ट्रंप उपनिवेश में आगे डिजिटल सत्यानाश! बहुजनों को यह राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों समझनी चाहिए

पलाश विश्वास

महामहिम ट्रंप के 20 जनवरी को राष्ट्रपति बनते ही उनके एक के बाद एक कारनामे से साफ जाहिर है कि अमेरिकी श्वेत बिरादरी और दुनिया भर के उनके भाई बंधु के अलावा बाकी दुनिया और खासकर काली इंसानियत के लिए वे क्या कयामत बरपाने वाले हैं।

हम जो पिछले पच्चीस साल से उत्पादन प्रणाली को अर्थव्यवस्था की बुनियाद बताते हुए भारतीय कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार बता रहे थे, उसका मतलब अब शायद समझाने की जरुरत भी नहीं पड़ेगी। अब भी नहीं समझे तो हिंदुत्व का नर्क, जन्मफल, नियति, देवमंडल, अवातार तिलिस्म, धर्मस्थल और पीठ, तंत्र मंत्र ताबीज यंत्र का विशुध आयुर्वेद योगाभ्यास, लोक परलोक और स्वर्गवास आपको मुबारक।

शिक्षा और शोध को तिलांजलि देकर ज्ञान के बजाय तकनीक को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर हर हाथ में थ्रीजी फोर जी फाइव जी सौंपकर देश को मुक्तबाजार में, कैशलेस डिजिटल इंडिया बनाने की प्रक्रिया में हम जो अमेरिकी उपनिवेश बनते रहे हैं, वह एक झटके से ट्रंप उपनिवेश है।

आने वाले दिनों में सरकार आधार को और बड़े स्तर पर लागू करने की तैयारी कर रही है। आधार के जरिए ही अब आप आईटी रिटर्न भी भर सकेंगे।

प्रकृति, कृषि, पर्यावरण, जल जंगल जमीन और उनसे जुड़े समुदायों के खिलाफ मुक्तबाजारी नरसंहारी अश्वमेध जारी है और रोजगार सृजन तकनीक तक सीमाबद्ध करते जाने के पच्चीस साल इस देश के भविष्य के लिए अंधकार युग में वापसी का हिंदुत्व पुनरुत्थान है। यही फिर ट्रंप के श्वेत वर्चस्व का ग्लोबल हिंदुत्व जायनी है।

बहुजनों को यह राजनीति और अर्थव्यस्था दोनों समझनी चाहिए।

नोटबंदी से एक मुश्त खेती और कारोबार के खत्म होने के बाद फिर जो डिजिटल सत्यानाश की आपाधापी में यह अग्रिम बजट है, सरकारी खर्च बढ़ाकर इकोनामी का लाटरी में बदलने की कवायद के तहत आम जनता पर सारे टैक्स और वित्तीय घाटे का बोझ डालने के केसरिया हिंदुत्व नस्ली अर्थतंत्र तैयार करने का डिजिटल कैशलेस महोत्सव है, उसका अंजाम डोनाल्ड के कारनामों के मुताबिक समझ लें तो बेहतर।

लोकतंत्र के बारे में खास बात यह है कि विकसित देशों में लोकतंत्र और तीसरी दुनिया के देशों में लोकतंत्र में बुनियादी फर्क यह है कि यहां वोट न उम्मीदवार की काबिलियत और उसकी पृष्ठभूमि को देखकर गिरते हैं और न चुनाव प्रचार में बुनियादी मुद्दों और मसलों, अर्थव्यवस्था, विदेश नीति और कानून व्यवस्था के साथ सात बुनियादी सेवाओं के हालचाल, कानून व्यवस्था, नागरिक और मानवाधिकार, जल जंगल जमीन आजीविका या पर्यावरण पर किसी तरह की बहस होती है और न विचारधारा के तहत कोई बहस होती है।

जांत पांत धर्म क्षेत्र नस्ल वगैरह वगैरह से जुड़े भावनात्मक मुद्दों पर लोग निर्णायक वोट भावनाओं में बहकर गेर देते हैं।

चुनाव पूर्व लोक लुभावन बजट हो या टैक्स रियायतें हों या आरक्षण या सब्सिडी या कर्ज या पानी बिजली सड़क वगैरह-वगैरह स्थानीय मुद्दों को लेकर भी वोट पड़ जाते हैं। नतीजतन जो जनादेश बनता है, वह दस दिगंत सत्यानाश जो हो सो तो हैं ही, अगले चुनाव तक सर धुनते रहने के अलावा ट्रंप विरोधी महिलाओं के वाशिंगटन मार्च जैसी कोई बगावत के लिए हमारी रीढ़ जबाव देती रही है और इस तरह हमने संविधान और लोकतंत्र को अपने धतकरम से सिरे से फेल कर दिया है। स्यापा करने से मौत का मंजर बदलता नहीं है।

ले मशालें लिखने वाले हमारी तराई के जनकवि बल्ली सिंह चीमा ने लिखा हैः

वोट से पहले सोच जरा

बारी बारी से लूटें इकरार किया है हाथ कमल ने ।

भृष्टाचार में इक दूजे का साथ दिया है हाथ कमल ने।

दारू पीकर जय मत बोल वोट से पहले सोच जरा

पर्वत नदियां जंगल सब बरबाद किया है हाथ कमल ने।

बहरहाल, ऊपरी तौर पर लगता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी जन भावनाओं के उभार की वजह से दक्षिणपंथी श्वेत वर्चस्व के ग्लोबल जायनी हिंदुत्व एजंडा की वजह से यूं ही अमेरिका के राष्ट्रपति बन गये हैं।

हम बार-बार लिखते रहे हैं कि पहले अश्वेत राष्ट्रपति बाराक हुसैन ओबामा अमेरिकी राष्ट्र और जनता को युद्धक अर्थव्यवस्था के शिकंजे से निकाल नहीं सके हैं। अमेरिका में लगातार गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है। कानून व्यवस्था के हालात संगीन हैं।

देशभक्ति के हिंदुत्व उन्माद से जहां विविधता और बहुलता सहिष्णुता का इतिहास और विरासत खत्म है तो वहीं पिछले पच्चीस साल में अभूतपूर्व युद्धोन्माद और हथियारों की होड़, ऱक्षा घोटालों और रक्षा आंतरिक सुरक्षा में विनिवेश के माध्यम से हमने सत्ता वर्ग को अपने हितों के लिए भारत लोक गणराज्य को सैन्य राष्ट्र बनाने की छूट दी है।

इस दौरान हमारे महान सैन्यतंत्र ने विदेशी किसी शत्रु के खिलाफ कोई युद्ध नहीं लड़ा है रंगबिरंग सर्जिकल मीडिया ब्लिट्ज के सिवाय। सारे युद्ध गृहयुद्ध महाभारत सलवाजुड़ुम बहुजनों के खिलाफ, आदिवासियों के खिलाफ कारपोरेट हित में सलवा जुड़ुम है और बहुजन सितारे इस युद्ध के बारे में, सलवा जुड़ुम के बारे में, मुक्तबाजार के बारे में, यहां तक नोटबंदी के डिजिटल कैशलेस बहुजन सफाया अभियान के बारे में मौन हैं।

हम जो लोग इस तिलिस्म को तोड़ने में लगे हैं, वे आपको दुश्मन नजर आते हैं और सिर्फ ब्राह्मणों को गरियाकर मनुस्मृति के जो सिपाहसालार बने हैं, उनकी वानर सेना में तब्दील आपको हमारी भाषा भी समझ में नहीं आ रही है। हमें सख्त अफसोस है।

अमेरिकी नागरिकों को सत्ता सौंपने और आप्रवासियों के खिलाफ नस्ली गुस्सा की दुधारी तलवार से पापुलर वोटों से हारने के बावजूद बड़े निर्णायक राज्यों में बहुमत के एकमुश्त वोटों के बहुमत से समुची दुनिया अब ट्रंप महाराज के हवाले हैं। हमारे यहां सिंहासन पर उन्हीं का खड़ाऊं है।

इस जनादेश के बाद अमेरिका का क्या होना है और बाकी दुनिया का क्या होना है, उसे दुनियाभर के विरोध प्रतिरोध से बदल पाने की कोई संभावना नहीं है।

गौरतलब है कि 16 मई , 2014 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था, संसदीय प्रणाली और नीति निर्माण पद्धति से लेकर कर प्रणाली, बुनियादी सेवाओं और जरुरतों के सारे परिदृश्य सिरे से बदल गये हैं। आम जनता के लिए अब कोई योजना नहीं है न विकास है। लाटरी के झुनझुना मोबाइल परमाणु बम है। हिरोशिमा नागासाकी महोत्सव है। भुखमरी और मंदी, बेरोजगारी और बेदखली विस्थापन का भविष्य है।