भारत में किस्सा कोई यूनान से अलग नहीं, लूटखसोट के धंधे में सबै बराबर हिस्सेदार
भारत में किस्सा कोई यूनान से अलग नहीं, लूटखसोट के धंधे में सबै बराबर हिस्सेदार
मोगांबो खुश हुआ, दावा खूब जोर कि बुलबुले जैसे हालात नहीं हैं
आप अपनी खैर मनायें कि आपका कोई मिस्टर इंडिया है ही नहीं
ज्यादा इतरइयो नहीं, भारत में किस्सा कोई यूनान से अलग नहीं है भइया, बहिना।
लूटखसोट के दंधे में सबै बराबर हिस्सेदार, बांया हो या दाहिना।
1991 से जो सिलसिला जारी है आर्थिक सुधारों के जनसंहारी अश्वमेध का, फासिज्म के राजकाज का, उसे डरियो, वरना मरियो, भइया, बहिना।
हर कातिल का रंग अलग-अलग, खून फिर भी लाल है, कातिल जो बायां या दाहिना।
ग्रीस में जो हो रहा है, हूबहू भारत में वहीं हो रहा है। फर्क सिर्फ इतना है, वे समझ रहे हैं और अबभी हम नासमझ हैं।
दावा खूब जोर कि बुलबुले जैसे हालात नहीं हैं।
बुलबुले लेकिन तितलियां हैं।
खूबसूरत।
उड़ते हुए बुलबुले लेकिन इंद्रधनुष है और मौसम हनीमून का है।
यात्राओं और मेलों से समां बंधा है।
रोजी रोटी की सोचे कौन मूरख, सबको हउ चाहिए और कंडोम का अकाल है बलि चारों तरफ बिन कंडोम एड्स महामारी की दस्तक है।
ग्रेटिक्स टालने का गजब इंतजाम हुआ है।
ग्रीस में समझौता भारतीय बाजारों के लिए बेहतर संकेत है। साथ ही चीन के संकट का असर भी बाजार पर ज्यादा दिनों तक नहीं होगा।
ग्रीस यानी कि यूनान की जमानत का बंदोबस्त उसे कर्ज में छूट या कर्ज से उबारने के लिए कतई नहीं हुई है। उसे और कर्ज दिया गया है कि वह इस कर्ज से अपना कर्ज चुकता कर सकें या नहीं कर्ज का ब्याज जरुर चुका दें, जैसे किसी सुखीलाला को असल वसूलने की गरज कभी नहीं होती, उसे सूद से मतलब है।
असल वसूल हो गया हो सूद मिलेगा नहीं और सोने का अंडा देने वाली मुर्गी मर जायेगी। इसलिए कर्जे को जिंदा रखो और सूद भरने के लिए फिर कर्जा दो।
दो टूक शब्दों में महाजनी पूंजी से उत्पादकों की ऐसी तैसी करने, अनंत बेदखली और कत्लेआम का सिलसिला जारी रखते हुए दुनिया भर के शेयरबाजार अर्थव्यवस्थाओं में सांढ़ों की दौड़ बहाल रखने और फासिज्म का राजकाज ग्लोबल चलाने के लिए यूनान के संकट में कामर्शियल ब्रेक है ताकि बुलरन कुछ देर और चले मुनाफावसूली के लिए भालुओं का खेल शुरु करने से पहले तक इंटरवेल।
खेल-खेल के नियम से भहुतै धांय धायं है और इसी वास्ते मोगांबा खुश हुआ।
भौते खुश हुआ है मोगांबो, अब आप आपनी खैर मनाइये कि छप्पन इंच की छाती तो हैं आपके पास, लेकिन कोई मिस्टर इंडिया है ही नहीं।
कुल मिलाकर लब्वो लुआब यह है कि फिल्म अभी खत्म हुई नहीं है, महज दुनियाभर में शेयरबाजारों में बुलरन के लिए कामर्शियल ब्रेक है, मुनाफावसूली के लिए फिर संकट गगन घटा गहरानी है।
महामंदी पर तेलकुंओं की आग का धुआं है कि रब ने खोल दिये सारे ज्वालामुखी के मुहाने और तिस पर बरसने लगा है मानसून लहसून का तड़का कच्चा तेल जो है दरअसल जलता हुआ और डालर निगलता हुआ।
तस्वीर के चमकीले हिस्से को पलटो तो सुखीलाला की अर्थव्यवस्था का आलम यूं है कि भुखमरी और कुपोषण का सिलसिला घनघोर है कि इस साल बेमौसम बारिश से गेहूं की फसल को भारी नुकसान पहुंचा था। सरकार ने किसानों को राहत के लिए सरकारी खरीद नियमों में ढील दी, लेकिन इसका असर ये हुआ कि एफसीआई के गोदामों में करीब 80 फीसदी खराब गेहूं का स्टॉक जमा हो गया है।
दूसरी ओर वैश्विक इशारों का मजा यह है कि मजा यह है जो यूनान संकट का अगला अंक है। परदा भी उठने लगा है कि कच्चे तेल में भारी गिरावट आई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड का दाम 2 फीसदी तक लुढ़क गया है। वहीं घरेलू बाजार में करीब 3 फीसदी नीचे कारोबार हो रहा है।
यूनान अभी गले गले तक कर्ज में डूबा है। यूरोपीयआर्थिक समुदाय से निकल जाता तो आर्थिक सुधारों के चक्रव्यूह से निकल जाता और लोककल्याण की कुछ जुगत हो जाती तो यूनान में भूखे बच्चों का कुछ भला हो जाता, थोडा़ सा पेंशन बढ़ जाता और मरीजों का इलाज हो जाता। बैंकिंग चल निकलती औऱ अखबार भी तमाम छप रहे होते। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बाकी बेलआउट हो गया संकट और गहराने के लिए।
जनता के भले के लिए, इंसानियत की रिहाई के लिए कुछ भी नहीं हुआ और सूदखोर महाजनी सभ्यता की जीत हो गयी बल्ले-बल्ले और मोगांबो खुश हो गया।
ज्यादा इतरइयो नहीं, भारत में किस्सा कोई यूनान से अलग नहीं है भइया, बहिना।
लूटखसोट के दंधे में सबै बराबर हिस्सेदार, बांया हो या दाहिना।
1991 से जो सिलसिला जारी है आर्थिक सुधारों के जनसंहारी अश्वमेध का, फासिज्म के राजकाज का, उसे डरियो, वरना मरियो, भइया, बहिना।
हर कातिल का रंग अलग अलग, खून फिर भी लाल है, कातिल जो बाायां या दाहिना।
आज के सबसे लोकप्रिय बांग्ला दैनिक में अर्थशास्त्री अभिरुप सरकार का संपादकीय आलेख है कि पीएफ का पैसा बाजार में क्यों डाला जा रहा है? क्यों कर्मचारियों की जिंदगी भर की खून पसीने की कमाई बाजार के जोखिम में डाला जा रहा है?
ये वही अर्थशास्त्री हैं, जिनने भारतीय रेल के तुरंत निजीकरण की जबर्दस्त वकालत की है और याद रखें, मार्क्सवादी विचारधारा के विपरीत पूंजीवादी विकास के हाईवे पर सिंगुर नंदीग्राम दौर के बंगाल के वामशासन के सबसे बड़े अर्थशास्त्री भी वे ही हैं।
जाहिर है कि लफ्फाज सिर्फ साहित्य और पत्रकारिता में नहीं होते, बगुला भगत संप्रदाय भी कम लफ्पाज नहीं होते। मसलन रिजर्व बैंक गवर्नर की उलटबांसियों का ख्याल करें या फिर बंगाल और चीन की भुखमरी के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को क्लीन चिट देने वाले डा.अमर्त्यसेन का अखंड मानवता वाद समझ लें।
बाजार में जोखिम हैं तो किसकी खातिर, ये बगुला समुदाय के भक्त वृंद हरिकीर्तन करते हुए कपास ओटने लगे हैं, समझ लीजिये।
जनता के बीच बगुलों की भी साख बनाने की उतनी ही गरज है जितनी कि टाइटैनिक बाबा की। बाकी वही दिनदहाड़े लूट और भारी भीड़ के बीच जेबकतरी और राहजनी का किस्सा है, भारतीय अर्थव्यवस्था में आम जनता बा बचा खुचा जो हिस्सा है।
इसके विपरीत भारतीय बाजार मजबूत है और इनमें कोई बुलबुले जैसे हालात नहीं हैं, ये मानना है सेबी चेयरमैन यू के सिन्हा का। सीएनबीसी-आवाज के साथ बातचीत में यू के सिन्हा ने ये भी कहा कि सेबी के कामकाज में सरकार का कोई दखल नहीं है। उन्होंने ये भी कहा कि सेबी ने सिर्फ उन कॉरपोरेट पर कार्रवाई की है जिन्होंने नियमों का पालन नहीं किया है। यू के सिन्हा ने ये भी कहा कि सेबी कॉरपोरेट के पक्ष में काम नहीं करता।
कुल मिलाकर मुक्तबाजारी महाजनी सभ्यता का सार यही है।
क्रेडिट कार्ड से कर्ज लेते जाओ, लेते जाओ, असल लौटाने की सोचो नहीं, कर्ज का सूद भरते जाओ। आजादी के बाद भारतीयअर्थव्यवस्था का किस्सा भी वही है। वहां, कर्ज का सूद भरते जाओ।
हर बजट का बड़ा हिस्सा पहले से लिए विदेशी कर्ज के भुगतान में निबट जाता है।
लाखों करोड़ हर साल।
बाकी लाखों करोड़ युद्ध और गृहयुद्ध और अंधाधुंध सैन्यीकरण की मुनाफावसूली के लिए खरच तो जनप्रतितिनिधियों के ऐशो आराम और उनकी बिलियन मिलियन डालर की तरक्की के खातिर जो सरकारी खर्च और कर्मचारियों के वेतन में जो खर्च उसे निकालकर सारा का सारा कर्ज कारपोरेट का टैक्स छूट।
जनता के हिस्से में बाबाजी का ठुल्लु।
इस धंधे को भारत के किसान हजारों सेला से खब जानते हैं। खेती के लिए साहूकार से पहले कर्ज लो गिरवी रखकर अपना सबकुछ, फिक कर्ज भरते चले जाओ।
कर्ज का ब्याज चक्रवृद्धि दर से बढ़ता जाए।
महाजनी सभ्यता का मजा यह है कि सारी शर्तें साहूकार की होती हैं और कर्ज लेने वाले का कोई हक हकूक नहीं होता।
बैंकिंग के दायरे से छोटा मोटा कर्ज लेकर भारत भर में अब भी किसान तजिंदगी उतार नहीं पाते और थोक पैमाने पर खुदकशी करते हैं।
सुखीलाला का यह किस्सा कोई अर्थशास्त्र लेकिन नहीं है, भारतीय अर्थव्यवस्था का जलता हुआ सच है और जो मुक्त बाजार में तमाम सेवाओं को खरीदने के इंतजाम के साथ इतना भयंकर चेहरा बन गया है मुक्त बाजार का, कि उसे आस्था और धर्म की आड़ में छुपाया जाता है।
कितनी बदबू होगी वहां, जहां सुगंध के लिए खुशबू की नदियां बहायी जाती है।
विश्वव्यवस्था के कायदे कानून महाजनी सभ्यता के सामंती बंदोबस्त से भी भयानक है क्योंकि आपका बजट कैसा हो, यह आप तय नहीं करते, विश्वव्यवस्था करती है।
विश्वव्यवस्था के कायदे कानून महाजनी सभ्यता के सामंती बंदोबस्त से भी भयानक है क्योंकि आपकी सरकार किसकी हो, आपके प्रधानमंत्री कौन हो और आपके वित्त मंत्री कौन हो, किस पार्टी को आप वोट देकर जितायें और किस पार्टी को आप हरा दें, यह आप तय नहीं करते, विश्वव्यवस्था करती है।
विश्वव्यवस्था के कायदे कानून महाजनी सभ्यता के सामंती बंदोबस्त से भी भयानक हैं क्योंकि आपका वित्तीय प्रबंधन , मौद्रिक प्रबंधन कैसा हो, यह आप तय नहीं करते, विश्वव्यवस्था करती है।
विश्वव्यवस्था के कायदे कानून महाजनी सभ्यता के सामंती बंदोबस्त से भी भयानक हैं क्योंकि आप कितना टैक्स लगायें और किस पर टैक्स लगाये और किसे टैक्स देना न पड़े कतई, यह आपकी चुनी हुई सरकार तय नहीं करते, विश्वव्यवस्था करती है।
विश्वव्यवस्था के कायदे कानून महाजनी सभ्यता के सामंती बंदोबस्त से भी भयानक है क्योंकि आपका संविधान किस हद तक प्रासंगिक है और किस तरह उसे बदलना चाहिए, कौन से कानून होने चाहिए और कौन से कानून नहीं होने चाहिए, कौन से कानून सिरे से बदल देने चाहिए, यह आपकी संसद या विधानसभाएं हरगिज तय नहीं करती, विश्वव्यवस्था करती है।
विश्वव्यवस्था के कायदे कानून महाजनी सभ्यता के सामंती बंदोबस्त से भी भयानक हैं क्योंकि आपकी विदेश नीति क्या हो और राजनय क्या हो, किससे कैसे आपके संबंध हों और दूसरों के साथ आपका कारोबार कितना खुल्ला हो, कैसा हो कारोबार, यह आपकी सरकार या संसद तय नहीं करती, विश्वव्यवस्था करती है।
विश्वव्यवस्था के कायदे कानून महाजनी सभ्यता के सामंती बंदोबस्त से भी भयानक है क्योंकि आपका बजट पैसा कहां जायें, आप पीएफ पेंशन भविष्यनिधि, बीमा जमापूंजी का क्या हश्र हो, क्या बाजार में झोंका जायें, यह आप तय नहीं करते, , आपकी सरकार या संसद भी नहीं तय नहीं करती, विश्वव्यवस्था करती है।
आपको सब्सिडी मिले या नहीं, आपका विकास कितना हो और विकास के साथ-साथ आपके संसाधनों का क्या हो, यह भी आपकी सरकार और संसद तय नहीं करती है, विश्वव्यवस्था करती है।
विदेशी पूंजी कितना अबाध हो, विनिवेश कितना और किस हद तक हो, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कहां-कहां हो, यह भी सरकार और संसद तय नहीं करती, विश्वव्यवस्था करती है।
नागरिकों के हक क्या हैं, मानवाधिकार कितने हों और कानून का राज कितना, दमन कितना हो, उत्पीड़न कितना हो और कत्लेआम कितना, देश का सैन्यीकरण कितना हो, आप किससे लड़ें, किससे न लड़ें और राजद्रोह के आरोप में आपकी सरकार किसे जेल में डालें या फांसी दे, या मुठभेड़ में मार गिराएं और अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रतता हो, यह सबकुछ माफ कीजिये, देश की सरकार और संसद तय नहीं करती। विश्वव्यवस्था तय करती है।
ग्रीस में जो हो रहा है, हूबहू भारत में वहीं हो रहा है। फर्क सिर्फ इतना है, वे समझ रहे हैं और अबभी हम नासमझ हैं।
पलाश विश्वास


