सुन्दर लोहिया
सोलहवीं लोकसभा में अप्रत्याशित बहुमत के कारण भाजपा उत्साह के अतिरेक के कारण सौ दिनों में ही राजनीति की ढलान में धंस गई है। इसी अतिरिक्त उत्साह के कारण उसने देश की राजनीति में कुछ अभूतपूर्व कार्य सम्पन्न करके अपने आप को पूर्ववर्ती सरकारों से अलग सिद्ध करने में आंशिक सफलता प्राप्त की और जनता को नई आशाओं से अनुप्राणित किया। जनता को लगा कुछ होगा, कुछ बदलेगा भले ही उस बदलाव में देर लग जाये पर कुछ तो बदलेगा। लेकिन इन सौ दिनों में भाजपा के उन नेताओं ने, जो जनता को धर्म की भेड़ें मान कर हांकने में अपनी कामयाबी मानते हैं, अपने मुंह इस कदर खोल दिये कि जनता उनसे निकल रही घृणा के पायोरिया की बदबू को बर्दाश्त नहीं कर सकी और उनसे अपना मुंह चुराने में ही भलाई समझी। इसलिए आज जब मोदी सरकार के सौ दिनों का लेखा जोखा तैयार किया जाता है तो उस पर सौ सवाल खड़े किये जा रहे हैं।
उन बातों का विश्लेषण करें जो मोदी सरकार को विगत सरकारों से अलग सिद्ध करती हैं तो निश्चित तौर पर शपथग्रहण समारोह में सार्क नेताओं को आमंत्रित करना, योजना आयोग जैसे ढांचे को ध्वस्त करना, सचिवालय में नई कार्य संस्कृति को सख्ती से लागू करना और मैं इस सूची में अंतराष्ट्रीय मंच पर और विदेशी मेहमानों के साथ बातचीत में हिन्दी का प्रयोग भी शामिल करता हूं। इससे एक बदले हुए राजनीतिक माहौल का निर्माण हो रहा है। अंग्रेज़ी हमारे ज्ञान विज्ञान क्षेत्र में इस्तेमाल हो, लेकिन प्रशासन और राजनय में देसी भाषा का प्रयोग देश की अस्मिता को उजागर करता है। पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने के लिए अपनी शर्तें लागू करने की दिशा में सरकारी बातचीत से पहले काश्मीरी अलगाववादियों से मिलने पर सचिव स्तर की वार्ता को रोकना भी मोदी सरकार की कुल एक सौ बीस दिनों की कारवाई का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन इसके सामने इन एक सौ बीस दिनों के अंदर जो घालमेल हुआ है उसकी सूची बहुत लम्बी बनती जा रही है।
सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी यह मानकर चल रहे हैं कि कि उनके सौ दिनों में कश्मीर में रेलमार्ग तैयार हो गया और उसके पुण्य प्रताप से ही मंगलयान अपने मिशन में कामयाब हो गया। इस अवसर पर उन्होंने इसरो में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों की जो तारीफ की, वह उसके हकदार थे पर मोदी को एक बार भी यह ध्यान नहीं आया कि इस सफलता में हाल ही में अपदस्थ कांग्रेस सरकार का ही योगदान है। यह कैसा स्टेटमैन है जो इस सार्वजनीन सत्य को स्वीकार करने में भी हिचकचा रहा है?
मंत्रीमण्डल के गठन में भी कुछ मन्त्रालय उन्होंने जानबूझ कर ऐसे व्यक्तियों को थमाये जो हर बात के लिए उनका मुंह देखते रहें। कांग्रेस सरकार द्वारा गठित मन्त्रिमण्डल समूहों को ध्वस्त करके फैसले लेने की प्रक्रिया को त्वरा प्रदान की लेकिन अंतिम निर्णय प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकार क्षेत्र में डाल कर उसे सम्बन्धित मन्त्री को बिना दिखाये क्रियान्वयन के लिए जिम्मेवार अधिकारी के पास भेज दिये जाने की व्यवस्था स्थापित की है। इसे क्रियान्वयन में विलम्ब की बाधा दूर करने की कवायद बताया जा रहा है। लेकिन कुछ हलकों में इसे मन्त्रियों के अधिकारों का विलोपन माना गया क्योंकि इस प्रक्रिया में प्रधान मन्त्री का निर्णय अंतिम हो गया सम्बन्धित मन्त्री चाहे सहमत हों या न हों।
सत्ता सम्भालते ही नरेन्द्र मोदी ने सचिवालय का जो दौरा किया उसमें पुरानी फाइलों का अम्बार देख उन्हें जल्द निपटाने के लिए जलाने का सुझाव दे दिया। बताया गया कि पुरानी फाइलें व्यर्थ में ही स्थान घेरे हुए हैं। ये बातें सुनने में तो अच्छी लगती हैं लेकिन जब इनकी पर्तें उघड़नी शुरु होती हैं तो उन्हें कठघरे में खड़ा कर देती हैं। इस मामले में भी कई सवालिया निशान एक साथ उभर कर सामने आ गये। मसलन नेताओं के अपराधिक मामलों की फाइलें जिनमें मामलों से जुड़ी छानबीन में गुप्त दस्तावेज़ के तौर पर सूचनाओं को नष्ट करने की आशंका भी शामिल हो गई।
इनके जापान दौरे को देसी मीडिया ने जितना उछाला उसे जापानी मीडिया ने एक मिनट की कवरेज में समेट दिया। इस दौरे के हासिल क्या हुआ सिवाय एक जापानी पत्रकार के इस टिप्पणी के कि मोदी केवल शोमैनशिप में मशगूल रहे और न्यूक्लीयर संधि के आधर पर यूरेनियम के इस्तेमाल से होने वाली दुर्घटना पर मुआवजा के सवाल का हल नहीं निकाल सके जिसके परिणामस्वरूप देश के ऊर्जा संकट से निपटने की कवायद धरी धराई रह गई। चीन के साथ कोई कारगर समझौता नहीं हो सका सीमा विवाद तो दूर की बात है व्यापार क्षेत्र में भी लाभकारी संधि दिख नहीं रही। उल्टे 200 मीलियन डालर के निवेश की उम्मीद लगाये मोदी सरकार को चीन ने 20 मीलियन डालर में चलता कर दिया। अभी अमेरिका में हैं जहां उन्हें चाहने वाले प्रवासी भारतीय काफी तादाद में हैं और ओबामा सरकार में प्रवासी भारतीयों का काफी प्रभाव नज़र आता है इसलिए मोदी यहां काफी उत्साहित नज़र आ रहे हैं। लेकिन यहीं उनके अमेरिका पहुंचते ही मानवाधिकार संस्थाओं द्वारा दायर मुकदमें में समन जारी हो गया जिसकी खबर वहां की अखबारों में छप गई। क्योंकि प्रधानमन्त्री होने के नाते उन्हें इस तरह की कारवाई पर अमल करने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता लेकिन इतना तो अमेरिका ने बता दिया कि भले ही बाराक ओबामा ने उन्हें अपने विशेष मेहमान का दर्जा देकर अपने निवास के अतिथिगृह में ठहराया हो लेकिन अमेरिकी जनता 2002 के नरसंहार के लिए उन्हें दोषी अब भी मानती है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ की महा सभा में उनका भाषण कई तथ्यात्मक भूलों के कारण निष्प्रभावी रहा। तथ्यात्मक भूलों को हिन्दुस्तान भले ही तरज़ीह न दे लेकिन अमेरिका जैसा विकसित देश इस बारे बहुत जागरूक है इसलिए जिस प्रभाव की बात हिन्दुस्तान का मीडिया जो़रशोर से कर रहा है वह वैसा लग नहीं रहा।
एक स्तम्भकार ने पण्डित जवाहलाल नेहरु की प्रधानमन्त्री के तौर पर पहली अमेरिकी यात्रा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति अपने शीर्षस्थ सलाहकारों के साथ नेहरु की अगवानी के लिए हवाई अड्डे पर उपस्थित थे। ऐसे कुछ ऐसे मामले हैं जिससे स्तम्भकार ने निष्कर्ष निकाला है कि पण्डित नेहरु देश की अस्मिता कायम कर रहे थे जबकि मोदी देश की मार्केटिंग करते हुए लग रहे हैं।
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