बुरी से बुरी खबरों के लिए अच्छे, बेहद अच्छे दिन हैं
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रामराजमध्ये खूनी अस्सी दशक की दस्तक कयामती और जार्ज आरवेल का 1984
हारे हुए असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई, बंगाल की परिवर्तनकारी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अच्छे समय़ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरी राजनीति शरणारथी कार्ड खेलकर विभाजन समय की पुनरावृत्ति दोहराकर अस्सी के दशक की वापसी पर आमादा हैं।
पलाश विश्वास
जार्ज आरवेल ने साम्यवादी व्यवस्था की परिणति का खाका खींचने के मकसद से 1984 और एनीमल फार्म जैसी रचनाएं लिखी हैं।
पूंजी के पीछे वामपंथ की अंधी दौड़ को रेखांकित करने और प्रतिरोध बतौर बंगाल में एनीमल फार्म का निषिद्ध प्रतिवादी मंचन चर्चित रहा है नंदीग्राम सिंगुर समय में।
अब मां माटी जमाने में वह एनीमल फार्म सूअर भगाओ अभियानमध्ये सांढ़ संस्कृति का ही धारक वाहक एपीसेंटर है। तो मुक्त बाजारी बंदोबस्त में साम्यवादी व्यवस्था की परिणति बतौर बहुचर्चित आरवेल के उपन्यास 1984 का कथानक मुकम्मल सांढ़ संस्कृति का आइना है।
स्वतंत्र भारत में अस्सी का दशक सबसे खूनी रहा है।
हरित क्रांति के कारण साठ के मोहभंग और सत्तर के प्रतिरोध समय के आर पार भारतीय उत्पादन प्रणाली में विदेशी पूंजी और विदेशी हितों के डबल डोज का जहरीला असर कृषि संकट के आत्मघाती हिंसा परिदृश्य में बदल जाने का आधार दशक है अस्सी तो इसी दशक के मध्य भोपाल गैस त्रासदी जैसी औद्योगिक दुर्घटना मध्ये जैविकी हथियारों का व्यापक विनाशकारी प्रयोग,पंजाब और असम त्रिपुरा में गहराये कृषि संकट के धर्म क्षेत्रीयतावादी हिंसक महाविस्फोट, आपरेशन ब्लू स्टार, राममंदिर का ताला खोलने से शुरू बाबरी विध्वंस आंदोलन और मंडल कमंडल घनघोर, सिखों के संहार और अल्फाई उन्माद के अलावा देश व्यापी सांप्रदायिक दंगों, अभूतपूर्व आर्थिक संकट भुगतान का खूंखार कटखना कोलाज हैं।
ताजा हालात के मध्य विचारनियंत्रक, स्वप्न नियंत्रक केसरिया कारपोरेट रोबोटिक सैम जायनी अठारह अक्षयिनी सेनाओं के चक्रव्यूह के मध्य तिलिस्मी गैसीय अंधकारमध्ये वह अस्सी का दशक फिर जीवंत होने लगा है।
असम के दंगा परिदृश्य से बचपन से साक्षात्कार होता रहा, वहां दंगाग्रस्त जिलों में पिता और चिकित्सक चाचा की पीड़ितों के बीच सक्रियता के मध्य तो सिखी सोहबत में पले बढ़े नैनीताली तराई के साझा चूल्हा बचपन के लहूलुहान होते जाना दशकों का भोगा हुआ यथार्थ है।
अस्सी के दशक में बाकायदा दैनिक अखबार के संस्करण प्रभारी मुख्य संवादददाता की बस से उतारकर मार दिये जाने की खबर वारदात हो जाने से पहले छापने की अभिज्ञता भी है, जिसमें घटनास्थल और मारे जाने वाले लोगों की तादाद जैसे तमाम ब्यौरे हूबहू।
यह करिश्मा इसलिए संभव हुआ कि वे महामहिम संवाददाता स्वयं इस कांड के रचयिताओं में थे, तो अपने संवाददाता की रपट हम रोक नहीं सकते थे।
विडंबना यह कि, और उसी परिदृश्य में शहर में नये प्रतिद्वंद्वी अखबार की सुर्खियों से ही मलियाना और हाशिमपुरा की वारदातों को हमने जाना।
मीडिया के केसरिया हो जाने, उत्पादन प्रणाली के हिंदुत्वकरण जरिये कारपोरेट हो जाने की यह कथा व्यथा मैंने अपने लघु उपन्यास उनका मिशन में लिखा।
महाश्वेता दी और नवारुणदा के कहने पर यह उपन्यास संपूर्ण लिखा बांग्ला में भी और वाम धर्मनिरपेक्ष जमाने के बांग्ला अकादमी की अलमारी में शायद वह पांडुलिपि अब भी कैद होगी।
इस उपन्यास को समकालीन परिदृश्य में पढ़ने के बाद पुस्तक के लिए कवर तैयार किया था मशहूर चित्रकार अशोकदा भौमिक ने।
हिंदी या बांग्ला में यह उपन्यास आज भी पुस्तकाकार अप्रकाशित है।
मेरा गांव बसंतीपुर बंगाली शरणार्थी उपनिवेश का सीमांत गांव है और आज भी हमारी ग्रामसभा में बंगाली और सिख प्रधान बारी-बारी से बनते हैं।
जैसे बिना रक्त संबंध बसंतीपुर के सारे लोग हमारे परिजन आत्मीय अंतरंग हैं, वैसे ही मेरे गांव के बाद अर्जुनपुर अमरपुर रायपुर से लेकर रूद्रपुर से काशीपुर तक के सिख भूगोल में अनेक लोग मेरे परिजन रहे हैं। इनमें सरदार भगत सिंह से लेकर शहीदे आजम भगतसिंह के परिजन भी शामिल रहे हैं।
बल्ली सिंह चीमा से हमारी सीधी मुलाकात नहीं है लेकिन हमारी टीम इतनी एकात्म रही है पहाड़ों और तराई में कि वह बिना किसी मुलाकात के मेरे परिवार में ही शामिल है।
कैप्टेन नजीर सिंह, अर्जुनपुर के सरदार वचन सिंह, सरदार तोता सिंह, सरदार हरदर सिंह, अमरपुर के सरदार शेर सिंह हमारे परिजनों के मध्य अभिभावक जैसे रहे हैं।
भूमि विवाद में बंसतीपुर के दस परिवारों के साथ अमरपुर वालों की लंबी मुकदमेबाजी हुई तो थी लेकिन दोनों गांवों के बीच मामला अदालत में निपटारा बंगालियों के हक में होने का बावजूद शुरू से लेकर आज तक रिश्ता मधुर कहें तो कम ही कहना होगा।
मेरे पिता बाजपुर के सरदार दलजीत सिंह और एसएन शर्मा के करीबी रहे तो उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे गदरपुर इलाके के सरदार भगत सिंह, जिनको पिताजी ने पहले तो ऱूद्रपुर के तराई विकास सहकारी संघ के चुनाव में सीधे मुकाबले में हरा दिया और अगले ही साल उन्हीं के समर्थन से निर्विरोध चुने गये।
दोनों में आखिर तक बनी नहीं और दोनों तराई के दिग्गज नेता थे।
पिताजी से मेरी मित्रता जितनी रही है, उत्तरआधुनिक फिल्मी पिताओं के लिए वह भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है। जब मैं कक्षा दो में था, पारिवारीरिक, सामाजिक से लेकर राष्ट्रीय मसलों पर वे हमेशा मुझसे विचार विनिमय करते थे, ज्ञान नहीं देते थे। अपना अनुभव मीठा कड़वा शेयर करते थे। तो उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी भगतसिंह जी भी मुझसे सलाह मशविरा करने से चूकते न थे। हमारे प्रति उनका स्नेह किसी हाल में उनके अपने परिजनों के हिस्से से कम न था।
यही नहीं, बंगाली लड़कियों ने शायद ही मेरी तरफ घूमकर कभी देखा हो। इसके उलट मेरी सिख सहपाठिनों का स्कूल से लेकर डीएसबी तक मेरे साथ बेहतरीन दोस्ताना रहा है। स्कूल में भी सिख लड़कियां मेरे प्रति नरम हुआ करती थीं। लेकिन बंगाली सिख समीकरण का दायरा तोड़कर बाहर निकलने की हिम्मत मुझमें तब थी ही नहीं।
लेकिन वह दायरा भी हमारे परिवार में ही टूटा, जब सरदार तोता सिंह के पोते और मेरे सहपाठी सुरजीत के भतीजे के साथ मेरी तहेरी बहन रानी ने शादी कर ली।
गांव बसंतीपुर वालों ने अब भी यह रिश्ता कबूल नहीं किया है। गांव के पंचायती फैसले सर माथे उस बहन से हमारे परिवार का कोई रिश्ता भी नहीं है।
यहां तक कि रानी अपने पिता, मां, अपने चाचा, चाची के निधन पर भी पारिवारिक शोक में शामिल हो न सकी। लेकिन मैं उसके विलाप में शामिल होकर भी गांववालों के साथ रहा हूं।
जैसे तमाम सिख गांवों के लोग बाबा गणेशा सिंह और चौधरी नेपाल सिंह के नेतृत्व में ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के वक्त पिता के हीरावल दस्ते में शामिल रहे हैं, वैसे ही मेरे गांव के लोगों ने मेरी मां के नाम पर यह जो गांव बसाया, उसमें सारे लोग राणाघाट कूपर्स कैंप और बंगाल के दूसरे कैंपों से बंगाल में शरणार्थी आंदोलन में पिता के साथी रहे हैं, तो वे ओडीशा में भी एक ही कैंप में रहे औ रनैनीताल में बस जाने का उनका सामूहिक फैसला था अस्मिताओं के आर पार का।
वे मानसिकता में, रीति रिवाज, सामाजिक बंधन में अब भी पूर्वी बंगाल की उनीसवी सदी में हैं और गांव अब इक्कीसवी सदी में है।
इस विरोधाभास के खिलाफ कभी कभार भाई पद्दोलोचन तल्ख टिप्पणी भी कर देते हैं। लेकिन खुद लहूलुहान होते जाने के बावजूद साझा चूल्हा, अरक्त आत्मीयता और संघर्ष और आंदोलन के उस अटूट रिश्ते के लिहाज से गांव के फैसले के खिलाफ अब तक मैं कुछ भी नहीं कह पाया। शायद आगे भी यह असंभव होगा।
मैं जब बरेली में था तो आपरेशन ब्लू स्टार में रानी का वह पति पुलिस हिरासत में ले लिया गया और अब तक लौटा नहीं है।
जैसे कि अस्सी के दशक में सिख परिवारों में खूब हुआ है, रानी की शादी उसके गुमशुदा पति के भाई से कराकर उसके परिवार ने उसकी सुरक्षा बहाल की है।
यह निजी ब्यौरा इसलिए कि सिख राजनीति और राष्ट्र से उसके टकराव की वजह से हमारे भी लहूलुहान होने का इतिहास भूगोल रहा है और इस नाते इस बारे में मेरा भी बोलने का हक बनता है।
जब आपरेशन ब्लू स्टार हुआ तब हम रांची में अछपे प्रभात खबर के प्रकाशन का इंतजार करते हुए डमी निकाल रहे थे और आपरेशन टेबिल पर पड़े देश को लेकर राजेंद्र माथुर और माननीय प्रभाष जोशी की अद्भुत युगलबंदी देख रहे थे।
दोनों ने हैरतअंगेज ढंग से आपरेशन ब्लू स्टार को निर्देशित किया था संपादक की कुर्सी से। हमने अस्सी के दशक में कमांडो की सुरक्षा में घिरे प्रभाष जी को भी देखा और उनके साथ संपादकीय में काम करते रहने के बावजूद रघुवीर सहाय के मुकाबले उन्हें पत्रकारिता का मसीहा मानने से इसीलिए उनके जीवनकाल में ही उनके संपादकत्व के मातहत ही बार-बार इंकार करता रहा हूं।
अस्सी का दशक आरवेल के कथानक के भारतीय अध्याय का प्रारंभ है।
आपातकाल से देश का उतना बड़ा सर्वनाश नहीं हुआ, जितना आपरेशन ब्लू स्टार के दौरान जारी कर्फ्यू, स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई, उसके खिलाफ सेना में विद्रोह, इंदिरा गांधी की हत्या और सिखों के संहार से हुआ।
उस वक्त रोजनामचा दर्ज कराने की तकनीक हमारी थी नहीं। अखबार पूरी तरह तब भी केसरिया बन गये थे।
राष्ट्रपति भवन में देश के प्रथम नागरिक निर्वाक थे तो देश के गृहमंत्री सिख होने के बावजूद सिखों का कत्लेआम देखने को अभिशप्त और तब संघ परिवार पूरी तरह 1971 के मोड में इंदिरा के साथ।
आपातकाल के खिलाफ मीसाबंदी रहे संघियों की यह सामरसाल्ट इतिहास में कायदे से दर्ज भी नहीं है और इतिहास का कोई तीसरा अंपायर भी होता नहीं है।
मैं अब बार बार यही सोचता हूं कि संघ परिवार ने दरअसल बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का समर्थन किया था या नक्सल दमन का या भूमि सुधार की सदियों पुरानी बहुजन समाज की मांग से उपजे कृषि विद्रोह के महाविस्फोट में जमींदारों, भूस्वामियों और राजे रजवाड़ों के हितों के लिए जनविद्रोह के विरुद्ध शुरु मौलिक सलवा जुडुम का समर्थन किया उन्होंने।
शक की गुंजाइश बहुत है, खास कर जल जंगल जमीन आजीविका की लड़ाई में सत्ता वर्ग की राजनीति के दमनकारी राष्ट्र में तब्दील हो जाने के बाद उनके विरुद्ध संघी सलवा जुड़ुम और पंजाब में कृषि संकट को टालने के लिए जैल सिंह, बूटा सिंह बनाम संत भिंडरावाला, लोंगोवाल और तलवंडी की आत्मघाती राजनीति की परिणति बतौर भारत के सर्वश्रेष्ठ किसानों के खिलाफ राष्ट्र की सैन्य कार्रवाई और आदिवासियों की अविराम बेदखली के लिए आदिवासी भूगोल के खिलाफ राष्ट्र के निरंतर युद्ध और सलवा जुड़ुम के प्रेक्षापट भले ही अलग अलग हैं, यह समूचा कथानक लेकिन या तो जार्ज आरवेल का 1984 है या फिर फिल्म अवतार का वह एकाधिकारवादी वैज्ञानिक कारपोरेट जायनी आक्रमण।
पंजाब में और बाकी देश दुनिया में सिख धर्म और राजनीति फिर उसी अस्सी के मोड़ पर है। अकाल तख्त और शिरमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के माध्यमे पंजाब और बाकी देश की सत्ता की राजनीति जो सिखों के कत्लेआम में धर्मनिरपेक्ष धर्मोन्मादी राजनीतिक पक्षों की युगलबंदी हिंदुत्व के ध्रुवीकरण के जरिये मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था की बुनियादी आचरणविधि प्राविधि बन गयी, वही राजनीति फिर सिखों और सिखी की तबाही का सबब बनती नजर आ रही है।
अभी तक भारत विभाजन की त्रासदी का सिलसिला जारी है हालांकि सिख और पंजाबी साझा चूल्हा उस त्रासदी के दायरे से बाहर हैं और पूर्वी बंगाल के स्थापित जनसमुदाय अब उस रक्तपात की यादों को भुला चुका है।
पंजाब और बंगाल विभाजनपीड़ितों की त्रासदी के मुखातिब होने से इंकार कर रहा है विभाजन के तुंरत बाद से।
तो यह भी सच है कि सत्ता की राजनीति में बदलकर अकाली राजनीति अब केसरिया है और कांग्रेस विरोध की एक चक्षु राजनीति की वजह से वर्णवर्चस्वी नस्ली सिख विरोधी राजनीति की नब्ज पकड़ने में नाकाम वह फिर सिखों को ही नहीं, बाकी देश को भी फिर वहीं अस्सी के दशक की दहलीज पर खड़ा कर रही है।
सिखों के नरसंहार, मध्य भारत में और बाकी देश के आदिवासी इलाकों में संवैधानिक प्रावधानों, सुप्रीम कोर्ट के हुक्मनामा नागरिक मानवाधिकार व लोकतंत्र व कानून के राज के विरुद्ध आदिवासियों के विरुद्ध सलवा जुड़ुम, भोपाल गैस त्रासदी से शुरु स्मार्ट शहरी औद्योगीककरण, बाबरी विध्वंस आंदोलन और मंडल कमंडल मुक्तबाजारी 1984 के अलग- अलग एनीमल फार्म ही हैं, जिन्हें हम अस्मिताओं के तिलिस्म में कैद मुक्तबाजारी हैलोजिन लाइट और कार्निवाल मुखौटों की वजह से एह उपन्यास के पाठ बतौर देख नहीं पा रहे हैं।
जबकि रामजन्म से पहले ही रामायण लिखा गया था, यह भी प्रचंड लोक आस्था है।
इसी परिप्रेक्ष्य में असम और पूर्वोत्तर में अस्सी के रक्ताक्त दशक और उल्फा समय को देखें तो हैरत अंगेज तरीके से आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के धर्मांध केसरिया ध्रुवीकृत जायनी समय में जैसे संकट ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़े पंजाब पर गहराते संकट के बादल से मानसून समय का भारत अनजान है वैसे ही असम और त्रिपुरा समेत पूर्वोत्तर में नरसंहार संस्कृति के आवाहन बतौर घुसपैठियों के खिलाफ जिहाद के आवाहन को भी जनादेश की धूम में सिरे से नजरअंजदाज कर दिया गया है। हारे हुए असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई, बंगाल की परिवर्तनकारी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अच्छे समय़ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरी राजनीति शरणारथी कार्ड खेलकर विभाजन समय की पुनरावृत्ति दोहराकर अस्सी के दशक की वापसी पर आमादा हैं।
अब फिर अल्फा ने शरणार्थियों के हक में हिंदुत्व की राजनीति को खारिज करते हुए असम से हर घुसपैठिये को खदेड़ने का अल्टीमेटम जारी करके राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी है। यह कोई बंदरघुड़की है, ऐसा भी नहीं है, ऐसा अल्फा इतिहास भी है।
इस वक्त मैं यूपी में नहीं हूं। आपरेशन ब्लू स्टार के वक्त में रांची में था। इंदिरा हत्या के वक्त मैं मेरठ में था तो मंडल कमंडल ध्रुवीकरण मध्ये खाडी़ युद्ध के समय बरेली में।
अयोध्या से यरूशलम तक व्याप्त वह जायनी समय फिर लौटकर आ रहा है कयामत बनकर, दबे पांव हत्यारों की यह बढ़त हमें नजर नहीं आती और कानों में संगीत ठूंसा है विकास कामसूत्र का।
इजरायली हमले में गाजापट्टी और भारत में दंगे एकात्म हैं।
मैं यूपी के दंगापीड़ित इलाकों से हजार मील दूरी पर हूं लेकिन आगजनी का उन्माद को अपनी आंखों के समाने घटित होते देख रहा हूं।
असहाय शरणार्थी स्त्रियों और बच्चों के विलाप मेरे कान बहरा रहे हैं और कोलकाता की मानसूनी हवाओं में भी मुझे इंसानी हड्डियों की चटखने की आवाजें सुनायी पड़ रही हैं।
मीडिया में व्यापे तेज डियड्रेंट और कामुक अमेरिकी वियाग्रा और जापानी तेल के मध्य कंडोमी विज्ञापनों और रियल्टी शो में मुझे खून की नदियां बहती नजर आ रही हैं।
सारा देश बुरी से बुरी खबरों के लिए अभ्यस्त है।
बुरी से बुरी खबरों के लिए अच्छे, बेहद अच्छे दिन हैं।
यह प्रायोजित टीआरपी समय है मूसलाधार।
इसीलिए अखबारी खबरों की कतरने जोड़ने के बजाय सीधे अंतःस्थल से लिख रहा हूं आज का रोजनामचा।
जो पढ़ लें, उनको भी सत श्री अकाल और जो न पढ़ें, उनको भी सत श्री अकाल।
आखिरकार मेरा लिखा पढ़कर मोक्ष के रास्ते तो खुलने वाले नहीं है और न देहमुक्ति संभव है।


