बालाघाट का स्वयंसेवक और जामताड़ा का मिन्हाज अंसारी - देश एक, कानून अनेक!
बालाघाट का स्वयंसेवक और जामताड़ा का मिन्हाज अंसारी - देश एक, कानून अनेक!
बालाघाट का स्वयंसेवक और जामताड़ा का मिन्हाज अंसारी - देश एक, कानून अनेक!
0 राजेंद्र शर्मा
इसे गहरी विडंबना ही कहा जाएगा। ठीक उस समय, जब केंद्र सरकार के मंत्रिगण, खासतौर पर मुस्लिम समुदाय की ओर से बोलने के दावेदारों से इस की अपीलें कर रहे थे कि समान नागरिक संहिता या कॉमन सिविल कोड की जरूरत पर, विधि आयोग के सवालों को यूं ही खारिज न करें बल्कि उन पर गंभीरता से विचार करें, तभी देश के विभिन्न हिस्सों में और विभिन्न रूपों में काफी कुछ ऐसा हो रहा था, जो बाकी मामलों में भी देश में एक ही कानून का राज होने या कानून की नजरों में सभी देशवासियों के समान होने पर ही सवाल उठाता है।
जाहिर है कि हम कानून और व्यवस्था बनाए रखने में विफलताओं की बात नहीं कर रहे हैं, जिनके उदाहरण बेहिसाब हैं।
वास्तव में इस टिप्पणी में हम मौजूदा शासन में कानून के कुछ खास अतिक्रमणों या कुछ खास बहानों से किए जाने वाले अतिक्रमणों को, वास्तविक व्यवहार में एक हद तक वैध बना दिए जाने के मामलों में भी नहीं जाएंगे, जैसे कथित गोरक्षकों को गुंडागर्दी की खुली छूट दिया जाना, हालांकि ये मामले भी उसी वृहत्तर प्रवृत्ति के महत्वपूर्ण अंग हैं, जिसकी ओर हम यहां इशारा कर रहे हैं।
यहां हम सिर्फ इसके एक-दो उदाहरणों की ओर ध्यान खींचना चाहेंगे कि किस तरह एनडीए के राज में देश भर में और खासतौर पर भाजपा-शासित राज्यों में, आरएसएस और आरएसएस से जुड़े संगठनों व लोगों को, आम लोगों पर लागू होने वाले कानून से ऊपर बैठाया जा रहा है और आमतौर पर न्यायपालिका के सम्मानजनक अपवाद को छोडक़र, शासन की तमाम संस्थाओं को, इस स्थिति को गले उतरने के लिए तैयार किया जा रहा है।
मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के बैहर कस्बे की 25-26 सितंबर की घटना और उससे भी बढक़र उसके बाद जो कुछ हुआ है और अब भी हो रहा है, इसका आंखें खोलने वाला उदाहरण है। पूरे मामले की गंभीरता का अंदाज, इस आम तौर पर करुणा और हास्य की मिली-जुली भावनाएं जगाने वाली सचाई से लगाया जा सकता है कि व्हाट्सएप पर इस्लामविरोधी पोस्ट के आरोप में, स्थानीय आरएसएस प्रचारक, सुरेश यादव की गिरफ्तारी के तीन सप्ताह के बाद, यह कार्रवाई करने वाले पुलिस अधिकारियों के परिजन पुलिस डीजी तथा आइजी को ज्ञापन देकर न सिर्फ अपने परिजनों के लिए न्याय की गुहार लगा रहे थे, पुलिस के शीर्ष अधिकारियों से यह भी पूछ रहे थे उनके परिजनों को पुलिस के हिस्से के तौर पर, ‘‘निर्भीक तरीके से अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए’’ क्यों प्रताड़ित किया जा रहा है।
याद रहे कि आरएसएस के लोगों पर हाथ डालने के अपराध के लिए संबंधित थाना अध्यक्ष, जिया उल हक समेत सात पुलिस वालों पर हत्या की कोशिश व लूटपाट से लेकर, गैर-कानूनी तरीके से घुसने व आपराधिक दाब-धोंस तक के मामले लाद दिए गए हैं और इन तीन सप्ताहों में संबंधित पुलिस वाले, फौरन निलंबित किए जाने के अलावा या तो गिरफ्तार किए जा चुके हैं या फिर फरार हैं।
बेशक, सोशल मीडिया पर किसी तरह की टिप्पणियों के लिए किसी की भी, चाहे वह आरएसएस का प्रचारक ही क्यों न हो, गिरफ्तारी होने पर किसी को आपत्ति हो सकती है। लेकिन, जैसा कि हम कमोबेश इसी तरह के किंतु इससे ठीक उल्टा अर्थ रखने वाले प्रसंग में देखेंगे, सोशल मीडिया पर टिप्पणियों के लिए गिरफ्तारी तो मौजूदा एनडीए राज में आए दिन की बात ही हो गयी है।
बेशक, इस सिलसिले की शुरूआत मौजूदा निजाम से पहले ही चुकी थी।
मुंबई में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी तथा बाल ठाकरे के निधन के बाद एक पोस्ट के लिए दो लड़कियों की गिरफ्तारी, ऐसी कार्रवाई के चर्चित उदाहरण हैं।
बहरहाल, एनडीए के करीब ढाई साल के शासन में ऐसी गिरफ्तारियों की संख्या हजारों में नहीं तो सैकड़ों में तो जरूर ही पहुंच चुकी होगी।
हां! इन गिरफ्तारियों में एक पैटर्न जरूर देखा जा सकता है। ज्यादातर ऐसी कार्रवाई कथित रूप से बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली टिप्पणियों, तस्वीरों आदि के मामले में ही हुई है। इसमें बड़े विचित्र तरीके से प्रधानमंत्री की या सरकार के किसी कदम की आलोचना करने वाली टिप्पणियां भी आ जाती हैं।
वास्तव में बैहर के पुलिसवालों से एक ही गलती हुई थी कि उन्होंने इस्लाम विरोधी टिप्पणियों को ऐसी कार्रवाई के लायक समझा। इसके ऊपर से उन्होंने आरएसएस के जिला प्रचारक पर हाथ डाल दिया और वह भी आरएसएस के दफ्तर में। यह गलती नहीं, मौजूदा निजाम की नजरों में गंभीर अपराध है, जिसकी सजा उन्हें मिलनी ही थी।
बेशक, इस सजा की शुरूआत तो तभी हो गयी थी, जब यादव कि गिरफ्तारी के विरोध में, संघ परिवार के करीब एक हजार लोगों ने विरोध प्रदर्शन के नाम पर थाने को ही घेर लिया और मुस्लिम थानाध्यक्ष को अपने हवाले किए जाने की मांग की।
बाद में आरएसएस नेता के साथ ज्यादती के अरोप उछाले जाने के साथ, मध्य प्रदेश का पूरा शासन ‘‘पीड़ित आरएसएस प्रचारक’’ के पक्ष में नजर आने में जुट गया।
राज्य के गृहमंत्री समेत, तीन-तीन मंत्रियों ने आरएसएस प्रचारक के दरबार में हाजिरी देकर उसका कुशल-क्षेम पूछा और आरएसएस को न्याय दिलाने का भरोसा दिलाया। यहां तक कि घटना के समय विदेश यात्रा पर गए, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी आरएसएस प्रचारकों की सराहना कर, इस मामले में अपना पक्ष स्पष्ट कर देना जरूरी समझा। यह दूसरी बात है कि कथित ‘निर्मम पिटाई’ के बाद भी स्थानीय अस्पताल में जांच में आरएसएस नेता के शरीर पर चोट के कोई उल्लेखनीय निशान न मिलने के बाद, उसे जबलपुर में आरएसएस-भाजपा के एक कार्यकर्ता द्वारा संचालित निजी अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया। अनुकूल अस्पताल ऐसे मामलों में बहुत काम का साबित होता है।
मध्य प्रदेश के उक्त प्रकरण के आस-पास ही और ठीक ऐसे ही मामले में, शासन का इससे ठीक उल्टा रुख, भाजपा द्वारा ही शासित झारखंड में देखने को मिला। यहां जामताड़ा जिले में, नारायनपुरा के अंतर्गत दिगारी में ‘‘बीफ’’ को लेकर एक कथित रूप से आपत्तिजनक व्हाट्सएप पोस्ट के लिए, 2 अक्टूबर को पुलिस ने पूछताछ के लिए 22 वर्षीय मिन्हाज अंसारी समेत कुछ युवाओं को उठा लिया।
बाद में पुलिस ने बाकी युवाओं को छोड़ दिया और मिन्हाज को गिरफ्तार कर लिया।
गिरफ्तारी के बाद, पुलिस ने गिरफ्तारी की वजह बताने के लिए जब मिन्हाज को मीडिया के सामने पेश किया, सभी मीडियाकर्मियों ने यह नोट किया था कि वह ठीक से बैठ या चल पाने में भी असमर्थ था। इसे हिरासत में पुलिस की पिटाई का ही नतीजा माना जा रहा था।
बाद में हिरासत के दूसरे दिन, मिन्हाज के परिवारवालों को सूचित किया गया कि हालत बिगड़ने के चलते उसे धनबाद अस्पताल में भेज दिया गया है।
मिन्हाज के परिवार वाले तथा अन्य जानने वाले जब यह पता करने के लिए थाने पहुंचे कि उसके साथ क्या हुआ था, नारायनपुर पुलिस थाने के इंचार्ज सब-इंस्पेक्टर पाठक ने मिन्हाज के माता-पिता के साथ मारपीट की, जिसके संबंध में बाद में एफआइआर भी दर्ज करायी गयी।
उधर, हालत और बिगड़ने पर मिन्हाज को रांची में रिम्स ले जाया गया, जहां 9 अक्टूबर को उसने दम तोड़ दिया।
पुलिस-प्रशासन की ओर से इसे हिरासत में पिटाई से मौत की जगह पर, ऐन्सिफेलाइटिस से मौत का मामला बनाने की कोशिश की गयी।
हां! इस बीमारी की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए, थानाध्यक्ष पाठक को निलंबित करने के साथ, उसके खिलाफ दर्ज एफआइआर को हत्या की कोशिश से बदलकर, हत्या का मामला बना दिया गया।
उधर जल्द ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पुलिस का झूठ पूरी तरह से बेनकाब हो गया और साफ हो गया कि मिन्हाज की मौत पुलिस की पिटाई से ही हुई थी। इसके बावजूद, मध्य प्रदेश के उक्त प्रकरण के विपरीत, झारखंड में न किसी पुलिसवाले की गिरफ्तारी की नौबत आयी है और न किसी पुलिसवाले के परिवारवालों को ‘न्याय’ की गुहार लगाने की जरूरत पड़ी है।
साफ है कि भाजपा के राज में किसी मिन्हाज की जान की भी कीमत, किसी आरएसएस प्रचारक के ईगो पर आयी किसी खरोंच से भी कम है। बल्कि शायद यही कहना ठीक होगा कि दोनों के बीच कोई तुलना ही नहीं है।
आरएसएस, उससे जुड़े संगठनों, उसके लोगों को इस राज में राजा भोज की हैसियत हासिल है, जिसके आगे किसी गंगू तेली की जान की क्या कीमत है?
याद रहे बालाघाट और जामताड़ा में जो हुआ, इस सचाई को आंखों में उंगली डालकर दिखाता जरूर है, लेकिन यह कोई अपवाद नहीं है बल्कि भाजपा राज में यही नियम है।
बेशक, यह अभी शुरूआत ही है।
किंतु यह कानून के शासन के अंत की शुरूआत है। विडंबना यह है कि देश में आपराधिक कानून के अंत की शुरूआत करने वाला राज ही, निजी कानूनों की विविधता को मिटाने के लिए, समान नागरिक कानून लाने की शुरूआत करना चाहता है। दोनों एक ही एजेंडे के हिस्से जो हैं।
चलते-चलते:
जैसे यही साबित करने के लिए कि बालाघाट में जो हुआ कोई अपवाद नहीं है, मध्य प्रदेश की ही भाजपायी सरकार ने झाबुआ जिले के अंतर्गत पेटलावाड में दो पुलिस अधिकारियों का दंडात्मक तबादला कर दिया। उन पर सांप्रदायिक हिंसा के प्रकरणों में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को फंसाने का आरोप लगाकर, हिंदुत्ववादी संगठन कई दिन से आंदोलन कर रहे थे।
12 अक्टूबर को मुहर्रम के दिन, ताजियों के जुलूस को पहले से तयशुदा रास्ते से इस आधार पर नहीं निकलने दिया गया कि धार जिले में गंधवानी कस्बे में कथित रूप से मुसलमानों ने किसी हिंदू पर हमला किया था!
कथित रूप से गंधवानी की घटना पर विरोध जता रही हिंदुत्ववादियों की जुटाई भीड़ ने, दो बार-बार ताजिए के जुलूस को रास्ता बदलने के लिए मजबूर किया था। पुलिस प्रशासन ने जब इस खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक हरकत के खिलाफ कार्रवाई शुरू की तो हिंदुत्ववादी संगठनों ने आरएसएस कार्यकर्ताओं के साथ ज्यादती का शोर मचाना शुरू कर दिया।
भाजपा सरकार ने उनकी सुनने में देर नहीं लगायी और ‘आरएसएस के लोगों को हाथ लगाने’ के लिए, दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के दंडात्मक तबादले का एलान कर दिया।
यह दूसरी बात है कि पेटलावाद के पुलिसवाले फिर भी सस्ते में छूट गए। बालाघाट के पुलिसवालों के विपरीत सिर्फ तबादला, मुकद्दमा और गिरफ्तारी तो दूर, निलंबन तक नहीं। पर बालाघाट प्रकरण के विपरीत, ये दोनों पुलिस अधिकारी सवर्ण हिंदू भी तो थे! 0


