........... बस चुप रहो !
........... बस चुप रहो !
मोहम्मद खुर्शीद अकरम ‘ सोज़’
किसी प्रशांत पुजारी की किसी कमीने मुसलमान के हाथों हत्या हो या किसी बे-क़सूर अखलाक़ ,किसी ज़ाहिद , किसी नोमान की हत्या गाय में आस्था के नाम पर वहशी हिंदुओं की भीड़ द्वारा हो या देश के विभिन्न भागों में निर्दोष और कमजोर दलितों को सवर्ण दबंगों द्वारा ज़िंदा जलाए जाने की और बीच चौराहे पर नंगे घुमाए जाने की घटनाएँ हों ........ निंदनीय है ।
दरअसल गत दिनों दादरी से ले कर हरियाणा के फ़रीदाबाद के एक गाँव तक दरिंदगी की हद पार करने वाली घटनाओं से इंसानियत शर्मसार हुई है और देश की भी बदनामी हो रही है , लेकिन कुछ समझदार लोगों का यह खयाल है कि ऐसी अमानवीय घटनायें अंजाम देने वालों के विरुद्ध कुछ बोलने से देश की बदनामी होती है !!! खुदा-न-खास्ता कभी उनका कोई सगा ऐसी किसी वहशी भीड़ का शिकार हो जाये तो ........???...... यह सोचने मात्र से ही उनका कलेजा मुंह को न आ जाएगा .......?????
मेरे साथी दीपक मुंतज़िर ने दिल को झंझोड़ देने वाला सवाल किया है कि "…….. अगर आपके-मेरे-हमारे घर में १ से ३ साल तक के बेटे-बेटी, भतीजा-भतीजी या भाई-बहन हैं.! हिन्दू हो चाहे मुस्लिम हो, दलित हो चाहे श्रावण हो, जैन हो चाहे बौद्ध हो.! माफ़ करियेगा फ़रीदाबाद के घर की तरह आपके-मेरे-हमारे घर में भी उन्ही की भुनी और पोस्टमार्टम की हुई लाशें पड़ी होती तब भी हमारी वैचारिक, मानसिक और राष्ट्रीय संवेदना ऐसी ही होती जैसी इस दौरान है.? "
कैसी अजीब विडम्बना है कि ऐसी इंसानियत-सोज़ हरकतों के खिलाफ जब देश के साहित्यकारों ने अपनी आवाज़ बुलंद करनी शुरू की और सम्मान लौटाना शुरू किया तो देश में नफ़रत की सियासत करने वालों ने उनके खिलाफ़ ही मोर्चा खोल दिया । जो कुछ पाकिस्तान में फैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद फ़राज़ और हबीब जालिब जैसे धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों और शायरों के साथ होता रहा था , आज वही सब कुछ हमारे देश की फ़ाशिस्ट ताकतों द्वारा देश के धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों और शायरों के साथ किया जा रहा है ! कूलबरगी, दाभोलकर और पनसारे जैसी काबिल-ए-क़द्र हस्तियों की हत्या हो रही है ...... रवीश कुमार जैसे बेबाक पत्रकारों को गालियां और धमकियाँ मिल रही हैं ! और ऐसा केवल मज़लूमों के हक़ में बुलंद होने वाली हर आवाज़ को कुचलने के लिए किया जा रहा है :
निसार तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ ,
चली है रस्म कि ,कोई न सर उठा के चले ।
(फैज़ अहमद फ़ैज़ )
आज अपने देश में यह रस्म चल पड़ी है कि किसी भी प्रकार की अमानवीय घटनाओं का विरोध किसी भी स्तर पर हो तो उसे कुचल दिया जाये क्योंकि भक्तगणों का यह मानना है कि इस प्रकार विरोध के स्वर बुलंद होने से देश की बदनामी होती है ( और इन अमानवीय घटनाओं से देश के सम्मान में इज़ाफा होता है .....???? ) !!!
इसलिए हम अपनी खैर चाहते हैं तो अपनी ज़ुबान बंद रखें , ....... चुप रहें ....... बस चुप रहें .....!!!!!
किन्तु “ दिनकर “ का क्या करें जिन्हों ने यूँ ललकारा है :
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध ।
फिर क्यूँ न इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनाओं के खिलाफ़ खामोश विरोध ही दर्ज किया जाये :
उड़ गयीं इंसानियत की धज्जियाँ , बस चुप रहो
राज है हैवानियत का अब यहाँ , बस चुप रहो
ज़ालिमों के ज़ुल्म का कोई ब्याँ मुमकिन नहीं ,
रूह हिटलर की लरज़ जाये मियाँ, बस चुप रहो
इन सियासी चालबाज़ों की नज़र कुर्सी पे है
इनके दिल में दर्द जनता का कहाँ, बस चुप रहो
है फिज़ाओं में महक जलते हुए इन्सानों की
हर तरफ़ छाया है दहशत का धुआँ,बस चुप रहो
अब मुरव्वत या वफ़ा मिलती कहाँ है ‘सोज़’ जी
दर्द का मारा कोई जाये कहाँ , बस चुप रहो


