बाकी जनता तो अबभी पटवारी राज के औपनिवेशिक शासन के मातहत हैं। पर्यटन और धार्मिक पर्यटन पर भी बाहरी लोगों का कब्जा हो गया है जिनके हितों के लिए केदार जलप्रलय में लापता तमाम घाटियों और गांवों की सुधि नहीं ली गयी, हादसे का साल भर गुजर जाने के बाद भी।
केदारघाटी की जंगल पट्टी में मिल रहे गुमनाम नरकंकाल दरअसल पहाड़ के वजूद को ही चीख-चीख कर बता रहे हैं।
पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।