बैंकों के एनपीए में बेतहाशा वृद्धि के लिये मोदी सरकार का निकम्मापन ही पूरी तरह से जिम्मेदार
बैंकों के एनपीए में बेतहाशा वृद्धि के लिये मोदी सरकार का निकम्मापन ही पूरी तरह से जिम्मेदार

बैंकों के एनपीए में बेतहाशा वृद्धि के लिये कौन जिम्मेदार?
The inefficiency of the Modi government is solely responsible for the huge increase in the NPAs of the banks.
विजय माल्या ने आज लंदन में साफ शब्दों में कहा है कि भारत छोड़ कर भागने के पहले पूरे विषय को रफा-दफा करने के लिये उसने वित्त मंत्री अरुण जेटली से मुलाकात की थी।
अरुण जेटली ने इस बात का खुलासा करते हुए कहा कि उन्होंने संसद के गलियारे में चलते-चलाते उनसे मुलाकात की थी और जब बैंकों के ऋण की बात उठाई तो उन्होंने उनको कोई महत्व नहीं दिया।
लेकिन न बैंकों ने और न अरुण जेटली ने विजय माल्या को देश छोड़ कर भागने से रोका।
इससे पता चलता है कि जैसे मेहुल चोकसी और नीरव मोदी के भागने की पूरी जानकारी प्रधानमंत्री को होने के बावजूद उन्हें आराम से भाग जाने दिया गया। उसी प्रकार वित्त मंत्रालय ने भी माल्या के भागने के रास्ते में बाधा नहीं डाली, बल्कि उसे सुगम बनाया।
जहां तक इस पूरे विषय पर हमारे महान अर्थशास्त्री नरेंद्र मोदी जी का सवाल है, वे एक ही बात कह रहे हैं कि बैंकों का यह एनपीए यूपीए के काल का है।
रिजर्व बैंक के पूर्व राज्यपाल रघुनाथ राजन ने एनपीए के बारे में संसदीय कमेटी को एर लिखित नोट में बताया है कि उन्होंने मोदी जी को कुछ बैंक कर्जों के बारे में सतर्क कर दिया था। मोदी और उनके वित्त मंत्री ने उस सतर्कता संदेश पर कोई कार्रवाई करने के बजाय उन कर्जों को आराम से डूब जाने दिया।
इसका कुल परिणाम हुआ कि जो एनपीए यूपीए के काल में लगभग अढ़ाई लाख करोड़ का था, वह दो सालों में ही बढ़ कर नौ लाख करोड़ से ज्यादा हो गया।
सवाल उठता है कि मोदी-जेटली ने ऐसा क्या किया जिसे हम कर्जों को एनपीए बनाने के रास्ते को सुगम करना कह रहे हैं। आज एनपीए पर चल रही चर्चा में लोग इसी बात पर कम से कम चर्चा कर रहे हैं।
रघुनाथ राजन ने अपने नोट में यह सही कहा है कि यूपीए के काल में अर्थ-व्यवस्था में काफी केजी के कारण बैंकों ने कर्ज देने के मामले में कम सावधानी बरती। पूंजीवाद में यह कत्तई अस्वाभाविक नहीं है। बैंकों ने उद्योगपतियों को कितना कर्ज दिया, उसे निवेश और आर्थिक विकास का मानदंड माना जाता है। ऐसे में तेजी से विकासमान अर्थ-व्यवस्था में उद्योगों को उसी अनुपात में ऋण दिये जाते हैं। लेकिन ये ऋण डुबाने के लिये नहीं दिये जाते हैं। सरकार और बैंकों को ऋण लेने वाली कंपनियों की नजरदारी करनी पड़ती है। और, अर्थनीति के मामले में शून्य साबित हुई मोदी सरकार और उसका वकील वित्त मंत्री इसी मामले में पूरी तरह से विफल साबित हुआ। उल्टे उसने बैंकों का रुपया मार कर भाग जाने की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया।
अपने शासन के दौरान मोदी-जेटली कंपनी ने 2015 में कंपनियों के दिवालियापन की एक नई संहिता ‘इनसाल्वेंशी एंड बैंकरप्सी कोड’ को कानूनी जामा पहनाया जिससे कर्जों में डूबी कंपनी के प्रमोटरों के लिये कंपनी का दिवाला घोषित करना इतना सरल बना दिया जिससे कंपनी का दिवाला निकलने पर देनदारी को चुकाने की कोई निजी जिम्मेदारी प्रमोटरों की नहीं होगी, न उनके किसी अन्य नागरिक अधिकारों पर कोई आंच आयेगी।
मोदी के द्वारा तैयार की गई इस नई संहिता के तहत अभी ढेर सारी कंपनियों ने अपने को दिवालिया घोषित करने की दरख्वास्तें डाल कर बैंकों के कर्ज को चुकाने की कोशिशें पूरी तरह से बंद कर दी है।
इसीलिये यह कहना सौ फीसदी सही है कि मोदी सरकार ही बैंकों के एनपीए में इतनी भारी वृद्धि के लिये जिम्मेदार है। इसने बैंकों के कर्ज मार कर बैठे बहुत सारे लोगों को देश से ही भगवा दिया और उनसे भी बहुत अधिक लोगों को उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाइयों से पूरी तरह सुरक्षित कर दिया।
मोदी सरकार ने यह सब अर्थनीति की अपनी घटिया समझ के तहत ही किया है जिसमें वे आर्थिक विकास के लिये पूंजीपतियों को हर लिहाज से खुश रखना, प्रोत्साहित करना और पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना जरूरी समझते हैं। दिवालियापन को आसान बनाने के पीछे एक तर्क यह भी है कि इससे कंपनी की फंसी हुई संपत्तियों का तेजी से व नये सिरे से उपयोग करना आसान हो जायेगा। ऐसे शासन में बैंकों का एनपीए अगर आसमान नहीं छुएगा तो कब छुएगा !
एनपीए के रूप में भारत की जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई को मुट्ठी भर पूंजीपतियों पर लुटाने के इस अपराध की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ मोदी सरकार की है।
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