बीमार हैं हरियाणा के अस्पताल
बीमार हैं हरियाणा के अस्पताल
निर्मल रानी
सरकारी हस्पतालों में व्याप्त अव्यवस्था के किस्से कोई नए नहीं हैं। देश के लगभग सभी राज्यों के सरकारी अस्पताल किसी न किसी दुर्व्यवस्था का शिकार रहते हैं। परंतु निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि हरियाणा जैसे देश के समृद्ध राज्य के सरकारी अस्पताल जिन्हें 'अपना अस्पताल कहा जाता है इनका संचालन तथा इनकी व्यवस्था आदि अन्य राज्यों के अस्पतालों से फिर भी कहीं बेहतर है। ज़ाहिर है इसका कारण यही है कि हरियाणा सरकार समय-समय पर अस्पताल से संबंधित ज़रूरतों व मरीज़ों को दी जाने वाली सुविधाओं की समीक्षा करती रहती है तथा अपनी सामथ्र्य के अनुसार उन्हें पूरा करती रहती है। इस समय लगभग पूरे राज्य में सरकारी अस्पतालों को नए विशाल भवन मिल चुके हैं। इनमें अधिक से अधिक बिस्तरों की व्यवस्था मरीज़ों हेतु की गई है। स्थान के अनुसार कई शहरों में अस्पताल के साथ पार्क आदि का भी प्रबंध किया गया है। तमाम आधुनिक मशीनों व यंत्रों से इन अस्पतालों को आरास्ता किया गया है। गोया सरकार चाहती है कि हरियाणा की जनता को सही समय पर सही इलाज सरकारी अस्पतालों में मिल सके तथा हरियाणावासी स्वस्थ रहें।
परंतु राज्य सकार के ऐसे तमाम सकारात्मक प्रयासों के बावजूद इन्हीं अस्पतालों में तमाम ऐसी दुर्व्यवस्था भी देखने को मिलती हैं जिनकी जिम्मेदारी हालांकि अस्पताल से जुड़े निचले स्तर के कर्मचारियों अथवा ठेकेदारों की होती है परंतु इनका खा़मियाज़ा आखिरकार आम लोगों विशेषकर मरीज़ों को ही भुगतना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर अंबाला शहर के सिविल अस्पताल को ही ले लीजिए। इस 'अपना अस्पताल' के नए भवन को बने हुए लगभग डेढ़ दशक बीत चुके हैं। निश्चित रूप से इस अस्पताल का भवन बहुत ही विशाल है। यह पूरा अस्पताल तीन मंजि़ला इमारत पर आधारित है। इसमें दूसरी व तीसरी मंजि़ल पर मरीज़ों के भर्ती होने के वार्ड तथा आप्रेशन थियेटर आदि हैं। राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय बंसीलाल द्वारा इस अस्पताल का शुभारंभ किया गया था। सरकार द्वारा अस्पताल में मरीज़ों की सुविधाओं हेतु एक लिफ्ट भी लगवाई गई थी ताकि मरीज़ों को सीढिय़ों पर चढऩे की परेशानी न उठानी पड़े। ज़ाहिर है इस लिफ्ट के लगाने में सरकार को लाखों रुपये खर्च करने पड़े होंगे। परंतु यह लिफ्ट अस्पताल में लगने के बाद से लेकर अब तक नहीं चल सकी है। इसका सही कारण क्या है किसी को नहीं पता। कोई तो यह बताता है कि लिफ्ट लगते ही खराब हो गई थी उसी समय से नहीं चली। तो कोई लिफ्ट लगाने वाली कंपनी को पूरे पैसे न मिलने की बात करता है। नतीजा यह है कि जहां सरकार का पैसा लिफ्ट लगवाने में बरबाद हो गया वहीं उस लिफ्ट ने इस सरकारी भवन के तीनों मंजि़ल पर अपना स्थान भी घेर रखा है। यह लिफ्ट आज मरीज़ों को आराम पहुंचाने के बजाए कबाडखाना बनकर रह गई है।
इस प्रकरण में सरकार की नीयत साफ दिखाई देती है कि वह मरीज़ों को उनकी सुविधा हेतु लिफ्ट मुहैया कराना चाहती थी और वह लिफ्ट लगवाई भी गई। परंतु राज्य सरकार के लिए आखिर यह किस प्रकार संभव है कि वह इस बात की भी निगरानी करती रहे कि किस अस्पताल की कौन सी लिफ्ट चल रही है या नहीं? और यदि नहीं तो क्यों नहीं? ज़ाहिर है इस प्रकार के निचले स्तर के कामों की जिम्मे दारी अस्पताल के स्थानीय प्रशासन,संबंधित आपूर्तिकर्ताओं या ठेकेदारों की ही होती है और यह तबका अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभा पा रहा है जिसके परिणामस्वरूप डेढ़ दशक से यह लिफ्ट बंद पड़ी है। परिणामस्वरूप जहां मरीज़ों को अस्पताल के ऊपर आने-जाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है वहीं सरकार के लाखों रुपयों पर भी पानी फिर गया है।
इसी प्रकार पिछले दिनों एक अत्यंत छोटी परंतु बहुत महत्वपूर्ण कही जा सकने वाली घटना इसी अस्पताल में देखने को मिली। गर्मी का महीना शुरु होने से पहले ही अस्पतालों के पंखे दुरुस्त कराने हेतु बड़ी ही मुस्तैदी से छत से उतारे जा रहे थे। पता चला कि लगभग प्रत्येक वर्ष ग्रीष्म ऋतु शुरु होने से पहले इन्हें ठीक-ठाक कराया जाता है ताकि समय पर सुचारु रूप से यह चल सकें। यहां यह लिखने की आवश्यकता नहीं कि उन पंखों में कितने पंखे ठीक व चलती हुई स्थिति में उतरते हैं तथा अस्पताल से जुड़ा बिजली का ठेकेदार उन्हीं में कितने पंखों को खराब बता देता है। इसी अस्पताल के एक हॉल में जहां बड़ी संख्या में मरीज़ों का आना-जाना रहता है, में लगे चारों पंखे उतार लिए गए। इन पंखों को काफी समय अंतराल के बाद यानी गर्मियों के दौरान एक-एक कर लटका भी दिया गया। परंतु एक पंखा नहीं लग सका। धीरे-धीरे गर्मी बढ़ती गई और अस्पताल कक्ष के उस कोने में मरीज़ों को काफी तकलीफ उठानी पड़ी जहां कि पंखा नहीं लटका था। लगभग आधी गर्मी अर्थात् गर्मी के दो महीने बीत जाने के बावजूद वह पंखा नहीं लगाया गया। यहां तक कि एक बार कुछ मरीज़ों ने सीएमओ तक से उस पंखे के विषय में शिकायत की। फिर भी काफी दिनों तक पंखा नहीं लगा। आखिरकार सावन माह के अंतिम सप्ताह में ठेकेदार ने एक बिजली मिस्त्री के हाथों पंखा लगाने हेतु अस्पताल में भेजा। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि लगभग 6 महीने बाद कथित तौर पर मर्रामत होकर आया हुआ पंखा जब छत पर लटकाया गया तब भी वह नहीं चला। तब मिस्त्री ने पूछने पर यह बताया कि पंखे को रिपेयर किया ही नहीं गया। यह भी पता चला कि पंखे की रिपेयर के पांच सौ रुपये प्रति पंखे की दर से ठेकेदार को दिए जाते हैं। और वह पंखा 6 महीने बाद लटका कर महज़ 6 मिनटों में ही पुन: उतार लिया गया। यहां बस एक ही प्रश्र है कि क्या ठेकेदार या मिस्त्री अथवा ऐसे निक्कमे लोगों पर विश्वास करने वाले अस्पताल के अधिकारी अपने निजी व घरेलू कामों में भी इसी प्रकार की लापरवाही बरतते होंगे? शायद हरगिज़ नहीं। सोचा जा सकता है कि जब एक कमरे के एक पंखे के साथ ठेकेदार का ऐसा रवैया है फिर पूरे अस्पताल के सैकड़ों पंखों व बिजली के अन्य उपकरणों की मरम्मत आदि में वह क्या गुल खिलाता होगा?
इसी प्रकार इसी अस्पताल का निचले तल का शौचालय गत् कई वर्षों से नियमित रूप से काम नहीं करता। कभी शौचालय में गंदगी का ढेर, कभी उसका एक दरवाज़ा टूटा हुआ, कभी पानी की टूंटी गायब तो कभी टूटी है तो पानी नहीं। दुर्व्यवस्था के इसी वातावरण में कई साल गुज़र गए। परंतु शौचालय व्यवस्थित तो नहीं हुआ हां गत् कई माह से उसकी पुन: मरम्मत का कार्य ज़रूर चल रहा है। इस तोडफ़ोड़ व मरम्मत को शुरु हुए भी लगभग तीन माह बीत चुके हैं। परंतु शौचालय का काम है कि शायद सरकारी काम होने के नाते अपनी कछुआ गति से ही चल रहा है। शौचालय के अभाव के चलते मरीज़ों के होने वाले दु:ख-तकलीफ की कोई फ़िक्र न तो अस्पताल अधिकारियों को है न ही ठेकेदारों को। इसी प्रकार अस्पताल प्रशासन ने डॉक्टरों को कई कमरे ऐसी जगहों पर आबंटित किए हैं जहां मरीज़ों की व अस्पताल के स्टाफ व अस्पताल संबंधी तमाम सामग्रियों की मुख्य रहगुज़र है। ऐसे में जब मरीज़ों की भीड़ डॉक्टर के कमरे के बाहर इकट्टी हो जाती है उस समय अन्य लोगों का उधर से आना-जाना बहुत मुश्किल हो जाता है। यहां घोर अंधेरा भी रहता है। जिससे बहुत से लोग मरीज़ों को धोखे से ठोकर लगा जाते हैं और मरीज़ की तकलीफ और बढ़ जाती है। यह सभी बातें हालांकि बहुत छोटी ज़रूर प्रतीत होती हैं परंतु आए दिन मरीज़ों को इन्हीं हालात से रूबरू होना पड़ता है और तकलीफें उठानी पड़ती हैं।
इन दिनों हरियाणा सरकार निजी अस्पतालों में छापेमारी कर यह देख रही है कि इन निजी अस्पतालों में तथा इनके आप्रेशन थियेटर आदि में रख-रखाव के सभी सरकारी निर्धारित मापदंडों को अपनाया गया है या नहीं। राज्य के कई शहरों में इस प्रकार की छापेमारी के समाचार हैं। निश्चित रूप से निजी अस्पतालों पर व उनमें व्याप्त दुर्व्यवस्थाओं पर अंकुश लगाना बहुत ज़रूरी है। परंतु कितना अच्छा होता यदि सरकार इस प्रकार की छापेमारी सर्वप्रथम सरकारी अस्पतालों, वहां के बदहाल शल्य चिकित्सा कक्षों तथा मैटरनिटी कक्ष में करवाती। इनके शौचालयों को सुचारु करती तथा मरीज़ों को होने वाली दु:ख-तकलीफों को सुनती और उनका निवारण करती तो ज़्यादा बेहतर होता। यदि हम इन सब की गहराई में जाएं तो हमें इन सब बातों का कारण फकत एक ही शब्द में मिल जाएग। जिसका नाम है 'भ्रष्टाचार'। भ्रष्टाचार ही एक ऐसा कारण है जिसकी वजह से दुर्व्यवस्था के इस नेटवर्क से जुड़ा कोई भी अधिकारी, ठेकेदार, कर्मचारी या डॉक्टर एक-दूसरे को ज़ोर-ज़बरदस्ती से कुछ कह ही नहीं सकता। उनसे आंखें मिला कर बात नहीं कर सकता तथा किसी दुर्व्यवस्था के लिए इस नेटवर्क के किसी एक व्यक्ति को अकेला जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता।


