भाजपा का अगला पैंतरा : 'सेना का राजनीतिकरण' या 'भगवाकरण' ?
भाजपा का अगला पैंतरा : 'सेना का राजनीतिकरण' या 'भगवाकरण' ?
BJP's next move: 'Politicalization of army' or 'saffronisation'?
नरेंद्र कुमार आर्य
वर्तमान सरकार अपनी असहिष्णुता के लिए बदनाम है और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा एक बार फिर एक सकारात्मक आलोचना के चलते एक बुद्धिजीवी को प्रताड़ित किया जा रहा है.
प्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर पार्थ चटर्जी अपने एक लेख के चलते दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादियों के निशाने पर हैं. आशीस नंदी (ये भी हिंदुत्ववादियों के निशाने पर रह चुके हैं. नंदी ने हिंदुत्व की तर्ज़ पर 'मोदीत्व' शब्द गढ़ा था जिसका तात्पर्य था एक ऐसा विकासात्मकता तानाशाही का माडल जिसमे असहमति की सम्भावनायें नहीं होतीं. नंदी ने गुजराती मध्यवर्ती वर्ग की आलोचना करते हुए उसे स्वाभाव से ही इस माडल के लिए उपयक्त व् 'खून का प्यासा' कह कर गुजरात में हुए अभूतपूर्व दंगों और नरसंहार के लिए उन्हें जिम्मेवार ठहराया था.) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'इन्टीमेट एनेमी' यानि 'अन्तरंग दुश्मन' में भारत और ब्रिटेन के संबंधों के औपनिवेशिक संबंधों का राजनैतिक मनोविश्लेषण किया है. उनका निष्कर्ष है कि अंग्रेजों ने भारत को शक्ति के माध्यम से गुलाम नहीं बनाया था. सांस्कृतिक संबंधों और उपकरणों के मनोवैज्ञानिक प्रयोग से ही भारत जैसे देश को उपनिवेश बनाया गया था. ये विश्लेषण हमें ग्राम्शी के वर्चस्व की अवधारणा के निकट भी लाता है.
पार्थ चटर्जी भी उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श की प्रख्यात शख्सियत हैं. कश्मीर में भारतीय सेना के द्वारा हाल में की गयी कार्यवाही की तुलना जलियांवाला बाग़ से करना उसी विश्लेषण का एक पहलू है.
पार्थ चटर्जी की मान्यता है कि स्वाधीन भारत की सेना भाजपा सरकार की नीतियों और शायद नीयत के चलते एक औपनिवेशिक चरित्र ग्रहण करती जा रही है. औपनिवेशिक प्रवृतियां पूरी तरह से भारतीय समाज से लुप्त नहीं हुई हैं. दलित व अन्य शोषित और हाशिये पर स्थित तबक़े आज भी अपनी आज़ादी को अधूरा मानते हैं. उच्च वर्गीय तबकों के समाज में सर्वांगीण वर्चस्व और सामंती सोच के अनुसार समाज और राजनीति को चलाने की उनकी प्रवृति/ मनस्थिति के कारण 1947 की आज़ादी उन्हें बेमानी लगती है. इसीलिये नंदी का मानना है कि भारतीयों को सिर्फ एक उपनिवेशवाद से नहीं जूझना पड़ा बल्कि आज़ादी के बाद वो एक दूसरे उपनिवेशवाद से गुज़र रहे हैं. वे लोग जो पहले वाले उपनिवेशवाद ( ब्रिटिश) से लड़े, स्वाधीनता के बाद स्वयं पुराने उपनिवेशवाद के वर्चस्व, उच्चताबोध शोषण और शासक-शासित की मानसिकता से ग्रस्त हैं और उसी सांस्कृतिक-राजनैतिक वातावरण को सीख चुके हैं और बहुजन पर पुरानी विधि से शासन कर रहे हैं.
हमें पार्थ चटर्जी के हालिया 'विवादग्रस्त' लेख को इसी बौद्धिक पृष्ठभूमि में स्थापित कर समझना होगा.
वो कहते हैं आज जनरल विपिन रावत उसी औपनिवेशिक भूमिका में हैं जैसा कि जनरल डायर था और भारतीय सेना कश्मीर, उत्तर-पूर्व और नक्सलवाद से ग्रस्त मध्य-भारत में औपनिवेशिक मानसिकता वाली सेना की भूमिका में, जो 'राष्ट्रवासियों' पर राज्य की निरंकुश शक्ति, भय और अस्त्र-शस्त्र प्रयोग कर नागरिकों को दब्बू, चिन्तनविहीन और रीढ़हीन मिटटी के लोंदों में बदल देना चाहती है. जो सिर्फ सरकारी आदेशों का पालन बिना किसी प्रतिरोध के कर सकें. भारतीय संविधान और लोकतान्त्रिक ढांचे के विखंडन की इससे क्रूर परिस्थितियां और कुछ नहीं हो सकतीं.
'जाति के राजनीतिकरण' और लोकतंत्र के विकृतीकरण का खेल, हम पहले ही अपनी आँखों के सामने देख रहे है. कुछ समीक्षक मानते हैं कि 'जाति के राजनीतिकरण' से लोकतंत्र की 'पहुँच' दलित और पिछड़ी जातियों/ वर्गों में बढ़ी है. मगर आज अगड़े ही नहीं दलित और पिछड़े भी भारतीय लोकतंत्र में जातिवाद की बढ़ती पैठ से नाखुश हैं. जिस संस्था को हम समूल नष्ट करना चाहते थे, वो नष्ट तो नहीं हुई मगर राजनीति में विन्यस्त हो गयी.
भाजपा के 'राष्ट्रवाद' के नारे को उच्च जातियों के द्वारा 'जाति' की राजनीति में बढ़ गयी भूमिका को निष्फल करना का एक प्रयास भी माना जा रहा है.
अब भाजपा 'राष्ट्रवाद' के बहाने 'सेना के राजनीतिकरण' के खेल की शुरूआत कर चुकी है.
कश्मीर, उत्तरपूर्व व् मध्य-भारत में में अपने अधिकारों के लिए लड़ी जा रही राजनीतिक मुहिमों को राष्ट्र-विरोधी और देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बता कर सरकार के पालतू संचार-साधनों द्वारा जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है. एक 'अदृश्य खतरे' का प्रचारित बिम्ब औत मनोवैज्ञानिक मिथक सृजित कर लोगों को एक ही झंडे टेल लामबंद करने की कोशिश की ज अ रही है.
सेना बलों का 'राजनीतिकरण' भारतीय लोकतंत्र के लिए एक भयावह भविष्य का सूचक है. भारतीय संविधान के प्रावधानों और पूर्ववर्ती नेताओं के कारण सेना को राजनैतिक उथल-पुथल और 'स्वविवेक' के अनुसार कार्य करने की परिस्थितियों से जान-बूझकर दूर रखा गया था ताकि राजनीतिक स्थिरता बनी रहे.
आंशिक रूप से ही सही, विकासशील देशों में भारतीय लोकतंत्र को इसी मापदंड पर सफल माना जाता है. सात दशकों से सैन्य-शक्ति राजनैतिक नेतृत्व के ही अधीन रही है जिसे जनता के प्रति जिम्मेवार लोग जिम्मेवारी से नियंत्रित और प्रयुक्त करते है.
भाजपा का सेना के प्रति ग़ैर-जिम्मेवाराना दृष्टिकोण व उसका राजनीतिकरण के साथ-साथ तुष्टिकरण और 'स्वविवेक' के अनुसार कार्यवाही करने की छूट देना बहुत ज़ोखिम भरा और ग़ैर-लोकतान्त्रिक रवैया है. राजनैतिक समाधानों के लिए सेना का जान-बूझकर प्रयोग एक तरफ राजनैतिक नेतृत्व की क्षमता पर सवाल खड़े करेगा, साथ ही साथ ये छवि सेना के अपने 'सबलीकरण' में भी सहायक हो सकती है.
सेना का अतिरंजित और नाटकीय प्रयोग 'कठोर राष्ट्र' की छवि से मेल खाता है, जिसकी दक्षिणपंथी शक्क्तियाँ हिमायती होती है. सेना शक्ति के एक तत्व के रूप राष्ट्र की वैदेशिक महत्वाकांक्षाओं में सहायक होती है किन्तु निरंकुशताबोध, उच्छ्श्रुन्खलता और अमर्यादित होने का लोभ उसे नकारात्मक शक्ति में बदल देता है. हम अपने सबसे निकट के पड़ोसी राष्ट्र को इस प्रवृति के अच्छे उदहारण के रूप में देख सकते है जहन लोकतंत्र सेना के हाथों पिछले छ-सात दशकों से लहूलुहान हो रहा है.
लगता है भगवा संगठनों की बुद्धि से जन्मजात दुश्मनी है. उनकी यही सहजवृति उन्हें बुद्धिजीवियों का नैसर्गिक विरोधी भी बना देती है. हर व्यक्ति या बुद्धिजीवी जो स्वतंत्र सोच का हो, हिंद्त्ववादियों की नज़र में 'वामपंथी' अर्थात उनका घोषित शत्रु बन जाता है. वास्तव में ये सभी संगठन वामपंथ नहीं बल्कि विचारशीलता, अंत:करण की स्वतंत्रता और सोच व् संस्कृति के दुर्धर्ष शत्रु है. इनका उदय, उभार और उत्कर्ष इसी तथ्य पर आधारित है कि वे किस तरह इन चीज़ों को क्रमबद्ध और व्यवस्थित तरह से समाप्त कर दें या कम-अज़-कम हाशिये पर धकेल सकें. 'बहुजन' और बहुसंख्यक मतदाताओं को अपनी लच्छेदार संस्कृति की दुहाई देती, धार्मिक द्वेष को उग्र बनाने वाली और सामाजिक विद्रूपताओं की हितैषी और उन्हें बरकार रखने वाली शब्दावली का प्रयोग कर जनता को 'मोह' लेना ही इन फ़ासीवादी शक्तियों का काम है. पार्थ चटर्जी पर किया जा रहा हमला इसी प्रवृति और सोच का परिणाम है.
पार्थ चटर्जी को हिन्दुत्वादियों की भाषा में एक 'वामपंथी' कह कर गाली दी जा रही है अर्थात वो राष्टद्रोही, समाजद्रोही और 'हिन्दूद्रोही' हैं. जो हिंदुत्ववादियों शक्तियों के साथ नहीं है, वो आज राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है, इसी तर्क के साथ ये हिंदुत्ववादी संगठन बुद्धिजीवियों को सबक सिखाने पर आतुर हैं.
वास्तव में पार्थ चटर्जी पर वैचारिक हमला गोविंद पंसारे, नरेंद्र दाभोलकर और एमएम कलबुर्गी की हत्या के साथ- साथ अरुंधती रॉय, निवेदिता मेनन, चौथीराम यादव जैसे विचारकों पर लगातार हो रहे वैचारिक हमलों की श्रंखला की एक कड़ी है.
आज समाज में जो भी इन धर्मांध, प्रतिक्रियावादी,तर्कहीन और रक्त-पिपासु संगठनों के साथ नहीं है उन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हत्या करने का देशव्यापी सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है. भगवा-ज्वर से पीड़ित असामाजिक तत्वों व् संगठनों को ज्ञान, तथ्य और आधुनिक विज्ञान से कोई लेना देना नहीं है. वो हिटलरवादी नीतियों और विचारधारा का अनुपालन करते हुए शब्दाडंबर और वक्रपटुता (रेहटोरिक) से लैस बिम्बों, मुहावरों और आकर्षक शब्द-जालों का प्रयोग कर नागरिकों के मनोविज्ञान से खेल रहे हैं. बुद्धिवाद, विवेकशीलता और तथ्यात्मक यथार्थ से फ़ासीवाद का छत्तीस का आंकड़ा रहता है चाहे वो बीसवीं सदी का फ़ासीवाद रहा हो या भगवाधारियों की नसों में उबाल मारता फ़ासीवाद का देसी संस्करण.
पार्थ चटर्जी जैसे विद्वान वास्तव में उस निरीह प्रजाति का हिस्सा हैं जिसे हजारों सालों से सिर्फ इसी लिए पीड़ित और अत्याचार का शिकार बनाया जाता है क्यों कि वो व्यवस्था के प्रतिरोध का स्वर है. सुकरात से लेकर गैलिलियो, रूसो, मैल्कम एक्स या अरुंधती रॉय सभी को सत्ता के विरूद्ध और प्रतिरोध में बोलने के लिए हतोत्साहित किया जाता है या फिर उनकी कायिक या वैचारिक हत्या कर दी जाती है.
प्राचीन यूनान में स्टोइक दार्शनिकों के विचारों को तत्कालीन सत्ता द्वारा और बाद में कुलीनतंत्र व् धनिकतन्त्र के प्रशंसक विचारकों द्वारा हाशिये पर धकेल दिया गया था. इस सन्दर्भ में उनका यह विचार आज बड़ा प्रासंगिक जान पड़ता है कि किसी भी समाज में दो तरह के लोग होते हैं 'बुद्धिमान' और 'मूर्ख'. 'मूर्ख' प्राय ही बहुसंख्यक होते हैं. ये ऐसे लोग हैं जो अभिजनों या उच्च वर्ग (एलीट) के द्वारा बनाये गए छद्म और कृत्रिम संस्थाओं और विचारों के अंध अनुयायी होते हैं जो विवेक, बुद्धि की जगह भावना, निष्ठा और संवेगात्मक अविवेक को तरजीह देते है. राष्ट्र और राज्य जैसी राजनीतिक और अन्य सामाजिक संस्थाओं पर हमेशा से ही कुलीनों और अभिजनों का आधिपत्य रहा है. धूर्त राजनयिक जिनमे दक्षिणपंथी ज़्यादा ही कुशल होते हैं' राष्ट्र' की बहुसंख्यक आबादी को लुभावने और कल्पनालोकीय आकर्षक वाग्जालों में लुभाकर सत्ता और सरकार पर कब्ज़ा कर लेते हैं. वक्रपटुता (रेहटोरिक) को अपना हथियार बनाकर और स्वतंत्र विचारों पर सेंसरशिप जैसी स्थिति पैदा कर उनके खिलाफ जनता को लामबंद कर वर्तमान भाजपा सरकार इसी रणनीति का व्यापक प्रयोग कर रही है. एक बुद्धिजीवी को सही अर्थों में इन संकीर्ण अवधारणाओं का गुलाम नहीं होना चाहिए.
'राष्ट्रवाद' ' हिंदुत्व' और 'सैन्य-राष्ट्रवाद' की मादक अफीम को ही सारी राजनीतिक समस्याओं का हल बनाकर जनता के सामने पेश किया जा रहा है.
लोगों की क्षुद्र और संकीर्ण अस्मिताओं यथा राष्ट्र, जाति, धर्म, लिंग इत्यादि को उभार कर उन्हें इन्ही के दुष्चक्र और शिकंजे में फँसा कर रखने की कोशिश की जा रही है. शिक्षा, सविधान, जनमानस, मीडिया के बाद अब सेना के भगवाकरण का प्रयास किया जा रहा है. जिस धर्मनिरपेक्ष राज्य और संस्थाओं को विकसित करने में दशकों लग गए, उसे भगवा संगठन कुछ सालों में ही नेस्तनाबूद कर देश को मध्यकाल के अंधकार पूर्ण युग में धकेल देने का प्रयास कर रहे है. इस देश के जागरूक और लोकतंत्र पसंद जनमानस के लिए ये आज सबसे बड़ी चुनौती है.
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नरेंद्र कुमार आर्य समसामयिक मामलों पर स्वतंत्र टिप्पणीकार होने के अतिरिक्त कवि और आलोचक भी है.


