भारत नेतृत्व के मामले में फिर नेहरुवाद को दोहराने लगा है
भारत नेतृत्व के मामले में फिर नेहरुवाद को दोहराने लगा है
चीनी सेना की बढ़त का ऐसा हंगामा बरपा कि सैकड़ों अरब डालर के कारोबार के बावजूद भारत चीन सीमा विवाद अब भी फिर वही नेहरुयुग के दलदल में
पलाश विश्वास
लोकतांत्रिक परिपक्वता और विरासत का यह एक बेहद उत्कृष्ट उदाहरण है कि स्कॉटलैंड के लोगों ने आज ऐतिहासिक जनमत संग्रह में आजादी को खारिज कर दिया और ब्रिटेन के साथ अपने 307 साल पुराने रिश्ते को बरकरार रखने का निर्णय किया जो ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के लिए राहत की बात है। आज के आधिकारिक परिणाम में यह पुष्टि हुई कि स्कॉटलैंड के 32 परिषद क्षेत्रों में से 30 ने 'ना' के पक्ष में वोट डाला और 'ना' पक्ष ने 1,512,688 मत के मुकाबले 1,877,252 मत से बड़ी बढ़त हासिल कर ली थी। जीत के लिए 1,852,828 मतों की आवश्यकता थी। जीत का अंतर जनमत सर्वेक्षण में अपेक्षित परिणाम से कोई तीन अंक अधिक रहा।
लगातार रक्तक्षयी जनांदोलनों के मार्फत आयर लैंड के अलगाव के बाद शक्तिकेंद्र बतौर लंदन के अवसान और यूरोपीय समुदाय से पतन की आशंकाओं के बावजूद ब्रिटिश नेतृत्व ने जनमतसंग्रह का जो जोखिम अंध राष्ट्रवाद के सामने घुटना टेके बिना उठाया,उसका यह सकरात्मक उज्ज्वल परिणाम है।
अपने साम्राज्यवादी इतिहास को पीछे छोड़कर, अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ नत्थी सांप्रतिक सामाजिक यथार्थ होने का सत्साहस का नतीजा है विघटन के सिंहद्वार से इस तरह सकुशल वापसी।
अंध राष्ट्रवाद के मुकाबले परिपक्व रायनय का उदाहरण भी यह है।
भारत में पंडित जवाहरलाल नेहरू राजनीति के उस्ताद थे, नहीं होते तो अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़कर न वे प्रधानमंत्री बनते और न आजीवन सत्ता में सारी चुनौतियों को धता बताकर बने रहकर सत्ता का वंशवृक्ष रोप पाते। लेकिन लोकतांत्रिक विरासत वे भारत को सौंप गये, ऐसा उनके प्रबल वंश वर्चस्व के चलते कहना मुश्किल है।
भारतीय राजनय और विदेशनीति के भी वे ही धारक वाहक रहे हैं।
कहना होगा कि इंदिरा युग पार नवउदारयुग में भी अब भी भारत नेहरु युग में ही जी रहा है।
जी हां, बुलेट ट्रेन के लिए चीन जापान से विदेशी निवेश हासिल करना भले ही मुक्तबाजारी उत्तरआधुनिकती की अभिव्यक्ति हो, अभी अमेरिकी सरपरस्ती की कयामत तोड़कर आजाद देश की हैसियत बनाने लायक नेतृत्व भारत को मिला नहीं है और भारत नेतृत्व के मामले में फिर नेहरुवाद को दोहराने लगा है।
लोग मनमोहन में नेहरु की छवि खोजते हैं तो वाजपेयी दक्षिणपंथी नेहरु माने जाते हैं और भारतीय उपमहाद्वीप में केसरिया कारपोरेट सुनामी के बाल्मीकि ने भी अपने कल्कि अवतार में खुद नेहरु युग के तिलिस्म में कैद हो जाने का सबूत दे दिया है।
कुछ दिनों पहले वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने लिखा था कि नेहरु मोदी बन नहीं सकते, वे इंदिरा गांधी बनने की अंधी दौड़ में हैं। तब हमने भी सार्वजनिक तौर पर उनके इस मंतव्य से सहमति जतायी थी।
अब वह सहमति वापस लेने की इजाजत चाहता हूं।
तानाशाही के रचनाक्रम के सिलसिले में देश की सत्ता के केंद्रीयकरण के मामले में सत्ता वर्चस्व के मामले में वे इंदिरा समय की झांकियां भले ही पेश करें, विदेशनीति और राजनय के मामले में नरेंद्र भाई मोदी अब भी नेहरु जमाने में हैं।
बदलते हुए वैश्विक समीकरण एकध्रुवीय वैश्वीकरण के विरुद्ध है।
मुक्त बाजार के व्याकरण के मुताबिक भी एकध्रुवीय वैश्विक सत्तास्थाई केंद्र का बना रहना असंभव है।
मुक्त बाजार वैश्वीकरण पर निर्भर है और वैश्वीकरण में सत्ता बाजार की ताकतों पर नियंत्रण का मामला है या इसके उलट सत्ता बाजार की ताकतों में निष्णात हो जाने का मामला है।
मौजूदा भारतीय राज्यतंत्र और राजनीति के कारपोरेट शिकंजे में फंसे होने की नियति को हम इसी तरह परिभाषित कर सकते हैं।
तो दूसरी तरफ, उभरते हुए बाजारों के अर्थशास्त्र और संसाधनों के बंटवारे के संघर्ष से बनते बिगड़ते आंतर्जातिक संबंधों में दीर्घकाल तक एक ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था भी असंभव है।
मसलन अमेरिका का हमेशा अमेरिका बने रहना उसी तरह असंभव है जैसे कि सोवियत संघ का अवसान का संभव हो जाना है।
नेहरु युग में मुख्य चुनौती शीतयुद्ध से निपटने की थी, तो नेहरु ने निर्गुट राजनय का सृजन किया और उनकी बेटी इंदिरा ने उसे एक निर्णायक ताकत में बदलने में कामयाबी हासिल की।
शीतयुद्ध के अवसान, सोवियत विखंडन और एक ध्रुवीय वैश्विक मुक्तबाजारी व्यवस्था ने एक बेहतरीन मौका दिया भी कि भारत नेहरु इंदिरा जमाने की राजनय से बाहर निकलकर अपनी संप्रभुता और स्वतंत्रता के मुताबिक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्वतंत्र राजनय का निर्माण करें।
चूंकि अब द्विपाक्षिक राजनय का जमाना है नहीं, बहुपक्षीय संवाद का समय है यह।
सीधे तौर पर समझे तो चुनौती यह है कि सोवियत पतन के बाद आपने सोवियत समाजवादी माडल छोड़ मुक्तबाजारी डालर वर्चस्व का अंगीकार किया और अनंत वृद्धिदर विदेशी विनिवेश बजरिये विकाससूत्र पेलते रहे, तो सोवियत के बाद अब अगर डालरसमेत अमेरिका का विखंडन हो गया तो नय़ी वैश्विक व्यवस्था के बाद आपका राजनयिक अवस्थान क्या होना चाहिए।
भारतीय राजनेताओं और प्रधानमंत्रियों में अटल बिहारी वाजपेयी शिख से नख तक स्वयंसेवक होते हुए राजनय के मामले में अब भी अव्वल नंबर के हैं।
सोवियत या अमेरिकी ध्रुवीकरण को तोड़ते हुए बहुपक्षीय राजनय की परिपक्वता के लिए हमेशा वे याद किये जायेंगे।
अमेरिका और सोवियतसंघ के समांतर यूरोपीय देशों से लेकर चीन और इजराइल तक के समीकरण बनाने में उनकी निर्णायक पहल रही है। लेकिन मनमोहनी मुक्ताबाजारी राजकाज में भारत फिरभी अमेरिकी उपनिवेश बन गया।
अब तक हम मानते रहे हैं कि फेंकू और बड़बोले धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद के कारोबारी राजनेताओं के मंचीय रैंप के पीछे संघ परिवार के अंदर महल में सचमुच के राष्ट्रवादी निष्ठावान विवेकवान प्रतिभावान नीति निर्मताओं की टोली अवश्य होगी।
अब लगता है कि जैसे भाजपा में पुरातन स्वयंसेवकों को बलि प्रदत्त कर दिया गया और केसरिया राजकाज कारपोरेट हवाले है, उसी तरह संघ परिवार के नीति निर्देशन में भी स्वदेशी जागरुक वस्तुनिष्ठ तत्वों का अवसान हो गया है और नागपुर में भी अब कारपोरेट वर्चस्व कायम है जो खास-खास कंपनियों के हितों के मुकाबले राष्ट्रहित की पहचान करने से साफ इंकार कर रहे हैं या संघ परिवार राजनीति की अपर धारा वामपंथ की तरह ही कुछ गति प्राप्त कर चुका है।
बुलेट ट्रेन की गति से दौड़ रहे स्मार्ट गुजरात मॉडल के एकमेव ब्रांड एंबेसेडर भारत देश को डिजिटल बायोमेट्रिक देश बनाने के मनमोहनी परिकल्पना को साकार करने के लिए इतने अधिक बेताब हैं और उनके अधूरे छोड़े दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए देश बेचो अश्वमेध अभियान में इतने ज्यादा निर्मम है कि यह भूल ही गये की प्रधानमंत्रित्व में नेहरु इंदिरा वृक्षछाया से निकलने के लिए उन्हें अटल चरण चिन्हों पर चलने की जरुरत भी है।
जैसे उपराष्ट्रपति हमीद अंसारी ने कहा भी कि विदेश नीति के मामले में मोदी सही कदम उठा रहे हैं, भारत की पूर्वदेशीय झुकान वाली राजनय से हमें भी ऐसा लग रहा था कि शायद मोदी बहुपक्षीय राजनय के जरिये वैश्विक समीकरणों का मुकाबला करना सीख रहे हैं और शायद फेंकू होने के बावजूद उनकी दृष्टि परिष्कार हुआ होगा।
हम तो अपेक्षा कर रहे थे कि चीन और जापान, ब्राजील और यूरोप के विविध समीकरण मार्फत वे शायद अमेरिकी चंगुल से बाहर देश को निकालने की ईमानदार कोशिश कर रहे होंगे।
अमेरिका यात्रा से पहले भारत में चीनी राष्ट्रपति की यात्रा के तहत मोदी को इतिहास ने एक अभूतपूर्व मौका दिया भी कि वे पंडित जवाहर लाल नेहरु की हिमालयी भूल को सुधार कर वैश्विक व्यवस्था का एशिया समय का शुभारंभ कर दें। लेकिन अमेरिका परस्त मीडिया के दबाव और अपने अंधराष्ट्रवादी धर्मन्मादी आइकोनिक हैसियत की सीमाबद्धता के चलते वे न अमेरिकी छांव से बाहर निकल सकें और न नेहरु इंदिरा वटवृक्षों के अंधेरी कोख से जहां हर दिशा फिर अमेरिकी हितों में निष्णात हैं।
बाहैसियत प्रधानमंत्री मोदी को मीडिया हाइप मुताबिक घुसपैठ बहस में अपनी बढ़त खोने की नौबत आनी ही नहीं देनी चाहिए थी।चीनी घुसपैठ पर हंगामा बरपाने और छायायुद्ध उन्माद के स्रोतों की खबर भी उन्हें होनी चाहिए थीं।
भारत चीन सीमा विवाद एक झटके से कतई सुलझ नहीं सकते और न यह कोई जनमत संग्रह का मामला है।
सबसे अहम बात तो यह है कि भारत और पड़ोसी देशों के बीच जो निर्धारित सीमा है, वास्तविक निंयंत्रण रेखा पर सहमति है, वैसा भारत चीन सीमा पर नहीं है।
सारे दावे प्रति दावे वाद विवाद अंग्रेजों की बनायी एक काल्पनिक रेखा मैकमोहन लाइन है, जिसे बनाये रखने के लिए हिमालयी भूगोल, जलवायु और मौसम के सामाजिक यथार्थ को भूलकर जवाहर लाल नेहरु भारत चीन युद्ध में उलझकर रह गये।
सेनापतियों के उस युद्ध अनुभव पर जो भी कुछ लिखा गया है, उसे समग्रता से पढ़ने पर कोई गधा भी समझ सकता है कि हिमालय न नदी की धार है, न रण है और न समुंदर, वह निरंतर पिघलता ग्लेशियर भी है, हिमस्खलन और भूस्खलन का बवंडर भी है तो भूकंप का बसेरा भी है।
वहां वास्तविक नियंत्रण रेखा दूसरी सीमाओं की तरह बनाना वास्तविक अर्थों में असंभव है। सैन्य उपस्थिति, अधिसंरचना, रक्षा प्रयोजनों से द्विपाक्षिक निरंतर समायोजन समन्वय के जरिये विवादो के निपरटारे के स्थाई बंदोबस्त सबसे ज्यादा जरूरी है और द्विपाक्षिक संबंधों को 1962 के युद्धक्षेत्र से बाहर निकलने की जरूरत है।
लेकिन अंध राष्ट्रवाद के तहत एक इंच जमीन छोड़ना राष्ट्रद्रोह है।
पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्रमा में निर्णायक सैन्य हस्तक्षेप के बावजूद हम भारत बांग्ला गलियारों की पहेली अब भी बूझ नहीं पाये कि राजनीतिक फैसले की जिम्मेदारी कौन लेगा।
हाल में भारत और बांग्लादेश के बीच समुद्र सीमा का जो निर्धारण शांतिपूर्ण हो गया, उसमें खास कंपनियों को खास फायदा हो जाने की वजह से हजारों हजार वर्ग मील तेल गैस समृद्ध समुद्र के हाथ से निकलने पर कोई बवंडर लेकिन नहीं मचा। लेकिन उसी सर्वशक्तिमान मीडिया ने पचास सौ किमी तक चीनी सेना की बढ़त का ऐसा हंगामा बरपा दिया की सैकड़ों अरब डालर के कारोबार के बावजूद भारत चीन सीमा विवाद अब भी फिर वही नेहरु युग के दलदल में है।
अब जब मोदी अमेरिका जायेंगे, तो एफडीआई खायी मीडिया के अंखंड पाठ देख लीजियेगा, तब राष्ट्रीय हित कहीं विवेचनीय होने नहीं हैं।
बाबी जिंदल को अमेरिकी राष्ट्रपति बनाने के समीकरण के साथ सीमाओं को यथावत रखकर अंध राष्ट्रवाद की सुनामी बजरिये संसाधनों के अधिकतम उपयोग के मध्य देश भर में विदेश बनाने का स्वदेशी जाप देख लीजियेगा।
-0-0-0-0-0-0-0-
जनमत सर्वेक्षण,ऐतिहासिक जनमत संग्रह, ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन , अंध राष्ट्रवाद, साम्राज्यवादी इतिहास, अमेरिकी साम्राज्यवाद, स्वतंत्र राजनय, धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद, संघ परिवार, गुजरात माडल, बुलेट ट्रेन, देश बेचो अभियान,घुसपैठ,भारत चीन सीमा विवाद, अंध राष्ट्रवाद , बहस,Blind nationalism, the Sangh Parivar, Gujarat Model, Bullet Train, the country peddle campaign, intrusion, India China border dispute, blind nationalism, arguing, Multilateral dialogue is the time it,


