गिर्दा की पत्नी हीरा भाभी के आंसुओं को लेकिन हम थाम नहीं सकते।
पलाश विश्वास
कई दिनों बाद आज फिर भाई देवप्रकाश और उनके भांजे पिंटू के सौजन्य से ऑन लाइन हूं। उधमसिंहनगर जिले के जिला मुख्यालय रुद्रपुर शहर के बगल में पूर्वी बंगाल से आये शरणार्थियों के लिए बसाये गये ट्रांजिट कैंप में बैठा हूं। जो अब सिडकुल के शिकंजे में हैं और यहां का हर शख्स अपनी जमीन खोकर करोड़पति है और शरणार्थी कालोनियां बेशकीमती उपभोक्ता बाजार में तब्दील हैं।
घर बसंतीपुर से कैंप के बीच हिंदूजा का सबसे बड़ा कारखाना अशोक लीलैंड और सिंगुर प्रकरण के बाद पंतनगर स्थानांतरित टाटा मोटर्स का प्लांट यहां हैं। जहां नैनो लेकिन बनती नहीं है, नैनो मोदी के सानंद से बनती है लेकिन यहां छोटा हाथी निकलता है कारखाने से।
सारी तराई शहरीकरण और औद्योगीकरण की सुनामी में है और जंगल तो खत्म हो ही गया है, गन्ने के खेत रास्ते में कहीं मिल नहीं रहे हैं।
एक के बाद एक गांव के लोग लाखों करोड़ों में जमीन बेचकर रईस बनने के चक्कर में भिखारी बनते जा रहे हैं और संस्कृति पूरी तरह हिंग्लिश रैव पार्टी है।
इसके बावजूद बिजली अब नियमित लोड शेडिंग हैं और उत्तराखंड में अविरत बिजली किंवदंती ध्वस्त है तो गांव-गांव तक पहुंचने वाली सड़कें खंडहर हैं।
बची खुची खेती में मिट्टी बालू की खदानें हैं।
यही मेरा डिजिटल देश महान है।
यह परिदृश्य तराई में सीमाबद्ध है, ऐसा भी नहीं है।
कल ही नैनीताल होकर आया हूं।
पहाड़ के चप्पे-चप्पे में विकाससूत्र की धूम है। अब तो पेड़ों के टूंठ भी कहीं नजर नहीं आते। तराई से लेकर पहड़ा तक नालेज इकोनामी के तहत गांव-गांव में कालेज, मेडिकल कालेज, बीएड कालेज, इंजीनियरिंग कालेज, लॉ कालेज खुल गये हैं।
इंग्लिश कुलीन स्कूल कालेज तो मशरूम है।
कोई नियंत्रण नहीं है। कोई नियमन नहीं है।
बेलगाम पूंजी, मुनाफाखोरी और कमीशनखोरी का खुल्ला बाजार है।
जो बच्चों का हुजूम बड़ी उम्मीदों के साथ इन शिक्षण संस्थानों से निकल रहा है, उनका आखिरकार होगा क्या, जो किसान बेदखल हो रहे हैं, उनका आखिर होगा क्या, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
दिनेशपुर ट्रांजिट कैंप से लेकर नैनीताल तक बाजारों में सारे के सारे चेहरे अजनबी हैं। जहां तहां शापिंग माल है।
स्थानीय लोग पक्के मेहनतकश हो गये हैं और व्यापारियों के एक खास तबके को अपना सब कुछ हस्तांतरित करके ऐश कर रहे हैं मौत के इंतजार में।
नैनीताल के लिए काठगोदाम से पहाड़ चढ़ते हुए पहाड़ के रिसते जख्मों से जो खून की धार निकलती रही, उसे अभी दिलोदिमाग से साफ नहीं कर पाया हूं।
अपना नैनीताल भी तेजी से गांतोक नजर आने लगा है।
तल्ली डाट सुनसान है तो कैंट बाजार का कायाकल्प हो गया है। मल्लीबाजार की दुकानें अजनबी हैं तो फ्लैट्स की घेराबंदी है।
तल्ला डांडा और अय़ांर पाटा अब आलीशान हैं और सूखाताल, भीमताल, खुरपा ताल तक विकास का कदमताल है और बिना बेदखल कोई एक इंच जमीन कहीं नहीं है जैसे अनबंधी कोई नदी नहीं है।
कल सुबह गिरदा की पत्नी हीराभाभी से तल्ली डाट के बगल में हल्द्वानी रोड पर उनके नये कमरे में सविता और मेरी लंबी बातें होती रहीं।
हीरा भाभी, बोली कम रोयीं ज्यादा। उन आंसू की हिस्सेदारी लेकिन हमारी हैं नहीं।
बटरोही से माउंट रोज में उनके घर जाकर हमने पूछा कि गिरदा की कितनी किताबें कोर्स में लगी हैं। बोले, एक भी नहीं है। लगायेगा कौन, उन्होंने पूछा।
हीरा भाभी चाहती हैं कि गिरदा की स्मृति में कोई संग्रहालय बने।
उत्तराखंड सरकार या कुमांयू विश्वविद्यालय चाहे तो यह संभव है।
हीरा भाभी बोलीं कि गिरदा की किताबें और उनका सारा सामान अल्मोड़ें में उनके पुश्तैनी घर में बाथरूम के सामने गली में बक्से में बंद छोड़ आयी हैं क्योंकि केलाखान के पास गिरदा का घर उन्हें छोड़ना पड़ा।
साढ़े बारह सौ का घर छोड़कर अशोक होटल के ठीक सामने जो साढ़े पांच हजार रुपये के किरोये पर उनका एक कमरे का घर है, जहां वे निपट अकेली हैं, उसमें कोई रसोई भी नहीं है तो किताबें वे कहां रखतीं।
मेरे पिता पुलिन बाबू डायरियां लिखा करते थे रोज। हर छोटी बड़ी जरूरी गैर जरूरी चीजों को लिखा करते थे। हमारा घर झोपड़ियों का झुरमुट था। कोई खाट तक नहीं थी हमारी और हम फर्श पर सोते थे। एक बड़े से लकड़ी के बक्से में सारे जरूरी कागजात, जमीन का खसरा खतियान से लेकर ढिमरी ब्लाक आंदोलन के पोस्टर, पर्चे और उनकी डायरियां रखी हुई थीं। बाकी पूरे घर में अनाज और पत्र पत्रिकाओं का डेरा और बाकी सांपों का बसेरा था। छप्पर चूती रहती थी।
पिताजी की मौत के बाद स्थिर हुआ तो हमें उस काठ के बक्से की सुधि आयी। पता चला कि पद्दो घर से बाहर था और तब दस बारह साल के भतीजे टुटुल ने बाक्स खोलकर दीमक लगे कागजात डायरियों और उसके भीतर की सड़न से घर को बचाने के लिए उस काठ के बक्से को ही फूंक दिया।
पिताजी की इस तरह दो-दो बार अंत्येष्टि हो गयी।
हमारी औकात पिताजी के लिए संग्राहालय बनाने की थी नहीं।
दिनेशपुर कालेज के सामने जो मूर्ति बनी है, उसे हर साल नये सिरे से सहेजना पड़ता है क्योंकि रात के अंधेरे में हर साल उस मूर्ति को अनजान लोग तोड़ देते हैं।
इस बार भतीजी निन्नी ने छूटते ही कहा कि दादाजी के हाथ में फ्रैक्चर है।
सविता बोली उनकी पूरी देह ही फ्रैक्चर है।
सविता ने फिर जिम्मेदार लोगों से निवेदन भी किया कि कैश कराने के लिए इस मूर्ति पूजा की जरूरत ही क्या है।
सविता ने कहा कि हर मूर्ति गढ़ी जाती ही है विसर्जित होने के लिए।
मुक्तबाजार हुई जा रही तराई में पुलिनबाबू की स्मृति का क्या मोल।
बेहतर हो कि पुलिनबाबू को विसर्जित कर दिया जाये।
उनको इस यातनागृह से मुक्त कर दिया जाये।
हम जो गिरदा की मूरत गढ़ रहे हैं, बेदखल पहाड़ और बेदखल तराई की भावभूमि में उसकी कितनी प्रासंगिकता है, यह बात मेरी समझ में नहीं आती।
राजीव लोचन साह ने कहा भी कि गिरदा ने जनता से लिया और जनता को लौटा दिया। पोथी रचने की उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी।
वे बोले कि गिरदा तो चिरकुट पर लिखने वाला ठैरा।
तो इस हुड़किया लोककवि की ब्रांडिंग करके किसे क्या फायदा होने वाला ठैरा। मुझे आशंका है कि जैसे हम अपने पिता की कोई स्मृति और उनके हिस्से का इतिहास बचा नहीं सके, उसी तरह हमारे गिरदा को भी घुन और दीमक चाट जाने वाले होंगे।
तुहीन और पिरिम अब दिल्ली में हैं और अनिमित नैकरियों में हैं और भाभी को कुल साढ़े सात हजार रुपये की पेंशन मिलती है।
राजीव, दीपा कांडपाल, शेखर, उमा भाभी निजी तौर पर जितना कुछ कर सकते हैं, कर रहे हैं जो शायद काफी नहीं है।
पवन राकेश का कहना है कि भाभी की आंखों से बहते आंसुओं को हम थाम ही नहीं सकते।
कल दो बजे तक तुहीन को नैनीताल होना था। मुझे घर से पद्दो का जरूरी फोन मिलने की वजह से तुरत फुरत पहाड़ छोड़ आना पड़ा शेखर दा और उमा भाभी से मिले बिना ही।
डीके, विश्वास, कैप्टेन एल एम साह जैसे अनेक लोगों से बिना मिले।
मैंने हीरा भाभी से कहा कि तुहीन लौटते ही फोन करें और तब हम पता लगायेंगे कि क्या वह किसी अखबार में काम करने को इच्छुक है। होगा तो हम लोग किसी संपादक मालिक मित्र से निवेदन करेंगे कि उसे अखबार का कामकाज सिखा दें।
अभी तक तुहीन का फोन नहीं आया और मैं इंतजार में हूं।
बटरोही और राजीव दाज्यू से संग्रहालय की बात हमने चलायी भी। राजीव दाज्यू ने कहा कि सरकारी नियंत्रण में संग्रहालय का हाल तो महादेवी वर्मा पीठ से मालूम पड़ गया ठैरा, जहां उसे रचने वाले बटरोही को ही खदेड़ दिया गया।
उस दूध के जले बटरोही से भी हमारी माउंट रोज पर उनके मकान में लंबी बातें हुईं और उनसे भी कहा कि संग्रहालय बनाने की पहल आप ही कर सकते हैं।
बटरोही जी कोई जवाब देने की हालत में नहीं थे।
अबकी बार मल्लीताल के सब कुछ बदले माहौल में, इसे यूं समझें कि नैनीताल के तीनों सिनेमा हॉल विशाल, कैपिटल और अशोक बंद पड़े हैं और नैनीताल में कोई सिनेमा हॉल इस वक्त है नहीं।
तो मल्ली बाजार में अपने पुराने शर्मा वैष्णव भोजनालय में करगेती और सुदर्शन लाल शाह सत्तर के दशक के कुछ डीएसबी सूरमाओं से मुलाकात हो गयी और एक दम सत्तर के दशक में लौट गये।
इससे पहले इदरीश मलिक की पत्नी कंवल से मुलाकात हो गयी जो तराई के ही काशीपुर से हैं तो कोलकाता के भवानीपुर में भी उनकी जड़ें हैं।
इदरीश की गैरहाजिरी में उनसे हुई मुलाकात में वे इतनी अंतरंग हुई कि लगी करने शिकायत कि हम उसके घर क्यों नहीं ठहरे। फिर नैनीताल में हर साल दिखायी जाने वाली राजीव कुमार की फिल्म वसीयत की चर्चा भी हुई जिसमें सारे के सारे नैनीताल वाले देश भर से इकट्ठे हुए थे और संजोग से उस फिल्म की पटकथा, संवाद, इत्यादि मैंने लिखी थी और दो चार शॉट मुझ पर भी फिल्माये गये थे।
इदरीश अभी फिर मुंबई में है और उसकी दो फिल्में रिलीज होने को हैं, खुशी इस बात की है।
नैनीताल इतना बदल गया है कि फिल्मोत्सव के लिए जगह नहीं मिल पा रही है तो युगमंच के रिहर्सल के लिए भी जगह नहीं है।
फिर भी जहूर आलम की अगुवाई में सत्तर दशक की धारावाहिकता में युगमंच के नये पुराने रंगकर्मी हरिशंकर परसाई के मातादीन को मंच पर उतारने की जुगत में हैं।
वे रिहर्सल की तैयारी में थे तो उनसे ज्यादा बात नहीं हो पायी।
करीब रात के साढ़े बारह बजे हम मालरोड पर बंगाल होटल पहुंचे जहां मैं करीब पांच साल रुककर पढ़ता था डीएसबी में। एक सा गुरु जी ताराचंद्र त्रिपाठी के घर में था।
धड़कते हुए दिल के साथ गया कि पता नहीं कि किससे मुलाकात होगी और किससे नहीं।
बंगाल होटल का कायाकल्प हो गया है। जिस कमरे में मैं रहता था, वह अब मौचाक रेस्तरां है। वहीं हम पूछताछ कर रहे थे तो सीढ़ियों पर दादा सदानंद गुहा मजुमदार आ खड़े हो गये।
पहले उन्होंने ही हमें कस्टमर समझ लिया पर जब सविता ने कहा पलाश तो फौरन डांटते हुए बोले, एखाने की कोरछिस ऊपरे जा।
ऊपर जाते ही उनकी बेटी सुमा जो 1973 में साल भर की थी. हमें देखते ही चीख पड़ी, मां देखो के एसेछे, पलाश अंकल और फिर भाई को आवाज लगाने लगी- ओ सभ्यो ओ सभ्यो
दीदी अपने उसी कमरे में थीं। बड़ी बहू कोलकाता के बेलेघाटा से है। उसकी सास ने कहा कुछ नहीं, वह तुरंत किचन में घुस गयी। फिर दोनों के लिए माछ भात लेकर लौटीं।
सविता बोली, इनसुलिन तो अशोक में छोड़ आयी लेकिन तुम्हारे हाथ का जरूर खाउंगी।
छोटी बहू कुंमाय़ुनी और नैनीताल की है। पूछा तो बोली कि आल सेंट्स में टीचर है जैसे सुमा बिड़ला कालेज में है।
मैंने कहा कि हमारी मैडम मिसेज अनिल बिष्ट भी कभी आल सेंट्स में पढ़ाती थी।
इस पर उसके पति गुड्डु सुखमय ने कहा कि वह तो मैडम के साथ काम करता है।
दस बजे गये थे। फिर भी मैडम को एसएमएस करके उसने हमारे वहां होने की जानकारी दी। दो मिनट के भीतर मैडम फोन पर थीं और हम घंटा भर बातें करते रहे।
करीब रात के साढ़े ग्यारह बजे अशोक में लौटे। सभ्यो गाड़ी से पहुंचा गया।
हल्द्वानी में हरुआ दाढ़ी है तो आज सुबह अमर उजाला देखा तो हल्द्वानी में संपादक हमारे पुराने बरेली के सहकर्मी सुनील साह हैं।
करगेती, भास्कर, कमलापंत और लोग हैं। लेकिन हल्द्वानी मैं रुक नहीं सका।
भास्कर उप्रेती से नैनीताल पहुंचते ही मुलाकात हो गयी, गनीमत है।
गुरु जी ताराचंद्र त्रिपाठी इस वक्त मुरादाबाद में हैं। उन्हें प्रमाम करने की बड़ी इच्छा थी।
राजीव लोजन साह ने गुरुजी से फोन पर मिलाया और फोन पर ही सविता और मैंने उन्हें प्रणाम कहकर नैनीताल से विदा ली।