0 राजेंद्र शर्मा
आखिरकार, भाजपा को डैमेज कंट्रोल की कसरत के एक और चक्र में उतरना पड़ा है। हाल ही में भाजपा अध्यक्ष,अमित शाह ने पिछले कुछ हफ्तों में खासतौर पर सुर्खियों में रहे अपनी पार्टी के चार आग उगलने वाले नेताओं को बहुप्रचारित झिडक़ी दी।
मीडिया को बताया गया कि भाजपा अध्यक्ष ने,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद, ‘अनुशासन’ की यह छड़ी चलाई थी। इन नेताओं में उत्तर प्रदेश के विधायक संगीत सोम और सांसद साक्षी महाराज के अलावा मोदी सरकार के दो मंत्री, महेश शर्मा और संजीव बलियान भी शामिल थे।
इस तरह की कसरत का आम तौर पर संघ परिवार की तो बात ही छोड़ दें, खुद भाजपा के इन आग उगलने वालों पर बहुत असर पड़ऩे की शायद ही किसी को उम्मीद रही होगी। फिर भी इस स्वांग की बाकायदा हवा निकलाते हुए, चार ‘झिडक़ी खाने वालों’ में से दो ने, जो केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हैं, अगले ही दिन पार्टी अध्यक्ष द्वारा इस तरह किसी तरह की ‘झिडक़ी दिए जाने’ का सार्वजनिक रूप से खंडन भी कर दिया!
बेशक, शाह की झिडक़ी का सार्वजनिक रूप से ऐसा हश्र होना ही था।
साक्षी महाराज के जैसे मामलों में तो शाह अनुशासन की ऐसी छड़ी चलाने का सार्वजनिक अभिनय पहले भी कर चुके हैं। फिर भी, एक बार फिर सत्ताधारी भाजपा के वफादारों को इसके प्रचार का एक और चक्र छेडऩे का मौका तो मिल ही गया कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और उसकी सरकार, अपनी कतारों के ‘गर्म-दिमागों’ पर अंकुश लगा रही है!
यह समझ पाने के लिए कोई बहुत भारी राजनीतिशास्त्री होने की जरूत नहीं है कि सबसे बढक़र बिहार के चुनावों के संदर्भ में नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को इस ‘अभिनय’ की जरूरत पड़ी है।
बिहार में, चुनावी अंकगणित में तो भाजपा, अपने सारे जोड़-तोड़ के बावजूद, शुरू से ही पीछे थी। इसके ऊपर से, अपने मुख्यत: सवर्ण आधार के साथ, कुशवाहा-पासवान-मांझी तिकड़ी के सहारे, निचली जातियों के वोट का कम से कम एक सम्माजनक हिस्सा जोडऩे की उसकी कोशिशों पर, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा की जरूरत के बयान ठंडा पानी डाल दिया। रही-सही कसर पूरी कर दी, गोमांस खाने के झूठे आरोप में, हिंदुत्ववादी भीड़ द्वारा उत्तर प्रदेश में दादरी में अखलाक की नृशंस हत्या ने।
वास्तव में इस घटना से भी बढ़क़र, इस घटना पर भाजपा नेताओं तथा यहां तक कि केंद्र सरकार के मंत्रियों तक की प्रतिक्रियाओं और इसके चलते एक ओर अल्पसंख्यक विरोधी अभियान में आयी तेजी तथा दूसरी ओर, इस समूचे वातावरण पर खासतौर पर लेखक समुदाय के बीच से आयी अप्रत्याशित रूप से तीव्र तथा व्यापक प्रतिक्रिया ने, भाजपा को हिला दिया।
याद रहे कि इखलाक की हत्या के पूरे पांच दिन बाद, औपचारिक रूप से बिहार में अपना चुनाव जबर्दस्त चुनाव अभियान छेडऩे तक प्रधानमंत्री इस घटना पर कुछ नहीं बोले। यह स्थानीय सांसद की हैसियत से केंद्रीय संस्कृति मंत्री, महेश शर्मा के संबंधित गांव में जाकर इस नृशंस हत्याकांड को महज एक ‘गलतफहमी’ का परिणाम तथा ‘दुर्घटना’ बताने और इस हत्याकांड के सिलसिले में पुलिस कार्रवाई के नाम पर ‘हिंदुओं के साथ अन्याय न होने देने’ का भरोसा दिलाने के बावजूद था।
प्रधानमंत्री की चुप्पी को पढक़र, संगीत सोम और हिंदू रक्षक दल-नुमा संगठनों के नेताओं ने इस आग में और तेल झोंक दिया।
बिहार में अपनी चुनावी सभाओं की कार्पेट बांबिंग के बीच प्रधानमंत्री ने एक चुनावी सभा में इस बढ़ते उन्माद के मुद्दे पर अपनी ‘चुप्पी तोड़ी’ भी तो, सिर्फ राष्ट्रपति के बताए रास्ते पर चलने का उपदेश दिया और यह सीख दी कि हिदुओं और मुसलमानों को आपस में नहीं, गरीबी से लडऩा चाहिए!
न सिर्फ प्रधानमंत्री को दादरी की घटना का जिक्र तक करना गवारा नहीं हुआ बल्कि उसी सांस में खुद प्रधानमंत्री गोमांस के मुद्दे पर खासतौर पर लालू प्रसाद यादव को निशाना बनाकर, संघ परिवार की उसी मुहिम को भुनाना नहीं भूले, जिसने अखलाक की जान ली थी।
बहरहाल, यह सब बिहार के पांच चरण के और महीने भर लंबे चुनाव के पहले चरण का प्रचार खत्म होने से पहले की बात है। पहले चरण के चुनावी रुझानों से भाजपा के हाथ-पांव फूल गए।
पहले चरण के मतदान के बाद से बिहार में भाजपा ने किस तरह अपनी चुनावी रणनीति में भारी फेरबदल करना जरूरी समझा है, यह प्रेक्षकों से छुप नहीं सका है। मोदी-अमित शाह के होर्डिंग हटाकर, बीच चुनाव में बिहार के भाजपा नेताओं की पोस्टरों में वापसी और मोदी की पहले घोषित कई सभाएं रद्द किए जाने तथा कुल-मिलाकर उनकी चुनाव सभाओं की बारिश पहले बतायी जा रही संख्या से लगभग आधी ही किए जाने जैसे कदमों ने, बरबस दिल्ली के चुनाव की याद दिला दी है। दिल्ली में भी भाजपा को, सिर्फ नरेंद्र मोदी के ‘चेहरे’ पर चुनाव लड़ऩे की सारी तैयारियों के बावजूद, चुनाव से ऐन पहले कार्यनीति पलटकर मुख्यमंत्री पद के लिए ‘चेहरे’ के तौर पर किरण बेदी को पेश करना पड़ा था। आखिरकार, क्या नतीजा आया यह तो सब जानते ही हैं। इसमें इतना और जोड़ लें कि बिहार में, पहले चरण के रुझानों से घबराए, भाजपा के निचली जातियों से जुड़े सहयोगियों ने, गोमांस से लेकर आरक्षण तक के मुद्दों पर संघ परिवार के आचरण पर अपनी नाखुशी सार्वजनिक रूप से प्रकट करना भी शुरू कर दिया है।

यही है भाजपा के सांप्रदायिक आग उगलने वाले नेताओं के लिए अमित शाह की उक्त ‘झिडक़ी’ की पृष्ठभूमि। लेकिन, जैसा कि इसके फौरन बाद आए संगीत सोम तथा साक्षी महाराज के उक्त झिडक़ी के ‘खंडन’ से साफ हो गया, यह कार्रवाई सिर्फ लोक दिखावे के लिए थी। लेकिन, भाजपा अध्यक्ष और यहां तक कि उसके इकलौते शीर्ष नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी, ऐसे दिखावे के सिवा और कुछ कर भी नहीं सकते हैं। एक ओर अगर बढ़ती बहुसंख्यकवादी उग्रता का चौतरफा बढ़ता हुआ विरोध, उन्हें इस उग्रता से खुद को अलग करने के लिए मजबूर करता है, तो इस उग्रता की आग को बढ़ाने में जुटी ताकतें और इस आग को बढ़ाने की उनकी कारगुजारियां ही तो उनका असली आधार हैं।
आरएसएस के भाजपा के साथ नाभिनालबद्घ होने से निकला यह अंतर्विरोध, वैसे तो आरएसएस और उसके राजनीतिक मोर्चे के रूप में पहले जनसंघ और अब भाजपा के साथ, हमेशा से ही लगा रहा है। फिर भी आम चुनाव के समय ‘विकास’ और ‘सुशासन’ की लफ्फाजी के जरिए जो छवि बनायी गयी थी उसके विपरीत, अब जबकि भाजपा तथा उसकी सरकार पर, संघ परिवार की छाप और उभरकर सामने आ चुकी है, भाजपा और उसकी सरकार इस तरह के दिखावे ही करते रहने के लिए अभिषप्त हैं। यह दूसरी बात है इस नाटक का हरेक आगे आने वाला चक्र, पिछले वाले चक्र से ज्यादा हास्यास्पद नजर आ रहा होगा।