विनियंत्रित विनियमित ईंधन और तेल युद्ध के हित ही सुधार एजेंडा के बुनियादी तत्व
एस्सार ऑयल और रिलायंस इंडस्ट्रीज को 667 करोड़ रुपये का अनुचित लाभ
पलाश विश्वास
बाजार के लिए जैसे वैश्विक इशारे पर निर्भर है सांढ़ संस्कृति, उसी तरह अर्थव्यवस्था भी विश्व बाजार का उपनिवेश है। सुधारों के लिए रिमोट नियंत्रण का कोड समझने खातिर इन वैश्विक इशारों की समझ अनिवार्य है। भारतीय अर्थव्यवस्था का बुनियादी आधार अब उत्पादन प्रणाली नहीं है, वह मुक्त बाजार है और इसमें भी विनियंत्रित विनियमित ईंधन और तेल युद्ध के हित ही सुधार एजेंडा के बुनियादी तत्व। तेल गैस कीमतों पर कैग रपट से भारत के मध्य पनप रहे अमेरिकी भूगोल बेनकाब है। ईंधन की कीमतें विनियमित विनियंत्रित कर देने के तंत्र के मध्य मूल्यवृद्धि, मुद्रास्फीति और विकास दर, वित्तीय घाटा के आंकड़ों की नये सिरे से पड़ताल जरूरी है।
पहले बाजार के ये आंकड़े-

वित्त वर्ष 2015 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज का मुनाफा 0.5 फीसदी बढ़कर 5379 करोड़ रुपये हो सकता है। वित्त वर्ष 2014 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज का मुनाफा 5352 करोड़ रुपये रहा था।
वित्त वर्ष 2015 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज की बिक्री 13.5 फीसदी बढ़कर 99448 करोड़ रुपये हो सकती है। वित्त वर्ष 2014 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज की बिक्री 87645 करोड़ रुपये रही थी।
वित्त वर्ष 2015 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज का एबिटडा 7,95 फीसदी हो सकता है। वित्त वर्ष 2014 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज का एबिटडा 8.07 फीसदी रहा था।
वित्त वर्ष 2015 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज के जीआरएम 8.5 डॉलर प्रति बैरल रहने का अनुमान है। वित्त वर्ष 2014 की पहली तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज के जीआरएम 8.4 डॉलर प्रति बैरल रहे थे। वहीं वित्त वर्ष 2014 की चौथी तिमाही में रिलायंस इंडस्ट्रीज के जीआरएम 9.3 डॉलर प्रति बैरल रहे थे।
वित्त वर्ष 2015 की पहली तिमाही में रिलायंस इंफ्रा का मुनाफा 10.2 फीसदी बढ़कर 457.6 करोड़ रुपये हो गया है। वित्त वर्ष 2014 की पहली तिमाही में रिलायंस इंफ्रा का मुनाफा 415.2 करोड़ रुपये रहा था।
हालांकि वित्त वर्ष 2015 की पहली तिमाही में रिलायंस इंफ्रा की आय 23.9 फीसदी घटकर 4,151 करोड़ रुपये रही। वित्त वर्ष 2014 की पहली तिमाही में रिलायंस इंफ्रा की आय 5,452 करोड़ रुपये रही थी।

फिर कैग रपट- नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) ने ईंधन खरीद नीति पर सरकार को फटकार लगाते हुए कहा है कि उसकी इस नीति से एस्सार ऑयल और रिलायंस इंडस्ट्रीज को 667 करोड़ रुपये का अनुचित लाभ पहुंचा है। कैग ने सरकार को निजी रिफाइनिंग कंपनियों से डीजल खरीद मूल्य पर नए सिरे से बातचीत करने की जरूरत बताई है।
गौरतलब है कि सत्ता संभालने के तुरंत बाद अंबानी का कर्जा उतारने की कवायद में जुट गयी कारपोरेट केसरिया सरकार। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 जून रविवार को पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के साथ बैठक की जिसमें वित्त मंत्री अरुण जेटली भी शामिल थे।
जाहिर है कि यह कवायद जारी है।
इसी के मध्य आज इकनामिक टाइम्स की रपट में लिखा हैः

UNDER LENS National auditor says people paid for imaginary charges while some private firms got undue benefit
The national auditor CAG has observed that state oil firms have overcharged customers and collected additional ' . 26,626 crore in five years by making people pay for imaginary charges such as customs duty on domestic sales, while they gave “undue benefit“ to Essar Oil and Reliance Industries by buying their fuel at high rates.
The report is on the pricing mechanism followed by IndianOil, HPCL and BPCL in case of three products -petrol, diesel and LPG.

अब खबर आ गयी है कि सरकारी पेट्रोलियम कंपनियां निजी रिफाइनिंग कंपनियों से डीजल की खरीदारी करती हैं क्योंकि उनका अपना उत्पादन घरेलू मांग को पूरा नहीं कर पाता। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां व्यापार समान दाम पर डीजल खरीदती हैं जिसमें आयात और निर्यात मूल्य का 80:20 का अनुपात लिया जाता है। संसद में शुक्रवार को पेश अपनी रिपोर्ट में कैग ने कहा है कि निजी रिफाइनिंग कंपनियां अपने बचे पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात करती हैं। यह निर्यात जिस दाम पर किया जाता है वह व्यापार समान मूल्य (टीपीपी) और आयात समान मूल्य (आईपीपी) के मुकाबले कम रहता है। निजी कंपनियों से टीपीपी आधार पर डीजल की खरीदारी से इन कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचता है। वर्ष 2011-12 में यह लाभ 667 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। कैग ने कहा है कि इसी मानदंड के तहत मैंगलूर रिफाइनरी एंड पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड से भी खरीदारी की जाती है।
भारतीय कृषि समाज की नब्ज हमारे परम आदरणीय मित्र हिंदू के पूर्व रुरल एडीटर पी साई नाथ से ज्यादा कोई समझते हैं, हमें इसकी जानकारी नहीं है। आउटलुक में अपने ताजा आलेख में उन्होंने लिखा है-

The TV anchor asked eagerly of Arun Jaitley whether he would take hard decisions or, in the case of a bad drought, revert to loan waivers and (obviously wasteful) subsidies. The finance minister replied that it depended on the situation as it unfolded but he hoped he wouldn’t have to return to such steps. “We hope so too,” said the anchor fervently. Which was cute, coming from someone pushing a wish list of the corporate world as hard-hitting journalism. A corporate world which has on average received Rs 7 crore every hour (or Rs 168 crore every day) in write-offs on just direct corporate income tax alone. And that for nine years running. (Longer, but we only have data for those nine years.)
And that’s if we look only at corporate income tax. Cast your gaze across write-offs on customs and excise duties and the amount quadruples. The provisional figure written off for the corporate needy and the and the belly-aching better off is Rs 5,72,923 crore. Or Rs 5.32 lakh-crore if you leave out something like personal income tax, which covers a relatively wider group of people.

साईनाथ का आलेख पढ़ लें तो अरुण जेयली के मुखारविंद पर खिलते कमल का असली चेहरा खुलेगा।
कुल मिलाकर कारपोरेट जगत को तमाम प्रत्यक्ष कर छूट के अलावा राजस्व छूट के मद में सालाना औसतन पांच छह सात लाख तक का जो छोड़ दिया जाता है, मुद्रास्फीति, मूल्यवृद्दि, विकास दर और वित्तीय घाटे में उसका उल्लेख भी नहीं होता। इसी तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विनिवेश के आधार पर रेटिंग दी जाती है और इसे ही सुधार कहा जाता है।
यह मुकम्मल जायनी युद्धक मानवता विरोधी विश्व व्यवस्था का तैल चित्र है।
चार्ल डिकेंस ने टेल आफ टू सिटीज में फ्रांसीसी क्रांति परिदृश्य में जमान पर बह निकली खून की नदियों को साहित्य में चित्रार्पित किया है और आज अगर वैश्विक कुरुक्षेत्र का फिल्मांकन करना हो तो तेल की धार का पीछा करना जरूरी होगा।
गौरतलब है कि अटल शौरी जमाने में जीपी गोयनका, चंद्रशेखर और नुस्ली वाडिया की जिस डिसइनवेस्टमेंट काउंसिल की रपट मुक्तबाजारी विनिवेश विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और पीपीपी माडल की भागवत गीता है, उसने अपनी रपट में वित्तीय घाटे के संदर्भ में ईंधन प्रबंधन और प्रतिरक्षा व्यय आंतरिक सुरक्षा व्यय की भूले से चर्चा नहीं की है। टैक्स पेयर्स की जेबों से निकाली गयी रकम का ज्यादातर हिस्सा इन्हीं दो मदों में खर्च होता है। ध्वस्त कर दी गयी उत्पादन प्रणाली का ठीकरा निजी घरानों ने सार्वजनिक उपक्रमों पर फोड़ा और यही विनिवेशतंत्र और निरंकुश विदेशी पूंजी की तेल की धार का प्रस्थानबिंदु है।
बजट भारत सरकार की आर्थिक दिशा दशा बताने वाला संसदीय उत्तरदायित्व नहीं है।
बजट सिर्फ एक रस्मअदायगी है। नवउदारवादी 23 साल के कालखंड में अल्पमती सरकारों के जनसंहारी बंदोबस्त गैर संसदीय गैर लोकतांत्रिक और गैर संवैधानिक रहे हैं तो गुजरात माडल के नये बहुमती बंदोबस्त का भूगोल इतिहास बदले नहीं है। जनसंहार का वह सनातन सौंदर्यशास्त्र है।
वित्तमंत्री तमाम मंत्रालयों के मुखपत्र बने हुए हैं संसद में और तमाम मुद्दों को कारपोरेट वकील की तरह संबोधित कर रहे हैं जैसा कि सुधार कार्यक्रम अधूरा छोड़ देने के अमेरिका के अपराधी चिदंबरम भी करते रहे हैं। जेटली बड़े गर्व के साथ अपनी सरकार को बिजनेस फ्रेंडली बता रहे हैं और प्रो पूअर भी। हरित क्रांति का फंडा भी प्रोपूअर कारपोरेट उत्तदायित्व का एनजीओ फंडा जैसा ही रहा है जो बाद में सामाजिक योजनाओं की आड़ में रियल्टी का कारोबार बन गया है।
गाजा पट्टी पर इजराइली हमला तेज होने के मध्य, भारत सरकार की राजनयिक नपुंसकता के मध्य चीन के खिलाफ मीडिया का छायायुद्ध जारी है लेकिन इजराइल और अमेरिकी हितों पर मीडिया में सन्नाटा है, उसे समझना बेहद जरूरी है। यह विशुद्ध आर्थिक मामला है, राजनय विदेश नीति का मामला होकर भी नहीं है।
फिर रपट आयी है ब्रिक्स शिखर वार्ता और ब्रिक्स बैंक की खबरों के मध्य कि भारतीय भूमि को ललचाई नजरों से देखने वाला चीन, अभी भी अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आ रहा है।
इसी ब्रिक्स उपाख्यान में चीन, रूस, ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका के साथ लातिन अमेरिकी देशों का जो नया समीकरण विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संघ और संयुक्त राष्ट्र के समांतर बन रहा है, उसी के मध्य पुतिन को युद्ध अपराधी बनाने के उपक्रम और भारत चीन छाया युद्ध का परिवेश संदिग्ध है, तो गाजा संकट पर खामोशी बरतने वाले मोदी से तीसरी दुनिया के देशों को साथ लेकर चलने की कैसे उम्मीद की जाये, यह भी विचारणीय है।
खास बात तो यह है कि सद्दाम हुसैन भी अमेरिका को उतने ही प्रिय थे जितने कि ओसामा बिन लादेन। अफगानिस्तान को सोवियत दखल मुक्त करके ही तालिबान के जरिये तेलयुद्ध की बुनियाद रखी गयी थी और उसी तेल कारोबार का माध्यम डालर के बदले यूरो बनाने की पेशकश के साथ ही सद्दाम भस्मासुर बन गये।
इराक युद्ध खत्म होते न होते नाइन एलेवेन के बहाने अमेरिका का आंतक विरोधी युद्ध शुरु हो गया।
सोवियत संघ के विखंडन से पहले ही तेल युद्ध के मार्फत भारत अमेरिका से नत्थी हो गया जिसका चरमोत्कर्ष भारत अमेरिका परमाणु संधि तेलयुद्ध के मानवता विरोधी युद्धअपराधी अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के नेतृत्व में संपन्न हुआ और उन्हीं की अगुवाई में अमेरिका के आतंकविरोधी युद्ध में पार्टनर बन गया भारत इजराइल के साथ।
अपने बेड पार्टनर के खिलाफ बोलने की प्रथा जाहिर है, दुनिया भर में कहीं नहीं है। इसलिए गाजा पर भारतीय सत्ता वर्ग का अखंड मौन समझा जा सकता है। लेकिन एक बड़ा पेंच यह भी है कि यूरोपीय संगठन और डालर को यूरो की चुनौती के परिप्रेक्ष्य में भारत के साथ साझेदारी अमेरिका की राजनयिक मजबूरी भी है, जो तेल युद्ध में उसके हितों के लिए और एशिया को मुक्त बाजार में तब्दील करने के उसके आत्मरक्षा के डालर एजंडे के लिए अनिवार्य भी है।
नाइन एलेवेन और मलेशियाई विमानों के रहस्य में कई न कोई तार अवश्य है। अभी सबूत मिले नहीं है कि रूस ने ही यह हमला कराया है लेकिन रूस को युद्ध अपराधी बनाया जा रहा है और अमेरिकी कठपुतली यूक्रेन को संदेह के दायरे से बाहर रखा जा रहा है जो आपराधिक वारदातों के तहकीकात के वसूलों के खिलाफ है कि शक के दायरे से बाहर कोई नहीं होता।
मीडिया का यह तर्क कि 1962 के युद्ध ने इस बात को साबित भी किया है कि चीन, भारतीय भूमि पर कब्जा जमाना चाहता है और इसी तर्क के तहत निष्कर्ष कि अपनी इस मंशा को पूरा करने के लिए वह भारत के अरुणाचल प्रदेश अपना हिस्सा बताने से भी बाज नहीं आता है। जाहिर है कि चीन ने एक बार फिर अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताने की हिमाकत की है। चीनी सरकार ने अपनी सेना को लाखों ऐसे नक्शे बांटे हैं जिसमें अरुणाचल को चीन का हिस्सा दिखाया गया है।
हकीकत चाहे जो हो रूस और चीन को एकमुश्त अपराधी बतौर पेश करके ब्रिक्स की चुनौती खत्म करने का कार्यक्रम है यह, इसे भी समझना जरूरी है।
पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।