राम पुनियानी

बाबा रामदेव के अनशन में हिस्सा लेने के लिए इकट्ठा हुए लोगों पर ५ जून २०११ की रात, दिल्ली पुलिस द्वारा की गई कार्यवाही कड़ी निंदा के काबिल है. अपने स्वभाव के अनुरूप, पुलिस ने रामलीला मैदान खाली करवाने के लिए जमकर बल प्रयोग किया. आंसू गैस के गोले फोड़े गए और लाठियों का खुलकर इस्तेमाल हुआ. इस कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों सहित, कई लोगों को चोटें आयीं. सरकार और बाबा रामदेव के बीच बातचीत के असफल हो जाने के बाद पुलिस ने आंदोलनकारियों को रामलीला मैदान से खदेड़ दिया. रामदेव अब हरिद्वार में अपने पतंजली योग आश्रम में अनशन कर रहे हैं.

बेहतर होगा कि हम इसके पहले के घटनाक्रम पर एक नज़र दौड़ा लें. बाबा रामदेव ने अन्ना हजारे द्वारा लोकपाल बिल के मसले को लेकर किये गए अनशन में भी भाग लिया था. अन्ना हजारे के अनशन को मध्यम वर्ग का भारी समर्थन मिला. यह साफ़ था कि परदे के पीछे से कोई ताकत, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आमजनो के आक्रोश को अन्ना हजारे के आन्दोलन के समर्थन में बदलने के लिए बड़े सुनियोजित ढंग से काम कर रही है. २जी व अन्य महाघोटालों के सामने आने से मध्यम वर्ग व अन्य वर्गों में भी एक तरह कि बेचैनी और असंतोष था व जनता भ्रष्टाचार के विरुद्ध झंडा उठाने वाले किसी भी व्यक्ति का साथ देने के लिए तैयार थी. आर. एस. एस. ने इस गुस्से को दिशा दी. पूरा अनशन, अन्ना हजारे पर केंद्रित रहा और यहाँ तक कि उन्हें “दूसरे गाँधी” की पदवी तक दे दी गई! बाबा रामदेव व अन्ना हजारे में मतभेद थे. बाबा रामदेव के दिमाग में उनके एक अलग आन्दोलन का खाका था – ऐसा आन्दोलन जिसके केंद्र में वे रहते व जिसे समर्थन मिलता योग व आयुर्वेद के उनके सफल व्यवसाय के जरिये उनसे जुड़े शिष्यों का. वैश्वीकरण के साथ आई चुनौतियों और आधुनिक जीवन के तनावों ने योग की लोकप्रियता में आशातीत वृद्धि की है और बाबा रामदेव, योग की बढती लोकप्रियता को भुनाने में सफल रहे हैं. उन्होंने एक विशाल व्यावसायिक साम्राज्य खड़ा कर लिया है.

अपने लाखों शिष्यों के बूते पर, बाबा ने घोषणा कर दी कि वे भी विदेशों में जमा काले धन के मुद्दे को लेकर उपवास करेंगे. उन्होंने अपने आन्दोलन की सफलता के लिए बहुत तय्यारी की और इस काम में उनकी सहायता की संघ-प्रशिक्षित गोविन्दाचार्य ने. उनके आन्दोलन के लिए व्यापक तय्यारियां की गयी. सारे इंतजामात पांच सितारा थे. दिल खोलकर धन खर्च किया गया. रामदेव के धरने में उनके समर्थकों ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया. इनमें शामिल थे मध्यम वर्ग के लोग व खाप पंचायतों जैसी प्रतिगामी संस्थाओं के सदस्य. जिन लोगों ने समाज के वंचित वर्गों के विरोध प्रदर्शनों और धरनों को देखा है, वे रामदेव के आन्दोलन के लिए किये गए इंतजाम देख कर चकित थे. वे चकित थे कि किसी आन्दोलन पर इतना खर्च किया जा सकता है और उसके लिए इतनी भीड़ जुटाई जा सकती है. वह भी एक ऐसा आन्दोलन, जिसके विषय की गंभीरता से तो कोई इंकार नहीं कर सकता परन्तु जो आन्दोलन इस गंभीर विषय को सतही तौर पर देख रहा हो.

भ्रष्टाचार हमारे देश की एक बड़ी समस्या है परन्तु हमें यह समझना होगा की भ्रष्टाचार, दरअसल, पूरी व्यवस्था में व्याप्त कमियों का लक्षण मात्र है. इन कमियों को दूर किये बगैर और हमारे समाज के अन्यायपूर्ण चरित्र को बदले बिना, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता. इस तथ्य को जयप्रकाश नारायण और वी पी सिंह के आंदोलनों की असफलता ने भी रेखांकित किया था.

बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे नेताओं के आंदोलनों में देश का वंचित, शोषित व बदहाल वर्ग भाग नहीं लेता. इनमें तो वह वर्ग भाग लेता है जिसके सहारे भाजपा ने “शाइनिंग इंडिया” का नारा दिया था. बाबा के कई शिष्यों के आमदनी के स्त्रोत संदिग्ध हैं. बाबा स्वयं भी बहुत दिलचस्प व्यक्तित्व हैं. योग शिक्षक से वे व्यापारी बने और अब राजनेता बनने के लिये तत्पर हैं. धन कमाने की अपनी लिप्सा और अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को वे अपने भगवा चोले और धार्मिक छवि के पीछे छुपाये रहते हैं.

जैसे-जैसे बाबा के अनशन शुरू करने का दिन नज़दीक आता गया, सरकार में घबराहट बढ़ने लगी. सरकार नहीं चाहती थी कि वह मध्यम वर्ग का समर्थन खोये. बाबा की तरह, आर एस एस के पास भी अनुयायियों की बड़ी फ़ौज है. बाबा और आर एस एस के बीच, नया राजनैतिक दल खड़ा करने के मुद्दे पर भी बातचीत चल रही थी. ऐसी रणनीति अपनाने पर भी विचार हो रहा था, जिससे वोटों की दिशा को संघ की राजनीति करने वाले दलों व विशेषकर भाजपा की ओर मोड़ा जा सके.

सरकार नहीं चाहती थी कि बाबा अनशन करें और इसलिए उसने, उनके सामने दंडवत कर दिया. बाबा और सरकार के बीच दूसरे दौर की बातचीत के बाद एक समझौता हुआ जिसके अंतर्गत सरकार ने यह वायदा किया कि विदेशों में जमा काला धन वापस लाने के लिए कदम उठाये जायेंगे और इस धन के मालिकों से कड़ाई से निपटा जायेगा. रामदेव के सहयोगियों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये और रामदेव ने यह घोषणा की कि उनकी ९९ प्रतिशत मांगें मान ली गयी हैं. इसके बाद, रामदेव को अनशन करने की कोई ज़रूरत नहीं थी.

फिर भी, उन्होंने रामलीला मैदान पर उपवास शुरू कर दिया. उनके सहयोगी अब यह दावा कर रहे हैं कि उन्होने समझौते पर दस्तखत इसलिए किये थे क्योंकि उन्हें भय था कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जावेगा. सरकार को ऐसा लगा कि उसके साथ धोखा हुआ है.

इस तरह के आंदोलनों का लक्ष्य होता है अपनी मांगें मनवाना और इसमें ९९ प्रतिशत से अधिक सफलता पाना संभव नहीं हैं. फिर बाबा ने अनशन जारी क्यों रखा? साफ़ है कि वे चाहते थे कि अनशन के बहाने जो सियासत की जा रही थी, वह कमज़ोर न हो जाये. भ्रष्टाचार का विरोध तो मात्र एक पर्दा था जिसके पीछे से हिंदू राष्ट्र की राजनीति की जा रही थी. इसके बाद हालात तेज़ी से बदले. मनमोहन सिंह का कहना है कि सरकार के पास पुलिस कार्यवाही करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. चूँकि उन्होंने इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा इसलिए यह कहना मुश्किल है कि सरकार की क्या मजबूरी थी. पुलिस ने जब रामलीला मैदान को खाली करवाने की कार्यवाही शुरू की तब रामदेव मंच से अपनी महिला भक्तों के बीच कूद कर गायब हो गए. कुछ समय बाद, उन्हें महिलाओं के कपडे पहने और अपनी दाढ़ी, दुप्पटे से ढँक कर भागने कि कोशिश करते हुए पकड़ लिया गया.

अब तक, यह परंपरा रही है कि आन्दोलनों के नेता, पुलिस का पहला वार खुद झेलते हैं. वे पुलिस से अपने समर्थकों कि रक्षा करते हैं. परन्तु रामदेव अलग किस्म के नेता हैं. वे कायर और बेईमान हैं. वे पहले सरकार को लिखित में एक वायदा करते हैं और बाद में उससे मुकर जाते हैं. और जब पुलिस उन्हें पकड़ने आती है तो वे औरतों के पीछे छुपकर भाग जाते हैं और अपने समर्थकों को—जो उनके बुलावे पर आये थे—पिटने के लिए छोड़ देते हैं. रामदेव ने अपनी इन हरकतों को यह कहकर सही बताया है कि शिवाजी भी ऐसा ही करते थे. शायद बाबा को प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया का ज़रा सा भी भान नहीं हैं. शिवाजी एक राजा थे और दूसरे राजाओं से युद्धरत थे. प्रजातंत्र में आंदोलन, युद्ध नहीं होते. वे तो सरकार पर दबाव बनाने के तरीके होते हैं. रामदेव अपनी कायरता को शिवाजी का नाम लेकर छुपा रहे हैं. महिलाओं के कपडे पहन कर, बाबा नें सिले कपडे न इस्तेमाल करने के अपने संकल्प को भी तोडा है.

इस पूरे घटनाक्रम का राजनीतिक पहलू और भी दिलचस्प है. इस आन्दोलन का असली नियंत्रक संघ था. ऐसा लगता है कि लगातार दो चुनावों में हार के बाद, संघ ऐसे किसी मुद्दे कि तलाश में है, जो उसे चुनाव में उसी तरह फायदा पहुचाये जैसा कि बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद हुए दंगों ने पहुचाया था. इस आंदोलन के पीछे वे ताकतें ही हैं जो हिंदू राष्ट्र की पैरोकार हैं, जो आदिवासियों, दलितों व समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के अधिकारों की दुश्मन हैं. सब कुछ बहुत साफ़ है. बाबरी मस्जिद कांड से जुड़े सभी महानुभाव यहाँ उपस्थित हैं. गोविन्दाचार्य हैं, साध्वी ऋतंभरा हैं, उमा भारती हैं. बाबरी कांड के अन्य कलाकारों ने रामलीला मैदान की कार्यवाही के बाद मोर्चा सम्हाल लिया है. इनमे शामिल हैं अडवाणी और मुरली मनोहर जोशी. संघ के पदधिकारी—जो सांप्रदायिक हिंसा के बाद चुप रहे, जिनने दलितों व किसानों के पक्ष में आवाज़ उठाने की कभी ज़रूरत नहीं समझी—वे सब रामदेव के पीछे खड़े हैं. बाबरी मस्जिद कांड के नायक व नायिकाएं राष्ट्रपति भवन में ज्ञापन देने जा रहे हैं. वे चाहते हैं कि संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जावे. वे राजघाट पर नाच-गा रहे हैं. वे बहुत खुश हैं.

जहाँ तक भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्यवाही का प्रश्न है, उस बारे में कोई दो मत नहीं हो सकते परन्तु इस मामले में हमें प्रचार के भूखे तथाकथित नेताओं और मीडिया द्वारा उनके आन्दोलनों के अतिशयोक्तिपूर्ण प्रचार से प्रभावित नहीं होना चाहिए. रामदेव के महिमामंडन का लक्ष्य उसी तरह का उन्माद पैदा करना है, जैसा कि बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के पहले पैदा किया गया था. भ्रष्टाचार के विरुद्ध शोर मचा रहे गिरोह के असली इरादे इसलिए भी संदिग्ध जान पड़ते हैं क्यूंकि उन्होंने अपनी छातियाँ पीटने के लिए उपयुक्त समय चुना है और उनके आन्दोलन अत्यंत योजनाबद्ध हैं.

इन आंदोलनों ने यह प्रश्न भी उपस्थित किया है कि क्या प्रजातंत्र में, सरकार को नागरिक समूहों से कम जिम्मेदार माना जा सकता है? नागरिक समूहों द्वारा सरकार पर दबाव बनाने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल तो गलत नहीं कहा जा सकता परन्तु हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि केवल सरकार के ज़रिये ही किसी कानून या कार्यक्रम को लागू किया जा सकता है. अगर सरकार आपकी ९९ प्रतिशत मांगें मान लेती है तब फिर क्या किसी आन्दोलन की ज़रूरत रह जाती है? अगर अलग-अलग नागरिक समूहों में मतभेद हों तब किस समूह को कितना वज़न दिया जाये? हमें यह नहीं भूलना चाहिए की सरकार भी चुनाव के जरिये सत्ता में आती है. स्वामियों और बाबाओं का राजनीति में प्रवेश कितना उचित है? क्या हम पाकिस्तान की राह पर चलना चाहते हैं जहाँ लंबे समय तक मुल्लाओं का बोलबाला था और जहाँ आज भी उनकी दादागिरी चल रही है. पाकिस्तान की समस्याओं का एक कारण यह भी है. बाबा रामदेव, साध्वी ऋतंभरा और श्री श्री रविशंकर को एक नागरिक के सभी अधिकार उपलब्ध हैं परन्तु यदि वे अपने भक्तों की दम पर राजनीति में उतरने लगेगें तो बहुत मुश्किल हो जायेगी.

रामदेव के आन्दोलन के असली उद्देश्य के बारे में कई बातें कही जा रही हैं. यह कहा जा रहा है कि इसका उद्धेश्य अजमेर से लेकर मालेगांव तक संघ परिवार द्वारा फैलाये गए आतंक से देश का ध्यान हटाना है. हमें उम्मीद है कि सरकार इन आतंकियों को सजा दिलवाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेगी.

हम एक बार फिर जोर देकर कहना चाहते हैं कि सामाजिक मसलों को लेकर चल रहे आंदोलनों के खिलाफ बलप्रयोग की निंदा की जानी चाहिये परन्तु पञ्च सितारा धरने और अपने वायदे से पीछे हटने से भी कई आशंकाएं उभरती हैं.