बौहास आर्ट एंड डिजाइन स्कूल : 'क्रियात्मकता ही रूप को तय करती है'

बर्लिन का बौहास आर्ट एंड डिजाइन स्कूल

Berlin Bauhaus Art and Design School

अरुण माहेश्वरी

पिछले साल ही अपनी बर्लिन यात्रा के समय हम वहां के प्रसिद्ध बौहास आर्ट एंड डिजाइन स्कूल (Bauhaus Design School) को देखने गये थे। इस संस्थान के बारे में हमारी उसी समय से भारी उत्सुकता थी जब हमने हिटलर के काल में जर्मनी के कलाकारों, लेखकों की स्थिति पर खास तौर पर अध्ययन किया था। हमारे यहां मोदी के सत्ता में आने के बाद सबसे पहले तीन जाने-माने बुद्धिवादी लेखकों दाभोलकर, पानसारे और कलबुर्गी की हत्या से उनके शासन की यात्रा शुरू हुई थी। इसी क्रम में अंतिम शिकार बनी गौरी लंकेश।

जब साहित्य अकादमी पुरस्कार-प्राप्त कलबुर्गी की हत्या (1915) हुई उसके बाद ही देश भर से लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटाने का प्रतिवाद आंदोलन शुरू किया था, जिसकी देश-विदेश में भारी अनुगूंज सुनाई दी थी। बुद्धिजीवियों के दमन का वह सिलसिला आज तक जारी है जब हम देखते हैं कि किस प्रकार चंद दिनों पहले ही अर्बन नक्सल के नाम पर कुछ श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों को जेल में बंद करके रखा गया है।

कलबुर्गी की हत्या के समय हमारा ध्यान विशेष तौर पर हिटलर के शासन में लेखकों-कलाकारों की स्थिति पर गया था। उस समय जर्मनी में जगह-जगह यह कहते हुए पुस्तकों की होली जलाई गई थी कि ज्ञान के होम की इस आग की लपटों से जर्मनी में एक नया युग प्रकाशित हो रहा है !

Form follows function

बहरहाल, तभी इस बौहास कला और डिजाईन स्कूल के अभिनव संस्थान के बारे में हमें बहुत कुछ जानने का मौका मिला था जिसका एक प्रमुख नारा था - ‘क्रियात्मकता रूप को तय करती है' (Form follows function)।

कला की विभिन्न विधाओं में क्रियात्मकता की महत्ता को रेखांकित करने वाले इस नारे ने तब हमारे मन में एक अनोखा रोमांच पैदा किया था, खास तौर पर तब जब हमने जाना कि सिर्फ चौदह साल तक कायम रहे इस संस्थान के कलाकारों और वास्तुशास्त्रियों ने सारी दुनिया में शहरों और इमारतों के विन्यास में क्रांतिकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था। आदमी के आवास और कार्य के स्थानों की क्रियाशीलता से उनके स्वरूप प्रभावित होते हैं, इस समझ ने आधुनिक जीवन के स्वरूप में भारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था।

हिटलर के लोगों ने जर्मनी में वाइमर रिपब्लिक के काल में ही शीर्ष पर पहुंच चुके इस संस्थान को अपने झूठे आडंबरपूर्ण सांस्कृतिक वर्चस्व के रास्ते की बाधा समझ कर इस संस्थान पर और इसके प्रमुख कलाकारों पर नाना प्रकार से हमले करवाने शुरू कर दिये थे। इसके परिणामस्वरूप इसके अधिकांश लोगों को देश छोड़ कर भाग जाना पड़ा था। इसके तमाम कलाकारों को अमेरिका तथा अन्य स्थानों पर फौरन अपना लिया गया और यह भी एक इतिहास का सच है कि इन सभी कलाकारों ने विभिन्न देशों में वास्तुकला के क्षेत्र में अमूल्य योगदान किया था।

यही वजह थी कि बर्लिन में पहुंचने के बाद ही हमारी उत्सुकता इस संस्थान को देखने की थी और हम किसी प्रकार खोजते हुए इसकी इमारत तक पहुंच भी गये थे। लेकिन वहां जा कर हमें पता चला कि अभी यह संस्थान बंद रखा गया है क्योंकि इसके संग्रहालय को नये रूप में सजाया-संवारा जा रहा है। तभी हमें बताया गया कि आगामी वर्ष बौहास के सौ साल पूरे होंगे और जर्मनी की सरकार उस अवसर को एक बड़े उत्सव के रूप में मनाने की तैयारी कर रही है।

उल्लेखनीय है कि अभी इस संस्था की शताब्दी को जर्मनी के अलावा चीन, जापान और ब्राजिल में भी धूमधाम से मनाया जा रहा है। जर्मनी के तीन शहरों में, जहां इस संस्था के कामों का विस्तार हुआ था , तीन नये संग्रहालय बनाये जा रहे हैं। इन आयोजनों का यही उद्देश्य है कि यह बताया जा सके कि इस स्कूल के अभिनव कार्य आज की दुनिया में भी कितने प्रासंगिक हैं।

जर्मनी के एक दूरदर्शी वास्तुकार वाल्टर ग्रोपियस ने इस संस्थान की नींव रखी थी। ग्रोपियस ने अपने समय के वास्तुकारों, मूर्तिकारों और कलाकारों से ‘कारीगरी के प्रारंभिक दिनों में लौटने’ (return to craftsmanship) और इन प्रत्येक विधा के लोगों से ‘भविष्य के नये भवन की रचना’ (create the new building of the future) का आह्वान किया था। ग्रोपियस के बाद इस संस्था के प्रमुख के तौर पर जाने-माने वास्तुकार हेन्स मेर और लुडविग मीस वैन डेरोहा ने भी काम किया।

बौहास का अर्थ है ‘भवन गृह’ ( house of building)। इसके घोषणापत्र में ग्रोपियस ने कहा था कि “प्रत्येक कला का अंतिम लक्ष्य भवन है।” लेकिन इस संस्था के थोड़े से दिनों में ही इसने सिर्फ वास्तुकारों को नहीं, बल्कि चित्रकला से लेकर फर्नीचर से रंगमंच तक के नामी-गिरामी कलाकारों और रूपाकारों को अपने दायरे में ले लिया था।

इन सब कलाकारों में सिर्फ एक ही समानता थी कि ये दुनिया को एक नये रूप में देखते हुए कुछ नया, अभिनव करने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध थे। इन्होंने वास्तुकला और रूपाकारों को एकदम न्यूनतम जरूरत के स्तर पर उतारते हुए विवेक और क्रियाशीलता पर बल दिया, थोथे अलंकरण की उपेक्षा की। कारीगरी को उत्कृष्ट, टिकाऊ और सब के लिये उपलब्धता के पैमाने के साथ जोड़ा। टिकाऊपन पर बल देने की वजह से बौहास के लोग अपने समय से आगे के लोग थे। इसके मातहत तब कला, कारीगरी और तकनीक एकमेक हो गई थी।

जर्मनी के वाइमर शहर में 1919 से शुरू हुए इस स्कूल की शाखा 1932 में ही बर्लिन में खुली थी और 1933 में नाजियों ने इसे बंद करा दिया। लगभग सिर्फ 14 साल तक रहे इस स्कूल के छात्रों की संख्या कुल मिला कर सिर्फ 150 रही। लेकिन इन सबने बाद के दिनों में अमेरिका सहित अन्य कई देशों में वास्तु-दर्शन पर गहरा असर डाला। बौहास की डिजाइनें भले ही लोगों के लिये आरामदेह न रही हो, लेकिन उनसे दुनिया को दूसरे, और बदले हुए रूप में देखने की उनकी मंशा साफ जाहिर होती थी। यही वजह है कि आज भी यह वास्तुजगत के लोगों के लिये प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।

हम भी यहां फिर दोहरायेंगे — क्रियाशीलता ही रूप को अपनाती है।

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नोट्स –

वेमर रिपब्लिक What was Weimar Germany?

वेमर रिपब्लिक 1919 से 1933 तक जर्मनी की सरकार थी, जो प्रथम विश्व युद्ध के बाद नाजी जर्मनी के उदय तक थी। इसका नाम वीमर शहर के नाम पर रखा गया जहां कैसर विल्हेल्म द्वितीय के बाद जर्मनी की नई सरकार का गठन राष्ट्रीय असेंबली ने किया था। (Weimar Republic in Hindi)