बाजारवाद और अंधराष्ट्रवाद का नाम क्रिकेट
बाजारवाद और अंधराष्ट्रवाद का नाम क्रिकेट
सुनील कुमार
भारत का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट नहीं है लेकिन इस खेल को प्रचार-प्रसार कर राष्ट्रीय खेल जैसा बना दिया गया है। यह खेल पूंजीपतियों को विज्ञापन करने का पूरा मौका देता है। हर छठे बाल (ओवर) समाप्त होने के बाद, चैके-छक्के लगने के बाद, खिलाड़ी आउट होने और ड्रिंक, टी ब्रेक, लंच, टाइम आउट होने पर विज्ञापन प्रसारित करने के पर्याप्त मौके होते हैं। दूसरे किसी खेल में ऐसा मौका नहीं होता। इसीलिए बाजार ने इस खेल को स्वीकार कर लिया जिसमें इलेक्ट्रानिक मीडिया की भी अच्छी कमाई हो जाती है। आम जनता को इस खेल में सालों-साल फांसकर रखने के लिए आई पी एल, चैम्पीयन लीग, वन डे, टेस्ट मैच, चैम्पीयन ट्राफी, टी 20 वल्र्ड कप जैसे खेल कराये जाते रहते हैं। खेल के साथ-साथ अब अश्लीलता पड़ोसा जाने लगा है, जैसा कि आज आईपीएल या चैम्पीयन लीग मैंचों के दौरान चियर गर्ल्स के नाम पर प्रदर्शित किया जाता है।
यह ऐसा खेल है जहां खिलाड़ी देश के लिए नहीं, वह अपने और संस्था (बीसीसीआई एक स्वायत सेवी संस्था है) के लिए खेलता है। खिलाड़ी कम्पनियों से करोड़ों रु. लेकर ग्राउण्ड में तथा ग्राउण्ड के बाहर विज्ञापन करते हैं। बैट, जूते, ड्रेस सभी किसी न किसी कम्पनी का प्रचार करते हैं और इसके लिए कम्पनियां इनको मोटी रकम मुहैय्या कराती हैं। इस तरह के ‘उत्कृष्ट’ कार्य करने के लिए भारत रत्न तक दिया जाने लगा है। क्रिकेटरों की साल की कमाई अरबों-खरबों में होने लगी है जिसे आप इस तालिका में देख सकते हैं-
क्रमांक खिलाड़ी का नाम सेलरी से आय विज्ञापन से आय कुल आय
(करोड़ रू.) (करोड़ रू.) (करोड़ रू.)
1 महेन्द्र सिंह धोनी 21.35 170.80 192.50
2 सचिन तेंदुलकर 24.40 109.80 134.20
3 विराट कोहली 18.30 54.90 73.20
4 गौतम गंभीर 24.40 24.40 48.80
5 विरेन्द्र सहवाग 18.30 24.40 42.70
नोट: यहा आंकड़े 1 डॉलर त्र 61 रु. के आंकड़े पर आधारित है। यह ‘देशभक्त’ टैक्स से बचने के लिए अपने को एक्टर बताकर टैक्स के छूट का लाभ भी उठा लेते हैं।
हम इस तालिका में देख सकते हैं कि ये खिलाड़ी खेल से ज्यादा विज्ञापन में पैसे कमाते हैं। पैसे कमाने के लिए ये खिलाड़ी किसी तरह के विज्ञापन करने में नहीं हिचकते हैं। वे जिस ब्राण्ड का विज्ञापन कर रहे हैं उसकी गुणवत्ता जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं। उस ब्राण्ड का स्वास्थ्य और समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है, वे इसकी भी चिंता नहीं करते हैं। क्रिकेट टीम जिस सहारा कम्पनी के सिम्बल वाली ड्रेस का इस्तेमाल करती है उस कम्पनी के मालिक को आम जनता के 24000 हजार करोड़ रु. नहीं लौटाने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने जेल भेजा हुआ है।
बीसीसीआई और आईसीसी को भी इससे कोई लेना-देना नहीं है कि ये खिलाड़ी आम लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं या ऐसे कम्पनी के ड्रेस पहन रहे हैं जो आम जनता क़ी गाढ़ी कमाई को लूट रही है। आप पूंजीपतियों के लिए बाजार बना रहे हैं तो आप ‘देशभक्त’ हैं और सबसे ज्यादा करूणामय इंसान हैं। लेकिन जब एक क्रिकेटर मानवता बचाने और लोगों के अधिकार दिलाने वाला रिस्ट बैंड पहनता है तो उस पर आईसीसी के नियमों का उल्लंघन करने की बात होने लगती है और उसके रिस्ट बैंड को निकलवा दिया जाता है।
गाजा में इस्रायल द्वारा भवनों, स्कूलों, अस्पतालों को निशाना बनाकर हजारों बेगुनाहों का कत्ल किया जा रहा है जिसका विरोध पूरी दुनिया में हो रहा है। इसी विरोध की संस्कृति को आगे बढ़ाते हुए इंग्लैंड का एक खिलाड़ी मोइन अली ने साउथम्पटन टेस्ट मैच (भारत-इंग्लैंड का तीसरा टेस्ट मैच) के दौरान ‘फ्री फिलीस्तीन’, ‘सेव गाजा’ लिखा हुआ रिस्ट बैंड पहन रखा था, जिस पर आईसीसी ने एतराज जताया और इस तरह के रिस्ट बैंड पहनने पर रोक लगा दी।
1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय इंग्लैंड से भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान मंसूर अली खां पटौदी और पाकिस्तान टीम क्रिकेट के कप्तान हनीफ मुहम्मद ने अपनी-अपनी सरकारों को एक संयुक्त टेलीग्राम भेजा और लिखा कि ‘हमें भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ने पर गहरा अफसोस है... हमें उम्मीद है कि आप आपस में मिल कर एक दोस्ताना हल ढूंढ लेंगे।’ उस समय क्रिकेट पर बाजारवाद का इतना असर नहीं हुआ था, नहीं तो इस टेलीग्राम को भी प्रतिबंधित कर दिया गया होता।
क्रिकेट आज खेल नहीं, बाजारवाद और अंधराष्ट्रवाद फैलाने का माध्यम बन गया है। क्रिकेटर उत्पाद बेचते हुए दिखते हैं। उसी तरह मीडिया खेल के नाम पर योद्धोन्माद शैली में खबरें बनाता है और अंधराष्ट्रवाद को बढ़ावा देता है। जीत के बाद मीडिया में ‘चारों खाने चीत, लंका फतह कर लिया, शेर के जबड़े से जीत को छीना, पाकिस्तान को धूल चटाया’ इत्यादि खबरें अखबार के प्रथम पेज पर सचित्र छपी हुई मिलती हैं। मीडिया लोगों को इन झूठे देशभक्तों की दिलेरी कहानियां सुनाती रहती है। ऐसे खबरों के आस-पास क्रिकेटरों के महंगे विज्ञापन भी छपे होते हैं। जीत वाले दिन तो विज्ञापनों का रेट भी बढ़ जाता है। दरअसल, विज्ञापन और अंधराष्ट्रवाद का नाम है क्रिकेट।


