बिपन चन्द्रा होने का मायने
बिपन चन्द्रा होने का मायने
आलोक बाजपेयी
प्रोफेसर बिपन चन्द्र एक संस्था थे। उन्हें, उनके लेखन, उनकी बातों को पूरा समझ सकना लगभग उतना ही कठिन है, जितना महात्मा गांधी के बारे में। कहते हैं कि जिसने गांधी को नहीं देखा, उसके लिए यह महसूस करना मुश्किल होगा कि गांधी के होने के क्या मायने होते हैं। यही बात प्रो. बिपन चन्द्र के लिए भी सही है।
यदि एक व्यक्ति के रूप में उनके बारे में कहें तो वो एक व्यापक अर्थ में उन सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं के वाहक थे, जो कि मानव सभ्यता की अटूट धरोहर है। मनुष्यता, करुणा, प्रेममय व्यक्तित्व, आडम्बर विहीन, सहजता, नीर-क्षीर-विवेक सम्पन्न, ऊंच-नीच या किसी भी तरह के भेदभाव से परे वह जिससे भी, जब भी मिलते, वह उनका अपना हो ही जाता। अहं उन्हें छू तक न गया था। कभी किसी को यह आभास तक न होने देते कि वो वही ’प्रोफेसर बिपन चन्द्रा’ हैं, जिनका नाम ही काफी है किसी को बौद्धिक रूप से आतंकित करने के लिए। अपने इसी अनूठे व्यक्तित्व के कारण उनको चाहने वालों, मानने वालों, उनका अनुकरण करने वालों की एक फौज बनती चली गई, जिसे व्यापक सन्दर्भ में ’बिपन चन्द्रा स्कूल’ के नाम से जाना जाता है। न केवल इतिहास बल्कि राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थ-व्यवस्था, पत्रकारिता, संगीत, कला के क्षेत्र में भी बिपन के लोग मिल जाएंगे।
इसका यह मतलब नहीं कि बिपन को कभी अपने विरोधियों की कमी रही हो। उनके विरोधी, उनकी आलोचना करने वाले, उनकी उपेक्षा करने वाले कभी संख्या में कम नहीं रहे। लेकिन उनके विरोधी भी कभी व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें कमतर साबित करने के षड्यंत्रों में नहीं लगे, क्योंकि वो जानते थे कि प्रो. बिपन चन्द्र और कुछ भी हो, लेकिन एक सच्चे और ईमानदार इंसान एवं प्रखर मेधा संपन्न इतिहासकार अवश्य हैं। आज पूरे देश में बुद्धिजीवियों और समाज को बेहतरी की दिशा में ले जाने की सोंच रखने वाले लोगों में जो दुख बिपन के न रहने से दिख रहा है, वह इस बात का प्रमाण है।
लेकिन हम खुशकिस्मत हैं कि बिपन चन्द्र का दिमाग हमारे बीच सुरक्षित है। उनकी लिखी किताबें, शोध-पत्र, सामयिक विषयों पर लिखे उनके लेख और वो लोग, जिन्होंने बिपन को किसी भी रूप में सुना देखा, हमारे बीच उपलब्ध हैं। इन अर्थों में वो हमारे बीच हमेशा उपस्थित रहेंगे अपने कृतित्व के साथ।
बिपन एक शिक्षक के रूप में साठ वर्षों से ज्यादा रहे। हजारों छात्रों ने उनसे शिक्षा पाई। उनका एक अध्यापक के रूप में अपने छात्रों के साथ जो बर्ताव था, वह आज के समय में एक अचरज सा लगता है। वह भारत की आदि कालीन गुरु-शिष्य परम्परा के हिमायती थे। लेकिन उनका अपने छात्रों के साथ हमेशा दोस्ताना रिश्ता रहा। यह इससे ही जाहिर है कि वो अपने छात्रों को लगभग बाध्य करते थे कि उन्हें ’सर’ या अन्य उपाधियों से न नवाजें बल्कि उन्हें नाम लेकर पुकारें। वो छात्रों के बीच स्वयं को भी एक छात्र मानकर घुलते-मिलते थे, अपने छात्रों को निर्भीक बनाते थे, उन्हें सहज रूप से अपना दिमाग बोलने को प्रेरित करते थे और उन्हें अपने विचारों के प्रति भी आलोचनात्मक दृष्टिकोण से सोंचना सिखाते थे। गांधी की तरह उनका भी मानना था कि उन्हीं विचारों को सही मानो, जो आपको आपकी अपनी सोंच अनुसार सही लगें। इसके अलावा उनका छात्रों से रिश्ता पूरा अनौपचारिक था। वो ऐसे शिक्षक नहीं थे, जो केवल क्लास-रूम सेे ही मतलब रखते हों। छात्रों का जीवन प्रायः कठिन होता है, उन्हें बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कुछ परेशानियां छात्र अपनी उम्र के कारण स्वयं भी पैदा कर लेते हैं। बिपन को छात्र की हर समस्या से मतलब था और वो किसी भी समस्या से अपने छात्र को बाहर निकालने के लिए तत्पर रहते थे। बस शर्त यह थी कि उन्हें ......जारी.....आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....
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उस छात्र में कोई एक भी गुण दिख भर जाए। प्रायः हम देखते हैं कि विश्वविद्यालयी शैक्षिक माहौल सारी बौद्धिकताओं के बावजूद सामंती मूल्यों को बहुत तवज्जो देता है। शिक्षक अपने छात्रों से इसी उम्मीद में रहते हैं कि उनका छात्र उनके झण्डे को स्वीकार करे और एक तरह से उनकी हां में हां मिलाए। बिपन इसके अपवाद थे। छात्रों से बराबरी के स्तर पर मिलना, उनकी बातों को (चाहे वो कितनी भी बेवकूफीपूर्ण क्यों न हों) पूरा ध्यान से सुनना और छात्र के साथ तादात्म्य स्थापित कर उसमें सुधार (विचारधारा के स्तर पर एवं व्यक्तिगत जीवन में भी) करने की कोशिश करना उनकी एक खास शैली थी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह कोई ’उदार’ टाइप के शिक्षक थे। वह अपने छात्रों से शोध कार्यों में वही उम्मीद करते थे जो उन्होंने अपने लिए मानक बनाए थे। किसी भी विषय पर कलम चलाने से पहले सारे पूर्व लेखनों का अध्ययन और उनका आत्मसातीकरण, सारे प्रारम्भिक स्रोतों का अवलोकन और इस गहन द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के दौरान ही अपनी मौलिक अवधारणाओं का निरूपण तथा उन अवधारणाओं को लगातार सत्य और तटस्थता की कसौटी पर आजमाते रहना एवं अपने हृदय के भीतर सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से संचालित होना उनकी एक शोध प्रक्रिया थी, जिससे उनके छात्र को गुजरना ही पड़ता। भाषायी आडम्बरों, जार्गन या अस्पष्ट, घालमेल वाले लेखन से उनका कोई वास्ता नहीं था। उन्होंने छात्रों को सतत् अंतःसंघर्ष (जो किसी भी बुद्धिजीवी के लिए एक अनिवार्य है) के लिए भी प्रेरित किया।
खास बात यह है कि उनका स्वयं का व्यक्तित्व एक शिक्षक के रूप में इतना बहुआयामी था कि वो अपनी पैनी नजर से छात्र की क्षमता और रुचि को पहचान लेते और उसी के अनुरूप उसे सलाहें देते, ताकि छात्र मौलिक योगदान कर सकें। उनका स्पष्ट मानना था कि मौलिक लेखन और चिंतन के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति अपनी सोच में कहीं से भी बनतू न हो।
इसी सन्दर्भ में बिपन के अपने लेखन की ऊंचाइयों को भी समझा जा सकता है। जब उन्होंने अपना सबसे शुरुआती शोध कार्य शुरू किया तो उसका विषय आरम्भिक राष्ट्रवादियों (दादाभाई नौरोजी, रानाडे आदि) के विचारों को भारतीय राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में जांचना-परखना था। बिपन की शुरुआती सोंच वही थी जो रजनी पामदत्त की थी कि आरम्भिक राष्ट्रवादी अंग्रेजी शासन के समर्थन में खड़े याचिका कर्ता मात्र थे।
बिपन ने बताया कि जैसे-जैसे मैंने आरम्भिक राष्ट्रवादियों को पढ़ना शुरु किया वैसे-वैसे मेरी आंखें खुलती गईं और मैंने अपने ही खिलाफ सोंचना शुरु कर दिया। उनका यह शोध कार्य जब दुनिया के सामने आया तो उसने भारतीय राष्ट्रवाद के आधार को समझने के लिए एक बुनियादी ढांचा तैयार कर दिया। यानि उनकी किताब ‘राइज एण्ड ग्रोथ ऑफ इकानॉमिक नेशनलिज्म इन इण्डिया’ जहां एक ओर विश्व स्तरीय मौलिक शोध कार्य का नतीजा थी वहीं दूसरी ओर उनके स्वयं के विरुद्ध आत्म संघर्ष कर सकने की क्षमता की भी द्योतक है। बिपन ने दुनिया को दिखाया कि दादाभाई नौरोजी आदि आरम्भिक राष्ट्रवादी विश्व फलक पर पहले बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने उपनिवेशवाद के वास्तविक चेहरे को पहचाना, समझा और वैज्ञानिक तर्कवादी नजरिए से उसका विवेचन भी किया। बिपन ने बताया कि जब उनकी यह किताब पूरी हो गई तो वो पत्नी के सामने फूट-फूट कर रोने लगे। पत्नी समझीं कि वो किताब
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पूरी होने की खुशी में रो रहे हैं, लेकिन बिपन ने जवाब दिया कि मैं इसलिए रो रहा हूं कि अब यह किताब पूरी होने के बाद मेरा उन महान राष्ट्रवादियों से साथ छूट जाएगा जिनसे मेरी गहरी दोस्ती हो गई थी। यह थे बिपन।
इतिहास मात्र एक कोरा विषय नहीं है जो किसी विशुद्ध ज्ञान की बुनियाद पर लिखा जाता हो। हर इतिहास किन्हीं न किन्हीं अर्थों में सामयिक व राजनीतिक भी होता है। लम्बे ब्रिटिश शासन के दौरान जो उपनिवेशवादी व्यवस्था भारत में कायम हुई उसे सही साबित करने के लिए एक खास तरह की साम्राज्यवादी लेखन का सहारा आजादी के पहले ब्रिटिश शासकों ने लिया और बाद में भी साम्राज्यवादी इतिहास लेखन अपने प्रभाव के रूप में कायम रहा, जो हाल के वर्षों में पुनः जीवित हुआ है।
बिपन चन्द्र ने 60 और 70 के दशक में उस साम्राज्यवादी इतिहास लेखन (जो बिपन की तुलना में तमाम संसाधनों से लैस था) से लोहा लिया और विश्व स्तरीय शोध कार्य करके यह साबित कर दिया कि उपनिवेशवाद हमेशा बुरा ही होता है। ‘‘अंग्रेजी शासन की देन’’ जैसी कोई सकारात्मक चीज कभी नहीं रही और उपनिवेशवाद उस देश के लिए बर्बादी ही लाता है जो उसके चंगुल में फंस जाता है। उन्होंने साम्राज्यवादी इतिहास लेखन के धुरंधरों अनिल सील, गलाघर, मॉरिस डी. मॉरिस जैसों से सघन वैचारिक युद्ध किए। दुनिया भर में तमाम सेमिनार, कान्फ्रेन्सेज में साम्राज्यवादी इतिहास लेखकों को निरुत्तरित किया और उनकी मान्यताओं के खोखलेपन को बौद्धिक जगत में उजागर किया। उनकी यह बौद्धिक जंग हमारे सामने ‘नेशनलिज्म एण्ड कोलोनियलिज्म इन मॉडर्न इण्डिया’ और ‘एसेज आन कोलोनियलिज्म’ जैसी क्लासिक रचनाओं के रूप में सामने है।
दरअसल भारत भाग्यशाली है कि यहां इतिहास लेखन की एक समृद्ध परंपरा आजादी की लड़ाई के दौरान ही विकसित हो गई थी। आजादी के बाद यह मशाल उन प्रखर मेधा सम्पन्न उत्साही इतिहासकारों के हाथ में आई जो कि जहां एक ओर शोध उत्कृष्टता एवं गहन अध्ययनशीलता की मूलभूत चेतना से संपन्न थे, वहीं दूसरी ओर सामाजिक उत्तरदायित्व और भारतीय समाज को एक बेहतर समाज बनाने के संकल्प से भी संचालित थे। प्रो. डी.डी. कौशाम्बी के बाद आर.एस. शर्मा, रोमिला थापर (प्राचीन भारत), इरफान हबीब (मध्यकालीन भारत) और बिपन चन्द्र (आधुनिक भारत) ने सामूहिक रूप से यह ठाना कि हमें भारतीय इतिहास को न केवल औपनिवेशिक वर्चस्ववाद से मुक्त करना है बल्कि भारतीय समाज के भीतर मौजूद कमजोरियों और नकारात्मक प्रवृत्तियों की भी ऐतिहासिक पड़ताल करनी है।
इसी क्रम में बिपन 50-60 के दशकों में ही इस नतीजे पर पहुंच गए कि साम्प्रदायिकता भारतीय समाज को खोखला करने वाली एक राजनीतिक विचारधारा है, जिसकी जड़ें इतिहास के प्रति कुछ धार्मिक पूर्वाग्रहों एवं गलत फहमियों में हैं। उन्होंने समझा कि साम्प्रदायिकता का मूल आधार साम्प्रदायिक इतिहास लेखन है। इसी क्रम में उन्होंने लेखकत्रयी पुस्तिका ‘कम्युनलिज्म एण्ड राइटिंग ऑफ इण्डियन हिस्ट्री’ में आधुनिक भारत के
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इतिहास लेखन में साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों को रेखांकित किया। साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर वह लगातार सोंचते और शोध करते रहे, जो बाद में उनकी किताब ‘कम्युनलिज्म इन मॉडर्न इण्डिया’ के रूप में सामने आया। भारत में साम्प्रदायिकता को समझने के लिए यह किताब एक मील का पत्थर है और इस विषय पर लिखी शायद सबसे महत्वपूर्ण विचारधारात्मक किताब भी यह हो। बाद में जब आज से 10 साल पहले उनकी आंखें खराब हो रही थीं और लिखना-पढ़ना कठिन होता जा रहा था तब भी उन्होंने 2004 के चुनाव को भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण बिन्दु मानते हुए पुनः साम्प्रदायिकता की समस्या को रेखांकित किया और आम जनता को ध्यान में रखते हुए एक पुस्तिका लिखी-‘कम्युनलिज्म ए प्राइमर।’
बताते हैं कि बिपन ने इस पुस्तिका को बढ़ती उम्र और शुरू होती शारीरिक परेशानियों के बाद भी सड़कों पर 20 रुपए में बेचा। यह थे बिपन।
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन था क्या? बिपन से पहले राष्ट्रवादी इतिहासकार भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को सर्वथा अतिरंजित महिमा मंडित करने की दृष्टि से लिखते थे। वहीं दूसरी ओर वामपंथी इतिहासकार रजनी पामदत्त की सोंच के बौद्धिक आतंक में थे। वो राष्ट्रीय आन्दोलन को एक सकारात्मक कदम तो मानते थे, लेकिन वर्गीय विश्लेषण को यांत्रिक तरीके से लागू कर आन्दोलन की सीमाओं को अधिक रेखांकित करते हुए उसे विश्व की अन्य महान क्रान्तियों के समकक्ष रखने में झिझकते भी थे। बिपन भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया में पहले इतिहासकार हुए जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का विश्लेषण एक नए अंदाज में किया और पाया कि इसका लगभग वही महत्व है जो संसार की अन्य महान क्रान्तियों का है। उन्होंने सिद्ध किया कि हमें एक जागरूक नागरिक होने के नाते अपनी राष्ट्रीय आन्दोलन की ऐतिहासिक विरासत को न केवल जानने बल्कि आत्मसात करने की भी आवश्यकता है।
इस क्रम में उनकी कालजयी किताब ‘इंडियाज स्ट्रगल फाॅर इंडिपेंडेंस’ सामने आई और संभवतः घर-घर में जाने वाली वह एक मात्र किताब बनी। यहां यह जानना जरूरी है कि उन्होंने इस किताब को केवल पुस्तकालयों में उपलब्ध शोध सामग्रियों के आधार पर ही नहीं लिखा बल्कि पूरे देश में घूम-घूम कर हजारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के अनुभव साक्षात्कार के रूप में इकट्ठे किए और उनके अनुभवों को अपने इतिहास लेखन का मुख्य आधार बनाया। बाद में जब उन्होंने देखा कि लोगों में आजादी के बाद के भारत के बनने की तस्वीर की समझ लगभग न जानकारी के स्तर पर है तो फिर एक दूसरी कालजयी उनकी किताब सामने आई। वह थी-‘इंडिया आफ्टर इंडिपेंडेंस।’ यह किताब उनकी आजादी की लड़ाई की किताब की श्रृंखला में ही है और लोकप्रियता के कीर्तिमान बना रही है। इस तरह से हम कह सकते हैं कि उन्होंने 1850 से लेकर आज तक के हिन्दुस्तान की एक मुकम्मल तस्वीर देश और दुनिया के सामने रखी, जो कि एक ओर तो औपनिवेशिक बौद्धिक बंधनों से मुक्त है वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज की नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रति लगातार आगाह भी करती चलती है।
एक लोकतांत्रिक समाज में जन आन्दोलनों की भूमिका क्या है? यह एक महत्वपूर्ण बौद्धिक सवाल है जिसका उत्तर तलाशने के लिए बिपन ने स्वातंत्रयोत्तर भारतीय राजनीति के सबसे विवादास्पद समय आपातकाल को अपने अध्ययन का बिन्दु बनाया और गहन आत्म मंथन एवं इतिहासपरक समझ के आधार पर एक किताब और लिखी, वह थी-‘इन दि नेम ऑफ डेमोक्रेसी: जेपी मूवमेन्ट एण्ड इमर्जेन्सी।’
बिपन पर उनके विरोधियों ने आपातकाल के दौरान और बाद में भी यह मनगढ़न्त आरोप लगाया कि बिपन इमर्जेन्सी के समर्थक थे। इस किताब के माध्यम से उन्होंने यह आरोप खारिज किया और बताने की कोशिश की कि जयप्रकाश नारायन की राजनीतिक समझ, एक व्यक्ति के रूप में उनकी सारी महानताओं के बावजूद, गलत, भ्रम पूर्ण और अदूरदृष्टि वाली थी। वहीं इन्दिरा गांधी द्वारा जेपी आन्दोलन को रोकने के लिए जो कदम उठाए गए वह भी गलत थे। साथ ही उन्होंने उस खतरे को भी भांप लिया जिसके कारण साम्प्रदायिक राजनीति भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में फिर से इज्जतदार ओहदा पाने की ओर बढ़ी और इसका बहुत बड़ा कारण जेपी के द्वारा साम्प्रदायिकों को अपने आन्दोलन में शामिल कर खुली छूट देना था।
बिपन इतिहास को केवल इतिहासकारों के मध्य होने वाली बौद्धिक बहसों तक सीमित नहीं मानते थे। उनकी स्पष्ट सोच थी कि यदि किसी देश की जनता की इतिहास की समझ अविवेक पूर्ण है तो उसकी राजनीति भी भटकाव वाली होगी। इसीलिए एक इतिहासकार को व्यापक अर्थों में आसान भाषा में न केवल विशाल जनसमुदाय को ध्यान में रखकर लिखना चाहिए बल्कि उससे भी आगे जाकर स्कूली शिक्षा के लिए भी लिखना उसकी महती जिम्मेदारी है, क्योंकि यदि बच्चों को गलत इतिहास पढ़ाया जाएगा तो वह आगे चलकर या तो गलत राजनीति


