पटना में ’भूमंडलीकरण के दौर में लघुपत्रिकाओं की भूमिका’ विषयक विचार गोष्ठी
बाजारवाद में साहित्य के लिए स्पेस सिमट गया है
लघुपत्रिकाएं ’अकाल में सारस’ की तरह हैं !
पटना। कवि योगेन्द्र कृष्णा ने कहा है कि आज के दौर में जब बाजार के प्रभाव में साहित्य हाशिए पर धकेला जा रहा है और उसकी बुनियाद पर ही हमला किया जा रहा है ऐसे में लघुपत्रिकाओं ने आगे बढ़कर रचनाकारों का हाथ थामा है।

श्री कृष्णा ’भूमंडलीकरण के दौर में लघुपत्रिकाओं की भूमिका’ विषय पर प्रगतिशील लेखक संघ की पटना इकाई द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में मुख्य वक्ता के तौर पर अपने विचार रख रहे थे।

श्री कृष्णा ने इस अवसर पर कई लघुपत्रिकाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि पहल, दोआबा, सनद, चिंतन दिशा, अक्षर पर्व, कृति ओर और गुफ्तगू जैसी पत्रिकाओं ने बाजार की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए हिन्दी पट्टी में लेखकों, कवियों, विचारकों की सामुहिकता को बचाए रखा है।

अध्यक्षीय संबोधन में डॉ. रानी श्रीवास्तव ने कहा कि अंतिम जन, समकालीन अभिव्यक्ति, संवदिया, समकालीन सृजन, जैसी लघुपत्रिकाओं के संपादकों ने अपनी गाढ़ी कमाई से पत्रिका निकालते हुए लगभग इस साहित्य विमुख समय में साहित्य को जिलाए रखने का काम किया है।

कवि शहंशाह आलम ने विमर्श को बढ़ाते हुए कहा कि लघुपत्रिकाएं हथियार की तरह काम करती हैं वह भी बिल्कुल सूक्ष्म... विभूति कुमार का ख्याल था कि लघुपत्रिकाएं ’अकाल में सारस’ की तरह हैं।

अरविन्द श्रीवास्तव ने कहा कि लघुपत्रिकाओं का सफ़र साम्राज्यवाद के उपनिवेशवादी प्रभाव को खत्म करने के लिए हुआ था। बाजारवाद में साहित्य के लिए स्पेस सिमट गया है, साहित्य कहीं बचा है तो वह लघुपत्रिकाओं में ही।

कवि राजकिशोर राजन का मानना था कि लघुपत्रिकाएं माचिस की तीली की तरह होती है। राकेश प्रियदर्शी ने कहा कि लघुपत्रिकाओं ने पूंजीवाद का गहरा विरोध किया है।

परमानंद राम ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जब सब कुछ बाजार में ढह रहा है, ऎसी परिस्थिति में रोशनाई, अभिधा, सांवली, जनपथ, वातायन प्रभात, एक और अंतरीप, शेष आदि छोटी-बड़ी पत्रिकाओं ने प्रगतिशील विचारों को संजोकर रखा है।

कार्यक्रम का समापन महान योद्धा व भारतरत्न नेलसन मंडेला को श्रद्धांजलि देने के साथ हुआ। डा. रानी श्रीवास्तव की अध्यक्षता संचालन राजकिशोर राजन ने किया।