रूस में उफा में शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच हुई बातचीत और उसमें हुई पांच कदमों पर सहमति पर प्रकाश डाल रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा
बेशक, रूस में उफा में शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच हुई बातचीत और उसमें हुई पांच कदमों पर सहमति को, लौट के बुद्धू घर को आए का उदाहरण भी कहा जा सकता है। लेकिन, इसके साथ यह जोड़ऩा नहीं भूलना चाहिए कि इस ‘घर वापसी’ से पहले की भटकन की दो पड़ौसी नाभिकीय देशों के बीच, गैरजरूरी तनाव के दस महीनों के जरिए दोनों देशों को और वास्तव में पूरे दक्षिण एशिया को ही भारी कीमत चुकानी पड़ी है और आगे भी कुछ समय तक चुकानी पड़ रही होगी। इसे देखते हुए इसे महज बुद्धूपन कहकर नहीं छोड़ा जा सकता है। पिछले साल अगस्त के महीने में जिस तरह, भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों के बीच बातचीत अचानक सिर्फ इसलिए निरस्त कर दी गयी थी कि उसकी पूर्व-संध्या में, भारत में पाकिस्तान के हाई कमिश्नर ने काफी समय से चली आ रही अपनी परंपरा के अनुसार, अलगाववादी कश्मीरी मंच हुर्रियत के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर ली थी, उसका कम से कम बुद्धूपन से कुछ लेना-देना नहीं था।
बेशक, चाहे नरेंद्र मोदी के छवि प्रबंधक कितना ही यह दिखाने की कोशिश करें कि उस समय अपनायी गयी कथित ‘‘सख्त मुद्रा’’ से भारत को, पाकिस्तान तथा प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को झुकाने में कामयाबी मिली है, सचाई यही है कि मोदी सरकार को अंतत: अनावश्यक अकड़ छोड़कर, बातचीत का रास्ता फिर से खोलने की अनिवार्यता के आगे झुकना पड़ा है।
लेकिन, इसका अर्थ यह हर्गिज नहीं है कि वह ‘‘सख्त मुद्रा’’, जिसे भाजपा तथा मोदी सरकार के प्रचारकर्ता यह कहकर प्रचारित करते नहीं थकते थे कि ‘पहली बार पाकिस्तान तो करारा जवाब दिया जा रहा है’, कोई अनजाने में की गयी या नासमझी की भूल नहीं थी, जिसे अब सुधारा जा रहा है। उल्टे अंतत: उस रास्ते से कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर होना, पिछले अगस्त में ऐसी उग्र मुद्रा के अपनाए जाने के पीछे राष्ट्रीय हित की किसी कल्पना की जगह पर, क्षुद्र राजनीतिक-छविगत चिंताओं के काम कर रहे होने को ही दिखाता है। याद रहे कि इससे पहले प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को, नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किए जाने और शरीफ के उक्त आमंत्रण को स्वीकार कर भारत आने से, भारत और पकिस्तान के संबंधों में सुधार के प्रबल सकारात्मक संकेत गए थे। नरेंद्र मोदी ने इससे पहले अपने नौ महीने से लंबे लोकसभाई चुनाव प्रचार के दौरान, विशेष रूप से पाकिस्तान के खिलाफ जैसी उग्र तथा एक हद तक भड़काऊ भाषा का सहारा लिया था, उसकी पृष्ठभूमि में ये इशारे बहुत ही जरूरी भी थे।
बहरहाल, अगस्त के फैसले के जरिए मोदी सरकार ने बड़ी बेरहमी से उन संकेतों पर पानी फेर दिया। वास्तव में इसके हिस्से के तौर पर इस तरह के दावे भी किए जा रहे थे कि भारत ने बातचीत के लिए पाकिस्तान के सामने नयी शर्तें रख दी हैं और अब पाकिस्तान को पहले अपनी ‘पात्रता’ साबित करनी होगी, उसके बाद ही मोदी सरकार किसी बातचीत पर विचार करेगी।
हालांकि! उस समय इसे बहुत जोर-शोर से कहा नहीं गया था, फिर भी यह सचाई किसी से छुपी हुई नहीं थी कि पाकिस्तान के प्रति उग्रता की यह मुद्रा, अक्टूबर में हुए महाराष्ट्र तथा हरियाणा के विधानसभाई चुनावों से ऐन पहले अपनायी गयी थी। याद रहे कि झारखंड तथा जम्मू-कश्मीर के विधानसभाई चुनाव इसके फौरन बाद, नवंबर-दिसंबर में ही होने थे। इन चारों ही राज्यों में और उसमें भी खासतौर पर महाराष्ट्र तथा जम्मू-कश्मीर में, पाकिस्तान के विरुद्ध उग्रता, अपनी मुस्लिम-विरोधी ध्वनियों के जरिए, हिंदू वोट के अपने पक्ष में ध्रुवीकरण के भाजपा के प्रयासों में ही मददगार हो सकती थी। वास्तव में यह कहना भी बिल्कुल निराधार ही नहीं होगा कि दस महीने बाद अब जुलाई में, पाकिस्तान के प्रति स्वर तथा मुद्रा में इस बदलाव में भी बिहार के आगामी विधानसभाई चुनावों के तकाजों की कुछ भूमिका जरूर हो सकती है, जो अब सिर्फ चंद महीने दूर रह गए हैं।
आखिरकार, यह संयोग ही नहीं होना चाहिए कि विदेश में ही सही, इससे पहले पिछले सार्क शिखर सम्मेलन के मौके पर कठमंडू में भी, मोदी और नवाज शरीफ के हाथ मिलाने का मौका जरूर आया था। लेकिन, उस समय बात इससे जरा भी आगे नहीं बढ़ी। जम्मू-कश्मीर तथा झारखंड के चुनाव से ऐन सिर पर जो थे।
यह समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं है कि महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर आदि के विपरीत बिहार में, जहां मुस्लिम आबादी करीब 17 फीसद है और आगामी विधानसभाई चुनाव में भाजपा को, नीतिश-लालू-कांग्रेस महागठबंधन कांटे की टक्कर देने जा रहा है, भाजपा अपना मुस्लिम विरोधी चेहरा भरसक छुपाना ही चाहेगी। ऐसे में अगर पाकिस्तान के प्रति उग्रता की मुद्रा सत्ताधारी भाजपा को बोझ लगने लगी है तो इसमें किसी को भी अचरज नहीं होना चाहिए। वास्तव में जून के महीने तक खुद भारत की विदेश मंत्री जिस तरह, पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए पहले पाकिस्तान के आतंकवाद के मसले पर ठोस कार्रवाई कर के दिखाने की शर्तें गिना रही थीं, उसे देखते हुए उफा की यह पलटी, सिर्फ यही नहीं दिखाती है कि नरेंद्र मोदी व्यावहारिक मानों में खुद ही अपने विदेश मंत्री भी हैं। बिहार के अति-महत्वपूर्ण चुनाव से चंद महीने पहले आयी इस पलटी के पीछे बिहार के आने वाले चुनाव के तकाजों के काम कर रहे होने की संभावनाएं को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता है। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अभूतपूर्व हार के बाद, बिहार में हार मोदी के विजय रथ के पूरी तरह से रुक जाने की एक तरह से औपचारिक घोषणा होगी, जिसके देश की राजनीति के लिए दूरगामी निहितार्थ होंगे।
दुर्भाग्य से समस्या सिर्फ इतनी नहीं है कि यह विदेश नीति के और खासतौर पर एक महत्वपूर्ण पड़ौसी देश के प्रति नीति के, क्षुद्र राजनीतिक-छविगत चिंताओं के संचालित होने का मामला है। समस्या यह भी है कि यह खेल, बुद्धू बनकर घर वापसी पर भी रुकने वाला नहीं है। इस घर वापसी में ‘विजय’ के तत्वों की खोज करना भी, सिर्फ वापसी के लिए मुंह छुपाने के बहानों की तलाश का मामला नहीं है।
असली समस्या यह है कि भाजपा तथा उसका पितृ संगठन आर एस एस की, जो मुसलमानों के खिलाफ तथा उसके बाहरी विस्तार के तौर पर पाकिस्तान के खिलाफ उग्र तेवर को, अपने राष्ट्रवाद की निशानी या पहचान ही मानते हैं, स्वाभाविक प्रवृत्ति पाकिस्तान के प्रति अपनी उग्रता के प्रदर्शन की रहती है। यह दूसरी बात है कि सत्ता में रहते हुए अनिच्छा से ही सही उन्हें भी अंतत: प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा रेखांकित की गयी इस सचाई को भी स्वीकार करना पड़ता है कि, ‘पड़ौसियों को तो बदला नहीं जा सकता है, उनके साथ रिश्ते जरूर बदले जा सकते हैं।’ लेकिन, मजबूरी में इस सचाई की पहचान भी खासतौर पर पाकिस्तान के प्रति नीति को, उग्र और सामान्य स्वरों के दो ध्रुवों के बीच, पेंडुलम बनाकर ही रखती आयी है।
यह वाकई दिलचस्प है कि एनडीए के पिछले राज में, नाभिकीय विस्फोट के साथ भारत के नाभिकीय शस्त्रसंपन्न देश होने की घोषणा तथा बराबरी हासिल करने के लिए पाकिस्तान की दौड़ के जरिए, पाकिस्तान के साथ रिश्तों को रसातल में लगाने से शुरूआत की गयी थी और प्रधानमंत्री की ‘लाहौर बस यात्रा’ के साथ ‘घर वापसी’ हुई थी। कुछ आगे चलकर, जैसे वही सब दोहराते हुए पाकिस्तान की ओर से कारगिल के साथ रिश्ते एक बार फिर रसातल में लगाए गए थे और मुशर्रफ की ‘आगरा यात्रा’ के साथ ‘घर वापसी’ हुई थी।
इस बार बेशक क्रम बदला हुआ है, फिर भी हम पेंडुलम का इस सिरे से उस सिरे तक झूलना ही तो देख रहे हैं। नरेंद्र मोदी की सारी राजनीतिक मजबूरी और विशेष रूप से खुद पाकिस्तान में आतंकवादियों की बढ़ती ताकत के संदर्भ में नवाज शरीफ की सारी राजनीतिक कमजोरी के बावजूद, भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को पेंडुलम की इस नियति से मुक्ति दिलाए जाने के कम से कम अब तक कोई आसार नहीं हैं। बेशक, दोनों देशों के रिश्ते पेंडुलम बने रहने के लिए अभिषप्त नहीं हैं। लेकिन, कम से कम संघ-भाजपा के नजरिए से संचालित सरकार से तो इस नियति से मुक्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
0 राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।