बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते
बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते
क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।
अब हम सूचनाओं पर फोकस कम कर रहे हैं क्योंकि सूचनाओं के जानकार होते हुए भी समझ के अभाव में उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। इसलिए अबसे सांगठनिक और वैचारिक मुद्दों पर मेरा फोकस रहना है। सूचनाएं हम अंग्रेजी में डालेंगे और बांग्ला में भी जरूरी मुद्दों पर ही फोकस करेंगे।
बामसेफ और ट्रेड यूनियनों के भरोसे हम मुक्तबाजार के खिलाफ लड़ नहीं सकते, क्योंकि नवधनाढ्य कर्मचारी तबका सत्ता वर्ग में शामिल है।
यह कटु सत्य बामसेफ के विवादित मसीहा वामन मेश्राम से बेहतर शायद कोई नहीं जानता। कमसकम दस सालों तक हमारी बहस उनसे यही होती रही कि बामसेफ को जनांदोलनों की अगुवाई करनी चाहिए और बामसेफ को आर्थिक मुद्दों पर जनजागरण चलाना चाहिए।
अपने खास अंदाज में हमारी दलीलों को खारिज करते हुए वामन मेश्राम हर बार कहते रहे हैं कि कर्मचारी आंदोलन करेंगे नहीं। कर ही नहीं सकते।
वे राष्ट्रव्यापी जनांदोलन की बात बामसेफ के मंच से करते रहे और इस सिलसिले में हमारा भी इस्तेमाल करते रहे, लेकिन वे जानते थे कि यह असंभव है।
वे जानते थे कि इस नवधनाढ्य तबके को किसी की फटी में टांग अड़ाने का जोखिम उठाना नहीं है, लेकिन वह राष्ट्रव्यापी जनांदोलन के लिए संसाधन झोंकने से पीछे हटेगा नहीं।
दुधारू कर्मचारियों से संसाधन जुटाने में वामन मेश्राम ने कोई गलती नहीं की। ट्रेड यूनियनें और पार्टियां भी विचारधारा के नाम पर वामन मेश्राम का फार्मूला काम में ला रहे हैं।
लाखों रुपये चंदे में बेहिचक देने वालों को हिसाब से लेना देना नही हैं, यह नवधनाढ्य तबका सभी देवताओं को इसी तरह खुश रखता है।
न जनांदोलनों से इस सातवें आयोग के वेतनमान का बेसब्री से इंतजार करने वाले, आरक्षण और अस्मिता को जीवन मरण का प्रश्न बनाये रखने वाले मलाईदार तबके को कोई मतलब है, और न बाबासाहेब के मिशन से और न उन ट्रेड यूनियनों की विचारधारा से, जिनके वे सदस्य हैं। वे राष्ट्रव्यापी हड़ताल कर सकते हैं। सिर्फ और सिर्फ अपने लिए। आम जनता के लिए कतई नहीं।
वे सड़कों पर उतर भी सकते हैं। लाठी गोली खाने से भी वे परहेज नहीं करेंगे, लेकिन सिर्फ बेहतर वेतनमान के लिए, बेहतर भत्तों के लिए। विनिवेश और निजीकरण और संपूर्ण निजीकरण और अपने ही साथियों के वध से उन्हें खास ऐतराज नहीं है जब तक कि वे खुद सड़क पर उतर नहीं आते।
हमने हर सेक्टर के कर्मचारियों को अर्थव्यवस्था के फरेब समझाने की झूठी कवायद में पूरी दशक जाया कर दिया और दूसरे लोगों ने पूरी जिंदगी जाया कर दिया।
अगर कर्मचारी तनिक बाकी जनता और कमसकम अपने साथ के लोगों की परवाह कर रहे होते तो अपनी ताकत और अपने अकूत संसाधनों के हिसाब से वे बखूब इस मुक्तबाजारी तिलिस्म को तोड़ सकते थे।
ऐसा नहीं होना था। हमने इसे समझने में बहुत देर कर दी है और उनके भरोसे जनता के बीच हम अब तक अस्मिताओं के आर पार कोई पहल नहीं कर सके हैं। न आगे हम कुछ करने की हालत में हैं।
जैसे बामसेफ को लेकर बहुजनों को गौतम बुद्ध की क्रांति को दोहराने का दिवास्वप्न उन्हें विकलांग और नपुंसक बनाता रहा है, आप को लेकर आम जनता के एक हिस्से का मोह हूबहू वही सिलिसिला दोहरा रहा है और सबसे खराब बात है कि हमारे प्रबुद्ध जनपक्षधर लोग इसे झांसे से बचे नहीं है।
वे समझ रहे थे कि बिना जनांदोलन की कोई कवायद किये अरविंद केजरीवाल अपने निजी करिश्मे के साथ इस वक्त को बदल देंगे। वे लोकतंत्र बहाल कर देंगे, जिसके वे शुरू से खिलाफ रहे हैं।
दरअसल अरविंद केजरीवाल भी हिंदू साम्राज्यवाद के सबसे ईमानदार और सबसे कर्मठ सिपाहसालार है, हमारे सबसे समझदार लोगों ने इस सच को नजरअंदाज किया है और यह बहुत बड़ा अपराध है आम जनता के खिलाफ, इसका अहसास भी हमें नहीं है।
निजी करिश्मा से क्रांति हुई रहती तो कार्ल मार्क्स कर लेते और न माओ, न लेनिन, न स्टालिन और न फिदेल कास्त्रों की संगठनात्मक क्षमता की कोई जरूरत होती।
नेलसन मांडेला जल में रहकर ही रंगभेद मिटा देते और गांधी को कांग्रेस के मंच से देश जोड़ना न पड़ता।
विचार काफी होते तो गुरु गोलवलकर हिंदी राष्ट्र बना चुके थे, संघ परिवार जैसे किसी संस्थागत संगठन की जरूरत हरगिज न होती।
संगठन जरूरी न होता तो बाबासाहेब अपना एजेंडा पूरा किये बिना सिधार न गये होते।
जिस क्रांति का हवाला देकर हम गौतम बुद्ध को ईश्वर बना चुके हैं, उस क्रांति के पीछे कोई गौतम बुद्ध अकेले न थे, वे महज एक कार्यकर्ता थे, जिनने विचारधारा को एक संस्थागत संगठन के जरिए क्रांति के अंजाम तक पहुंचाया और वह संगठन टूट गया धर्मोन्माद में तो प्रतिक्रांति भी हो गयी।
जनता के बीच गये बिना, जनता की गोलबंदी के बिना, पूरे देश को अस्मिताओं के आर पार जोड़े बिना, बिना किसी संस्थागत संगठन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के इस गैस चैंबर मैं कैद वक्त को रिहा कराने का कोई उपाय नहीं है।
पलाश विश्वास


